पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२७०

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पाल्पल २६७६ पावडो पाल्वल'-वि० [सं०] १. तलैया या गड्ढा सवधी। तलैया सवधी। पावक'-सञ्ज्ञा पुं० [म०] १. अग्नि । प्राग । तेज । ताप । २ तलैया में होनेवाला । तलैया का। विशेष-महाभारत वन पर्व में लिखा है कि २७ पावक ऋषि पाल्वल-सज्ञा पुं० क्षुद्र जलाशय का जल । तलैया का पानी। ब्रह्मा के अग से उत्पन्न हुए जिनके नाम ये हैं-अगिरा, पाल्हवना-[स० पल्लवित ] पल्लवित होना। पत्तो से युक्त दक्षिण, गार्हपत्य, पाहवनीय, निर्मथ्य, विद्युत्, शूर, संवतं, होना। हरा होना। उ०-सखी सु सज्जण प्राविया हुँता लौकिक, जाठर, विषग, क्रव्य, क्षेमवान्, वैष्णव, दस्युमान, मुभम हियाह । सूका था सू पाल्हव्या पाल्हविया फलि वलद, शात, पुष्ट, विभावसु, ज्योतिष्मान, भरत, भद्र, याह ।-ढोला०, दू० ५३३ । स्विष्टकृत, वसुमान, ऋतु, सोम और पितृमान् । क्रियाभेद से अग्नि के ये भिन्न भिन्न नाम हैं। पाव-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० पाद ] पैर । ६० 'पाँव' । पावड़ -सञ्ज्ञा पुं० [ हिं० पाँव+ दा (प्रत्य॰)] वह कण्डा या २ सदाचार । ३ अग्निमथ वृक्ष। अगेथू का पेद । ४ चित्रक विछौना जो आदर के लिये किसी के मार्ग मे बिछाया वृक्ष । चीते का पेड। भल्लातक । भिलावा । ६ विडग । जाता है। पैर रखने के लिये फैलाया हुमा कपडा । पायंदाज । वायविडग । ७ कुसुम । ८ वरुण । ६ सूर्य । १० सत। उ०—(क) देत पावंडे अरघ सुहाए। सादर जनक महपहि तपस्वी (को०)। ११ विद्युत् की ज्वाला। विजली की पग्नि लाए । —तुलसी ( शब्द०)। (ख) पौरि के दुवारे ते (को०)। १२ तीन की सरुया क्योंकि कर्मकाड मे तीन अग्नि लगाय केलिमदिर लौं पदमिनि पाहे पसारे मखमल के।- प्रधान कहे गए हैं (को०)। ( शब्द०)। यौ०-पावककण = अग्निकण । अग्निस्फुलिंग । उ०-गा, क्रि० प्र०-ढालना ,-देना।–पसारना ।-बिछाना । कोकिल, वरसा पावक कण।-युगात, पृ० ३ । पावकमणि । पावकशिख = केसर । पावडी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पार्वं + दी ( प्रत्य॰)] १ पादत्राण । खडाऊँ । २ जूता। उ०—सपनेहु में वर्राय के जो रे कहेगा पावक-वि० शुद्ध करनेवाला । पावन करनेवाला। पवित्र करनेवाला । राम । वाके पग की पावंडी मेरे तन को चाम।-कबीर पावकमणि-सज्ञा पुं० [स०] १ सूर्यकात मणि । २ आतशी शीशा । ( शब्द०)। ३ गोटा पट्टा बुननेवालो का एक औजार पावा-सञ्चा स्त्री० [सं०] सरस्वती (वेद)। जिसे वुनते समय पैरो से दवाना पडता है और जिसमे ताने पोषकात्मज-सज्ञा पु० [सं०] १ कातिकेय । २. इक्ष्वाकुवंशीय का वादला नीचे ऊपर होता है। दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र । विशेप-यह काठ का पहरा सा होता है जिसमें दो खूटियां लगी पावकि-सञ्ज्ञा पुं॰ [म०] १ पावक का पुत्र । कार्तिकेय । २ इक्ष्वाकु- रहती हैं । इन दोनो खूटियो के बीच लोहे की एक छह लगी वशीय दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन । रहती है जिसमें एक एक बालिप्त लबी, नुकीले सिरे की विशेष-मनु के पुत्र इक्ष्वाकुवशीय सुदुर्जय के दुर्योधन नाम का ५-६ लकडियां लगी रहती है। वादल' बुनने में यह प्राय एक पुत्र हुमा जिसे सुदर्शना नाम की एक कन्या थी। उसके वही काम देता है जो करघे में राछ देती है। रूप लावण्य पर मुग्ध होकर पावक या अग्निदेव रूप बदल- पावर-वि० [सं० पामर ] १ तुच्छ । खल । नीच । दुष्ट । कर दुर्योधन के यहाँ आए और उन्होने कन्या के लिये प्रार्थना २ मूर्ख । निर्बुद्धि । उ०-( क ) तुम त्रिभुवन गुरु वेद की। दुर्योधन सम्मत न हुए। पावक देवता निराश होकर पले वखाना । प्रान जीव पावर का जाना । —तुलसी (शब्द०)। गए। एक बार राजा ने यज्ञ किया। यज्ञ में अग्नि है (ख ) छूछो मसक पवन पानी ज्यो तैसोई जन्म विकारी प्रज्वलित न हुई। राजा और ऋत्विक लोगो ने अग्नि का हो । पाखंड धर्म करत पावर नाहिन चलत तुम्हारी हो। वहुत उपासना की। पावक ने प्रकट होकर फिर कन्या मांगी सूर (शब्द०)। दुर्योधन ने कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया। पाचर-सशा पु० [हिं० पावें] दे॰ 'पावडा' । उ०-कुडल गहे सीस देवता उस कन्या के साथ मूर्ति धारण कर माहिष्मती पुरी भुइ लावा । पावर होउ जहाँ देइ पाया ।—जायसी (शब्द०)। रहने लगे। पावक से जो पुत्र सुदर्शना को हुआ उसका ना पावर:-सज्ञा स्त्री० दे० 'पावडी'। सुदर्शन पडा । वह बहा धर्मात्मा और ज्ञानी था। पारी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० पाव+री (प्रत्य॰)] दे० 'पावडी' । पावकी-रज्ञा स्त्री० [सं०] १ अग्नि की स्त्री। २ पावका पाव'-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पाद (= चतुर्थाश) ] १ चौथाई। चतुर्थ सरस्वती को। भाग । जैसे, पाव घटा, पाव कोस, पाव सेर, पाव पाना । पाव कुलक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पादाकुलक ] पादाकुलक छद । चौपाई। २ एक सेर का चौथाई भाग । एक तौल जो सेर की चौथाई पावटो-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पायल ] पैर का एक प्राभुषण । पायल होती है। चार छटाक का मान । जैसे, पाव भर पाटा। ३ नूपुर । उ०-जप केदली पगु में पावट झमकि मी पैर। उ०—कियो कान्ह पै घाव पाव ठहरन नहीं पाए- ललचावै। कहे दरिया कोइ सत विवेकी वाके निकट ब्रज०म०,१०१४॥ जावै ।-स० दरिया, पृ० १३६ । पाय-सज्ञा पुं॰ [सं० पाव या सं० प्रावय०, दे० प्रा० पावय; गुज. पावडी -सच्चा सी० [हिं०] दे० 'पावडी'। 10-पायो भरथ अव पावो ] एक वाद्य । वशी। अलगोजा । अभग, मडे पावडी उतमग ।-रघु० रू०, पृ० १२२ ।