पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१९४

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पस व पेश २६०३ पसीना की ओर आती हैं। पसलियो के अगले सिरे सामने पाकर या अलग करना । भात में से मांड निकालना । २. किसी छाती को ठीक मध्य रेखा तक नही पहुँचते बल्कि उससे कुछ पदार्थ में मिला हुमा जल का अश चुपा या बहा देना । पसेव पहले ही खतम हो जाते हैं । ऊपर की सात सात हड्डियाँ कुछ निकालना या गिराना। वही होती हैं और छाती की मध्य की हड्डी से जुडी रहती हैं। पसाना-क्रि० प्र० [ स० प्रसन्न या प्रसाद ] प्रसन्न होना । इसके बाद की नीचे की ओर की हड्डियां या पसलियां क्रमश खुश होना। छोटी होती जाती हैं और प्रत्येक पसली का अगला सिरा अपने पसार-सञ्ज्ञा पुं० [ स० प्रसार ] १. पसरने की क्रिया या भाव । से ऊपरवाली पसली के नीचे के भाग से जुड़ा रहता है। इस प्रसार । फैलाव । उ०-सात सुरति तब मूल है उत्पति सकल प्रकार प्रतिम या सबसे नीचे की पसली जो कोख के पास पसार । अक्षर ते सब सृष्टि भई, काल ते भए तिछार । होती है सबसे छोटी होती है। नीचे की दोनो पसलियों के -कवीर सा०, पृ० १२१ । २ विस्तार । लबाई और चौडाई अगले सिरे छाती की हड्डी तक तो पहुँचते ही नही, साथ ही पादि । ३. प्रपच । मायाविस्तार । वे अपने ऊपर की पसलियो से भी जुड़े हुए नहीं होते। इन पसारण-सज्ञा पुं० [सं० प्रसारण ] दे० 'प्रसारण' । उ०-गावण, पसलियो के बीच में जो मतर होता है उसमे मास तथा धावण, वलगन, सकोचन, पसारण, ये पांच प्रकृति वायु की पेशियां रहती हैं। साँस लेने के समय मासपेशियो के सिकुडने वोलिए।-गोरख०, पृ० २२३ । और फैलने के कारण ये पसलियां भी आगे बढती और पीछे पसारना-क्रि० स० [सं० प्रसारण ] फैनाना। आगे की ओर हटती दिखाई देती हैं । साधारणत इन पसलियों का उपयोग बढ़ाना । विस्तार करना । जैसे,—किसी के पागे हाथ पसा- हृदय और फेफड़े आदि शरीर के भीतरी कोमल अगो को रना । बैठने की जगह पाकर पैर पसारना । वाहरी माघातो से बचाने के लिये होता है । पशुओं, पक्षियो और सरीसृपो आदि को पसली की हड्डियो की संख्या में पसारा-सचा पुं० [सं० प्रसार ] दे॰ 'प्रसार' । उ०—(क ) शब्दै प्राय बहुत कुछ अंतर होता है और उनकी बनावट तथा काया जग उतपानी शब्दै केरि पसारा । —कबीर, श०, स्थिति पादि में भी बहुत भेद होता है । पसलो की हड्डियो भा०१, पृ० ४३ । (ख) जो दिखियत यह बिस्व पसारी। की सबसे अधिक सख्या साँपो मे होती है। उनमें कभी कभी सो सब क्रीडा भाड तुम्हारौ। नद० ग्र०, पृ० २८२ । दोनो घोर दो दो सौ हड्डियां होती है। पसारी-सञ्ज्ञा पुं॰ [ देश०] १. तिन्नी का धान । पसवन । पसेही। २ दे० 'पसारी'। मुहा०-पसलो फड़कना या फड़क उठना = मन मे उत्साह होना। उमग पैदा होना। जोश पाना। पसलियाँ ढीली पसाव-मज्ञा पुं० [हिं० पसाना+श्राव (प्रत्य॰)] वह जो पसाने पर निकले । पसाने पर निकलनेवाला पदार्थ । माड । पीच । करना=बहुत मारना पीटना। हड्डी पसली तोदना = दे० 'पसलियाँ ढीली करना'। पसावर-सञ्चा पुं० [सं० प्रसाद ] दे॰ 'पसाउ' । जैसे, लाखपसाव, यौ०-पसली का रोग = बच्चों का एक प्रकार का रोग जिसमें कोटिपसाव । उ०-हिंड्यो सु बीर उत्तर दिसा इह पसाव चहान करि । पृ० रा०, २४१४३६ । उनका सांस बहुत तेज चलता है। पसावन-सा पुं० [सं० प्रनावण ] १ किसी उबाली हुई वस्तु मे पस व पेश-सज्ञा पुं० [फा० पस श्री पेश ] दे० 'पसोपेश' । का गिराया हुमा पानी । २ मांड । पीच । पसवा-नज्ञा पुं॰ [देश॰] हलका गुलावी रग । पसिंजर-सञ्ज्ञा पुं० [अ० पैसेंजर ] १ यात्री; विशेषत रेल या पसही-सज्ञा पु० [दश०] तिन्नी का चावल । जहाज का यात्री । २ मुसाफिरो के सवार होने की वह रेल- पसा-सज्ञा पुं० [हिं० पसर ] अजली । गाडी जो प्रत्येक स्टेशन पर ठहरती चलती है और जिसकी पसाई-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] पसताल नाम को घास जो तालों मे होती चाल डाकगाडी की चाल से कुछ धीमी होती है । है । दे० 'पसताल'। पसित-वि० [सं० पाश (= धंधन)] बंधा या वाँधा हुपा । पसाई-सचा पुं० [स० प्रसाद ] दे० 'पसाउ'। उ०—त डिनोई पसीजना-क्रि० अ० [सं० प्र+/स्विद्, प्रस्विधति, प्रा० पसिञ्जह] सभु, जो डीये दीदार के, उजे लहदी अमु पसाई दो पारण १ किसी धन पदार्थ मे मिले हुए द्रव प्रश का गरमी पाकर के।-दादू०, पृ० ६५। या और किसी कारण से रस रसकर बाहर निकालना । पसाउ, पसाऊg+-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रसाद, प्रा० पसाव ] प्रसाद । रसना । जैसे, पत्थर मे से पानी पसीजना । २ चित्त में दया प्रसन्नता । कृपा । अनुग्रह । उ०—(क) चारित कुंअर विप्राहि उत्पन्न होना । दयाद्रं होना । जैसे,—पाप लाख वातें बना- पुर गवने दशरथ राउ। भए मजु मगल सगुन गुरु सुर समु इए, पर वे कभी न पसीजेंगे। उ०-दुखित धरनि लखि पसाउ। —तुलसी (शब्द॰) । (ख) सासति करि पुनि करहिं वरसि जल घनहु पसीजे पाय । द्रवत न क्यो धनश्याम तुम पसाळ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ। --मानस, १८६ । नाम दयानिधि पाय ।-(शब्द०)। पसीना-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना ] शरीर में मिला पसाना-क्रि० स० [सं० प्रसावण, हिं० पसावना ] १ पकाया हुमा जल जो अधिक परिश्रम करने अथवा गरमी लगने पर हुमा चावल गल जाने पर उसका बचा हुआ पानी निकालना सारे शरीर से निकलने लगता है। प्रस्वेद । स्वेद । श्रमवारि ।