पारदर्शक २६६४ पारना किराता दरदा खशा । ( मनु० १०।४४)। इसी प्रकार पारघो'-सञ्ज्ञा पुं० [सं० परिधान ( = आच्छादन ) अथवा सं० वृहत्स हिता में पश्चिम दिशा में बसनेवाली जातियों में 'पारत' पापर्द्धिक, प्रा. पारद्धिन] १ टट्टी आदि की प्रोट से पशु और उनके देश का उल्लेख है-'पञ्चनद रमठ पारत पक्षियो को पकडने या मारनेवाला। बहेलिया । व्याघ । तारक्षिति शृग नैश्य कनक शका ।' पुराने शिलालेखो में उ०-मृग पारधी की मति कहा कीनी वाद-रस प्याइ 'पार्थव' रूप मिलता है जिससे युनानी 'पाथिया' शब्द बना वान मारयो तानि ।-घनानद, पृ० ३५६ । २ शिकारी। है। युरोपीय विद्वानों ने 'पह्नव' शब्द को इसी 'पार्थिव' अहेरी । हत्यारा । बधिक । का अपभ्र श या रूपातर मानकर पह्नव और पारद को एक पारधी-सज्ञा स्त्री॰ प्रोट । पाड । ही ठहराया है। पर सस्कृत साहित्य मे ये दोनों जातियां मुहा०-पारधी पड़ना = पोट से होकर कोई व्यापार देखना भिन्न लिखी गई हैं। मनुस्मृति के समान महाभारत और या किसी की बात सुनना। वृहत्स हिता में भी 'पह्नव' 'पारद' से अलग पाया है। प्रत 'पारद' का 'पह्लव' से कोई सबध नही प्रतीत होता । पारस पारन-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पारण ] दे० 'पारण' । मे पह्नव शब्द शाशानवशी सम्राटों के समय से ही भाषा पारना'-क्रि० स० [हि. पारना (पहना) क्रि० स० रूप]१ डालना। और लिपि के अर्थ मे मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि गिराना। उ०-पारि पायन सुरन के सुर सहित प्रस्तुति इसका प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में पारसियो के लिये कीन । -भारतेंदु ग्र०, भा० ३, पृ० ७६ । २. खडा या उठा भारतीय ग्रथो में हुआ है। किसी समय मे पारस के सरदार न रहने देना । जमीन पर लबा डालना। ३ लोटाना । उ०- 'पहलवान' कहलाते थे। सभव है, इसी शब्द से 'पलव' शब्द ( क ) पारिगो न जाने कौन सेज पे कन्हैया को।- बना हो। मनुस्मृति में 'पारदो' और 'पह्नवों' आदि को (शब्द०)। ( ख ) घन्य भाग तिहि रानि फौशिला छोट आदिम क्षत्रिय कहा है जो ब्राह्मणों के प्रदर्शन से सस्कारभ्रष्ट सूप महँ पारे।-रघुराज (शब्द॰) । ४ कुश्ती या लडाई होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो गए। में गिराना । पछाडना । उ०—सोइ भुज जिन रण विक्रम पारदर्शक -वि. [सं०] १ जिसके भीतर से होकर प्रकाश की किरणों पारे । हरिचद्र ( शब्द०)। ५ किसी वस्तु को दूसरी के जा सकने के कारण उस पार की वस्तुएं दिखाई दें। वस्तु में रखने, ठहराने या मिलाने के लिये उसमें जिससे पारपार दिखाई पडे । जैसे,—शीशा पारदर्शक पदार्थ गिराना या रखना । ६ रखना । उ०-मन न परति मेरो है। २ पार को दिखानेवाला (को०)। कहो तू मापनी सयान । अहे परनि परि प्रेम की परहथ पारदर्शिका-वि० स्त्री० [सं० पारदर्शक ] आरपार दिखाई देने- पार न प्रान ।-बिहारी (शद०)। वाली। उ०-नव मुकुर नीलमणि फलक अमंल, प्रो यौ०-पिंडा पारना=पिंडदान करना । उ०-जाय बनारस पारदशि का चिर चचल ।-लहर, पृ०४८ । जारघो कया । पार्यो पिंड नहायो गया। —जायसी पारदर्शी-वि० [सं० पारदर्शिन् ] १. उस पार तक देखनेवाला । (शब्द०)। ७. किसी के मतगंत करना। किसी वस्तु या विषय के भीतर लेना । शामिल करना। उ०-जे दिन २ दूर तक देखनेवाला । परिणामदर्शी। दूरदर्शी। चतुर । बुद्धिमान । ३ जिसका खूब देखा सुना हो। जो पूरा पूरा गए तुमहि विनु देखे। ते विरचि जनि पारहि लेखे । देख चुका हो। तुलसी (शब्द०)। ८ शरीर पर धारण करना । पहनना । उ०-श्याम रंग पारि पुनि वाँसुरी सुधारि कर, पीत पठ पारदाकार-वि० [सं०] पारे के समान श्वेत और चमकदार । उ०- पारि बानी मधुर सुनावैगी।- श्रीधर ( शब्द०)। बुरी पुनि ऋषीकेशा अकित अति शोभित कठ पारदाकार।-सुदर वात घटित करना । अव्यवस्था आदि उपस्थित करना । ग्र०, भा० १, पृ०५१ । उत्पात मचाना। उ०-ौरे भांति भएऽव ये चौसर च दन पारदारिक-सज्ञा पुं० [सं०] परस्त्रीगामी । जार । चद । पति बिनु अति पारत विपति, मारत मारू चद।- पारदार्य-सज्ञा पुं० [सं० पारदाय ] पराई स्त्री के साथ गमन । विहारी (शब्द०) १० सांचे प्रादि में डालकर या किसी पर-स्त्री-गमन । व्यभिचार । वस्तु पर जमाकर कोई वस्तु तैयार करना । जैसे, इंटे या पारदृश्वा-वि० [सं० पारदृश्वन् ] १ पारदर्शी । दूरदर्शी । २. किसी खपडे पारना, काजल पारना । ११ सजाना। बनाना । विषय का पूर्ण ज्ञाता [को०] । संवारना । उ०-मांग मरी मोतिन सो पटियां नीक पारी । पारदेशिक-वि० [स०] १ विदेश का। अन्य देश का । विदेशी । नंद० ग्र०, पृ० ३८६ । २ यात्रा करनेवाला । मुसाफिर (को०] । पारनाg२--क्रि० प्र० [ स० पारय ( = योग्य) वा हिं० पार, जैसे, पारदेश्य-वि० [सं०] दूसरे देश से सबंधित । पारदेशिक (को०)। पार लगना (= हो सकना )] सकना । समर्थ होना । उ०- पारधि-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० पापचिक, प्रा. पारद्धिय, हिं. पारधी ] प्रनु सन्मुख पछु कहइ न पारह। पुनि पुनि चरन सरोज दे० 'पारधी' । उ०-पहिले पारघि जाइ वन घात करे पहुँ निहारइ ।--तुलसी (शब्द०)। फेर । सपरि कुँअर तव कटक ले, खेसै जाइ महेर ।-त्रित्रा. पारनाg+3-क्रि० सं० [सं० पालन ] दे० 'पालना'। उ०-नेमनि पू०२३॥ सग फिरे भटक्यो पल मूदि सरूप निहारत क्यौं नहिं । स्याम
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२५५
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