पसंतो २६०२ पसली बानी का भेद बताई, सास्तर सघ लखाई। परा पसंता पसताल-तला पुं० [ देश ] एक प्रकार की घास जो पानी के घास- मधिमा सोई, वैखरी वेर बताई। -घट०, पृ० २३ । पास अधिकता से होती है और जिसे पशु वढ़े चाव से खाते पसंती-सज्ञा स्त्री० [सं० पश्यन्ती ] दे० 'पश्यती'। उ०-वानिहु हैं । कही कही गरीव लोग इसके दानों या बीजो या व्यवहार चारि भांति की करी। परा पसती मध्य वैखरी।- अनाज की भांति भी करते हैं। विश्राम (शब्द०)। पसनी-सग स्त्री० [सं० प्राशन ] पन्नप्राशन नामक सम्बार जिसमें पसंद-वि० [फा०] १ रुचि के अनुकूल । मनोनीत । २ जो बच्चो को प्रथम बार अन्न खिलाया जाता है। उ०-में अच्छा लगे। जैसे,—अगर वह चीज पापको पसद हो तो पसनी पुनि छठएँ मासा। बालक वढ़या भानु सम भासा। आप ही ले लीजिए। -रघुराज (शब्द)। क्रि० प्र०-याना ।करना ।—होना । पसम-सज्ञा पुं० [फा० पशम् ] दे० 'पश्म' । विशेष--इस शब्द के साथ जो यौगिक क्रियाएं जुडती हैं वे पसमीना-पुं० [ फ़ा० पशमीना ] दे० 'पश्मीना'। मकर्मक होती हैं । जैसे,—(क) वह किताव मुझे पसद प्रा गई । (ख) हमे यह कपडा पसद है। पसर'-सा पुं० [सं० प्रसर ] गहरी फी हुई हयेली । एक हथेली को पसंद-सञ्ज्ञा स्त्री॰ अच्छा लगने की वृत्ति । अभिरुचि । जैसे,—आपकी सुकोडने से बना हुअा गड्ढा। करतलपुट । माघी मजली। पसद भी विलकुल निराली है। २ स्वीकृति । मजूरी जैसे,—इस भिसभगे को पसर भर घाटा दे दो। (को०)। ३ प्राथमिकता । प्रधानता । तरजीह (को०)। । पसर-सगा पुं० [सं० प्रसर ] विस्तार । प्रसार । फैलाव । पसंद-प्रत्य० १ पसद करनेवाला । जैसे, हकपसद । २ पसद पसर-सरा पुं० [ देश०] १ रात के समय पशुमों को घराने भानेवाला । जैसे, दिलपसद, मनपसंद [को०] । का काम। पसंदा-सञ्ज्ञा पु० [ फा० पसदह ] १ मास के एक प्रकार के कुचले क्रि०प्र०-घराना। हुए टुकडे । पारचे का गोश्त । २ एक प्रकार का कवाव जो २ आक्रमण । घाया। चढ़ाई। उक्त प्रकार के मास से बनता है। पसरकटाली-सक्षा सौ[ सं० प्रसरक्टाली] भटकटैया । कटाई । पसदोदगी-शा श्री० [फा० ] रुचि । रुझान । अनुकूलता । पसरन--सज्ञा स्त्री० [सं० प्रसारिणी ] १ गघप्रसारिणी । पसारनी। उ०—उनके लुकने छिपने, पसंदीदगी और नापस दीदगी में +२ फैलाव । विस्तार । भी फर्फ है।-मैला०, पृ० १६५ । पसदीदा-वि० [फा० पसंदीदह ] पसद किया हुआ। रुचिकर । पसरना-कि० म० [सं० प्रसरण ] १ भागे को मोर वढना। मनोवाचित [को॰] । फैलना । २ विस्तृत होना । वढ़ना । ३ पैर फैलाकर सोना । पसंसना-क्रि० स० [सं० प्रशंसन ] प्रशसा करना । गुण गाना । हाथ पर फैलाकर लेटना । ४ छितरा जाना । विखर जाना। उ०-ते मोने भलो निरुढि गए, जइसनो तइसमो कन्व । संयो० कि०--जाना। खेल खेल छल दूसिहइ सुअण पससइ सव्व । -कीति०, पृ०४। पसरट्टा-सशा पुं० [हिं०] दे० 'पसरहट्टा'। पसँगा'-सा पुं० [फा० पासंग ] दे० 'पसगा'। पसरहट्टा-सा पुं० [हिं० पसारी (= पंसारी)+ हटा(= हाट) वह पसँगा-वि० वहृत कम । स्वल्पतम। बहुत थोड़ा। हाट या बाजार जिसमे पसारियो आदि की दुकान हों। वह पसँघा-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० पासग, हि० पसगा, पसँगा] दे० 'पसगा' । स्थान जहाँ वन पौषधियाँ पौर मसाले मादि मिलते हैं। पस-भव्य [फा०] १ इसलिये। अत । इस कारण । २. पीछे । पसराना-क्रि० स० [स० प्रसारण ] पसारने का काम दूसरे से फिर । वाद मे (को०) । ३. पंतत । पाखिरकार (को०)। कराना । दूसरे को पसारने मे प्रवृत्त करना। यौ०-पसगैबत । पसपा = पीछे हटा हुआ । हारा हुमा । परा पसरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'पसली'। जित । पसपाई = पीछे हटाना । हार । पराजय । पसोपेश । पसरौहाँ ल-वि० [हिं० पसरना+चौहाँ ( प्रत्य॰)] प्रसरण- पस–सञ्चा पुं० [सं०] मवाद । पूय । पीप [को०] । शील फैलनेवाला। जो पसरता हो। जिसका पसरने का पसई-सज्ञा सी० [देश॰] पहाडी राई जो हिमालय की तराई मौर स्वभाव हो। विशेषत नेपाल तथा फुमाऊँ मे होती है। इसकी पत्तियां पसली- सज्ञा सी० [सं० पर्शका ] मनुष्यो और पशुप्रो प्रादि के गोभी के पत्तो की तरह होती हैं और इसकी फसल जाडे मे शरीर मे छाती पर के पजर को पाडी पौर गोलाकार हड्डियों तैयार होती है। बाकी बहुत सी बातो में यह साधारण राई में से कोई हड्डी। की ही तरह होती है। विशेष-साधारणत मनुष्यो और पशुमो में गले के नीचे मौर पसफरण-वि० [हिं०] कायर । डरपाक । पेट के ऊपर हड्डियो का एक पजर होता है। मनुष्य मे इस ५ सगैयत-क्रि० वि० [फा० पस+१० गैवत ] पीठ पीछे । अनु पजर मे दोनो ओर बारह बारह हड्डियां होती हैं । ये हड्डियाँ पस्थिति मे [को०] । पीछे की ओर रीढ़ मे जुटी रहती है और उसके दोनो भोर सो-सञ्चा सं० [हिं०] दे० 'पसंगा'। से निकलकर दोनों बगलो से होती हुई आगे छाती मौर पेट
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१९३
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