पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१७७

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पलगड़ी २८५६ पलक (२) कोई बडी वीमारी झेलकर अच्छा होना। बीमारी से उठना । खाट मेकर उठना (बोलचाल) । पलंग तोडना = बिना कोई काम किए सोया या पड़ा रहना । कुछ काम न करते हुए समय काटना । निठल्ला रहना । खाट तोडना । पलग लगाना - विछौना विछाना। किसी के सोने के लिये पलग पर विछौना विछाना और तकिया आदि को यथास्थान रखना । बिस्तर दुरुस्त करना। पलंगड़ी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पलग+ही (प्रत्य॰) ] पलग । उ०- और श्री प्राचार्य जी महाप्रमुन की पलगडी के सानिध्य निवेदन की क्यो नहे ? यह तो रीति नाही।-दो सौ बावन, मा० २, पृ० १६ । २ छोटा पलग । पलगतोड़-मज्ञा पुं० [हिं० पलग+तोड़ना] एक प्रोपधि जिसका मुख्य गुण स्तभन है। यह वीर्यवृद्धि के लिये भी खाई जाती है । पलंगतोड़-वि० निठल्ला । पालसी । निकम्मा । पलगदत-सज्ञा पुं० [फा० पलग (= चीता) + हिं० दांत ] वह जिसके दाँत चीते के दांतो की तरह कुछ कुछ टेढे होते हैं । पलंगपोश-मञ्चा पुं० [हिं० पलग + फा० पोश ] पल ग पर विछाने की चादर । पलंजी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ देश०] १. एक प्रकार की बरसाती घास जो उत्तरी भारत के मैदानो मे अधिकता से होती है । भूसा । गुलगुला । बडा मुरमुरा । वि० दे० 'भूसा' । पझंडी-सज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] नाव में का वह बांस जिससे पाल खडी की जाती है । ( मल्लाह )। पलँग, पलँगा-सज्ञा पु० [हिं० पलग ] दे० 'पलग' । उ०—सद्गुरु को पलंगा बैठाई। सब मिलि पाँव पखारो आई।-कवीर सा०, पृ०५४७। पलँगरी सञ्चा स्त्री॰ [हिं० पलग+दी (प्रत्य॰)] पलग । माचा। पलगिया-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पलग+इया (प्रत्य॰)] पलग । खाट । उ०-पौढह पीय पलेंगिया मीजहुँ पाय । रैनि जगे की निदिया सब मिटि जाय । -रहीम ( शब्द०)। पल-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ समय का एक बहुत प्राचीन विभाग जो ३ मिनट या २४ सेकड के बराबर होता है। घडी या दड का ६० वाँ भाग। ६० विपल के बरायर समय मान । २ एक तौल जो ४ कर्ष के बराबर होती है। विशेष—कर्ष प्राय एक तोले के बराबर होता है, पर यह मान इसका बिलकुल निश्चित नही है । इसी कारण पल के मान मे भी मतभेद है। वैद्यक में इसका मान आठ तोला और अन्यत्र चार तोला या तीन तोला चार माशा भी माना जाता है । ३ चार तोले की एक माप । तेल मादि निकालने के लिये लोहे का हंडीदार पात्र। इसमें करीव चार तोले तेल पाता है। परी। पैरी। पला। पली । उ०-अवतक कई गावो मे प्रत्येक घानी से प्रतिदिन एक एक 'पल' तेल मदिरो के निमित्त लिए जाने की प्रथा चली आती है। -राज० इति०, पृ० ४२७ । ४ मास । उ०---पल प्रामिप को कहत कवि, पट उसास पल होय । पल जु पलक हरि विच परे ग पिन जुग सत सोय।- अनेकार्थ०, पृ० १४०। ५ धान का सूखा डठल जिससे दाने अलग कर लिए गए हों। ववाल । ६ घोखवाजी । प्रतारणा। ७ चलने की क्रिया । गति । ८ मूर्ख। ६ तगजू । तुला। १० कीचह । गिलाव या गाय । पलल (को॰) । पन' - सज्ञा पुं० [स० पलक ] १. पलक । गचल । उ०-मुकि झुषि झपकोहैं पलनु फिरि फिरि जुरि, जमुहाइ । वीदि पियागम नीद मिसि दी मब सखी उठाय ।-विहारी र०, दो० ५८६ । विशेप-पहले साधारण लोग पल और निमेष के कालमान में कोई पतर नहीं समझते थे। प्रतः प्राय के परदे का प्रत्येक पल में एक बार गिरना मानकर उसे भी पल या पलक कहने लगे। मुहा०-पल मारते या पल मारने में = बहुत ही जल्दी। प्रांत झपकते । तुरत । जैसे,—पल मारते वह अदृश्य हो गया। २ समय का प्रत्यत छोटा विभाग । क्षण । प्रान । लहजा । दम । विशेप-वही इसे स्त्रीलिंग भी बोलते हैं। मुहा०-पल के पल या पल की पल में बहुत ही अल्प काल मे । वात की बात मे । क्षण भर मे। पलई।-संशा ग्बी० [हिं० कोपल या पल्लव ] १ पेड को नरम डाली या टहनी । २ पेड के ऊपर का भाग । मिरा । नोक । पल उसिनि-सज्ञा ग्पी० [ म० प्रतिगेशिनी ] पडोसिन । उ०-तोरा करम धरम पए साखि, मदि उघाए पलउसिनि राखि ।- विद्यापति, पृ० २६० । पलक-मज्ञा ली [सं० पल+क] १ क्षण पल। लहमा । दम । उ.-कोटि कर्म फिरे पलक मे जो रेचक पाए नांव । अनेक जन्म जो पुन्य वरे नही नाम विनु ठाव । -कबीर (शब्द०)। २ माँख के ऊपर का चमडे का परदा जिसके गिरने से आँख वद होती और उठने से खुलती है। पपोटा तथा बरोनी। उ०-लोचन मगु रामहिं उर पानी । दी हे पलक कपाट सयानी। -तुलसी (शब्द॰) । क्रि० प्र०-गिरना। झपकना । मुहा०- पलक खोलना = प्रांख खोलना । उ०-इन दिनो तो है विपत खुल खेलती। तू भला भी पलक तो खोल दे। -चुभते०, पृ० १। पलक झपकते = प्रत्यत अल्प समय में। बात कहते । एक निमेप मात्र मे। जैसे,-पलक झपकते पुस्तक गायब हो गई। पलक पर लेना=जी खोलकर समान करना। अत्यत प्रेम से सम्मान करना । उ०-लालसा लाख वार होती है। हम पलक पर उन्हें ललक ले लें।-चुभते., पृ०७ । पलक पसीजना = (१) आँखों में आंसू पाना । (२) दया या करुणा उत्पन्न होना । द्रवित होना। प्रार्द्र होना । पलक पविढे विछाना हार्दिक स्वागत करना । उ.-पाइए ऐ मिलाप के पुतले, हम पलक पावड़े विछा