पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२९४

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का पित्तपथरो पित्तकर और पक्वाशय मध्य स्थान भी मिलता है), पित्तक्षोभ-सज्ञा पुं॰ [सं०] पित्तवृद्धि या पित्त का विगडना [को॰] । यकृत, प्लीहा, हृदय, दोनो नेत्र, और त्वचा। इनमे रहने- पित्तगदी-वि० [ स० पिचगदिन् ] पित्त के रोग से पीडित [को०) । वाले पित्तो का नाम क्रम से पाचक, रजक, साधक, मालोचक पित्तगुल्म-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] पित्त की अधिकता से पेट का फूल और भ्राजक हैं। पाचक पित्त का कार्य खाए हुए द्रव्यो को जाना (को०] । अपनी स्वाभाविक उष्णता से पचाना और रस, मूत्र और पित्तन-वि० [सं०] पित्तनाशक (द्रव्य)। मल को पृथक् पृथक् करना है। रजक पित्त आमाशय से विशेष-वैद्यक ग्रथो के अनुसार मधुर, तिक्त और कषाय आए हुए प्राहार रस को रजित कर रक्त में परिणत करता रसवाले सपूर्ण द्रव्य पित्तनाशक हैं। है। साधक पित्त कफ और तमोगुण को दूर करता और पित्तघ्न-सञ्चा पुं० धी। घृत । मेघा तथा बुद्धि उत्पन्न करता है। पालोचक पित्त रूप के प्रतिबिंब को ग्रहण करता है । यह पुतली के बीचोबीच रहता पित्तघ्नी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] गुड च । गिलोय । है और मात्रा मे तिल के बराबर है। भ्राजक पित्त शरीर पित्तज-वि [सं०] पित्त के कारण उत्पन्न । पित्त विकार से पैदा की काति, चिकनाई आदि का उत्पादक तथा रक्षक है । होनेवाला [को०] । प्रामाशय या अग्न्याशय मे स्थित पाचक पित्त अपनी पित्तज स्वरभेद-सञ्ज्ञा पुं० [ पिराज+ स्वरभेद ] पित्त के विकार के स्वाभाविक शक्ति से अन्य चार पित्तो की क्रिया में भी द्वारा उत्पन्न गले की खराबी जिसमें रोगी की प्राख और सहायक होता है। पाचक पित्त को ही पाचकाग्नि या विष्ठा दोनो पीली हो जाती हैं ( माधव०, पृ०६९)। जठराग्नि भी कहा है। गरम, तीखी, खट्टी, आदि चीजें पित्तज्वर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो पित्त के दोष या प्रकोप खाने मे पित्त बढता है और कुपित होता है, शीतल, मधुर, से उत्पन्न हो । पित्तवृद्धि से उत्पन्न ज्वर । पैत्तिक ज्वर । कसैली, कडवी, स्निग्ध वस्तुत्रो से वह कम और शात होता विशेष-वैद्यक ग्रथो के अनुसार पाहार विहार के दोष से हैं । अरवी में पित्त को सफरा और फारसी मे तलखा कहते बढा हुआ पित्त प्रामाशय मे जाकर स्थित हो जाता है और हैं। उपादान उसका अग्नि और स्वभाव गरम खुश्क कोष्ठस्थ अग्नि को वहां से निकालकर बाहर की ओर माना है फेंकता है। अतीसार, निद्रा की अल्पता, कठ, प्रोठ, मुंह जिस प्रकार शारीरिक उष्णता का कारण पित्त माना गया है और नाक का पका सा जान पडना, पसीना निकलना, उसी प्रकार मनोवृत्तियो के तीव्र होने अर्थात् क्रोध आदि प्रलाप, मुह का स्वाद कडवा हो जाना, मूर्छा, दाह, मत्तता, मनोविकारो के पैदा करने में भी वह कारण माना गया प्यास, भ्रम, मल, मूत्र और अखिों में हल्दी की सी रगत है। पित्त खोलना, पित्त उबलना, आदि मुहावरों की होना आदि इस ज्वर के लक्षण हैं । जिनका अर्थ क्रुद्ध हो जाना है-उत्पत्ति मे इसी कल्पना पित्तदाह-सञ्ज्ञा पुं० [स० ] दे॰ 'पित्तज्वर'। का प्राधार जान पडता है । अंगरेजी में भी पित्तार्थक गइल पित्तद्रावी'-वि० [स० पिचद्राविन् ] पित्त को पिघलानेवाला ( Bile ) शब्द का एक अर्थ क्रोषशीलता है। ( द्रव्य ) | जिससे पित्त पिघले । पर्या-मायु । पलज्वल । तेजस् । तिक्त। धातु । उप्मा । पित्तद्राधी-सशा पुं० मीठा नीबू । अग्नि । अनल । रजन । पित्तघरा-सज्ञा स्त्री० [स०] सुश्रुत के अनुसार प्रामाशय मुहा०—पित्त उयलना या खौलना = दे० 'पित्ता उवलना या पक्वाशय के बीच में स्थित एक क्ला या झिल्ली। ब्रहणी। खौलना'। पित्त गरम होना= शीघ्र क्रुद्ध होने का स्वभाव पित्तनादी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक प्रकार का नाडीव्रण जो होना । क्रोधशील होना। मिजाज में गरमी होना। क्रोध के कुपित होने से होता है। की अधिकता होना । जैसे,-अभी तुम जवान हो इसी से पित्तनिबर्हण-वि० [ स०] पित्त को समाप्त करनेवाला । पित्त तुम्हारा पित्त इतना गरम है। पित्त हालना = के करना । नाशक (को॰] । वमन करना । उलटी करना। पित्तपथरी-सञ्चा स्त्री॰ [सं० पित्त + हिं० पथरी] एक रोग जि. पित्तकर-वि० [ स०] पित्त को बढाने या उत्पन्न करनेवाला। पित्ताशय अथवा पित्तवाहक नालियों में पित्त की कडिय द्रव्य । जैसे, बांस का नया कल्ला आदि । बन जाती हैं। पित्तकास-संज्ञा पुं० [स०] पित्त के दोष से उत्पन्न खाँसी या विशेष-ये ककडियाँ पित्त के अधिक गाढे हो जाने, उस कास रोग। कोलस्ट्रामई नामक द्रव्य की अधिकता अथवा उसके उस विशेष- इस रोग के लक्षण छाती में दाह, ज्वर, मुंह सूखना, में कोई विशेष परिवर्तन होने से उत्पन्न होती हैं । यद्य' मुंह का स्वाद तीता होना, खाँसी के साथ पीला और ये पित्ताशय में बनती हैं, तथापि यकृत और पित्तप्रणालियों कहवा कफ निकलना, क्रमश शरीर का पांडुवर्ण होते भी पाई जाती हैं। इस रोग में आहार के प्रत में पेट जाना आदि हैं। पीडा होती है और पित्ताशय मे जलन मालूम होती है पित्तकोश, पित्तकोष-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] पित्त की थैली [को० । स्पर्श करने से उसमें छोटी छोटी पथरियां सी जान ६