पितृवन २००१ विस्त मे एक। पितृपन -[ मं०] १ श्मशान । २. मृत्यु । मौत । मरण पितृहा-शा पु० [ स० पितृहन् ] पिता की हत्या करनेवाला । पितृहता । पितृघाती। पिश्यनेचर-रापुं० [सं०] १ श्मशान मे बसनेवाले, शिव । पितृहू-नशा पु० [सं०] १ पितरो को देने योग्य वस्तु । २ दाहिना २ मृत प्रेत, दैत्य प्रादि (को॰) । कान। पितृवर्ती-31 पु० [सं० पितृवर्तिन् ] पुराणानुसार एक राजा पितृहूय-सज्ञा पु० [ म०] पितरो का आह्वान करना । पितरो को या नाम। बुलाना। पिटवसति-सरा पुं० [सं०] श्मशान । पितौजियाज-सज्ञा स्त्री० [स० पुत्रजीवक ] पुत्रजीवक नामक वृक्ष । वि० दे० 'पितिजिया'। पितृवित्त-परा पुं० [म० ] बाप दादो की सपत्ति। पैतृक धन । पित्त-सज्ञा पुं० [ स०] एक तरल पदार्थ जो शरीर के प्रतर्गत यकृत मौन सी जायदाद। मे बनता है। इसका रंग नीलापन लिए पीला और स्वाद पितृविसर्जन-ता पुं० [स० पितृ+विसर्जन ] पितरो को विदाई। कहवा होता है । प्रायुर्वेद शास्त्र के विदोपो (कफ, वात, पित्त) विशेप-पितृविनर्जन का प्रत्य प्राश्विन मास की अमावास्या का होता है। विशेप-इसकी बनावट मे कई प्रकार के लवण और दो प्रकार पितृवेश्म- पुं० [सं० पितृवेश्मन् ] दे० 'पितृगृह' को०] । के रग पाए गए हैं। यह यकृत के कोपो से रसकर दो पितृव्य- पुं० [सं०] वाप का भाई । चचा। चाचा । काका । विशेष नालियो द्वारा पक्वाशय मे आकर माहार रस से पितृप्रत-श पुं० [ म०] १ पितरों की पूजा करनेवाला । २ दे० मिलता है और वसा या चिकनाई के पाचन मे सहायक होता 'पितृकम' [] है। यदि पक्वाशय मे भोजन नहीं रहता तो यह लौटकर पितृश्राद्ध-श पुं० [सं०] पिता या पितरों का श्राद्ध [को०] । फिर यकृत को पला जाता है और पित्ताशय या पित्ता नामक उससे सलग्न एक विशेष अवयव मे एकत्र होता पितृपद्म पुं० [ म०] वाप का घर । पितृगृह । मैका । पीहर रहता है। वसा या स्नेहतत्व को पचाने के लिये पित्त का (लियो के लिये ) । उससे यथेष्ट मात्रा में मिलना अतीव मावश्यक है। यदि पितृपूदन-राशा पुं० [सं०] फुश । इसकी कमी हो तो वह विना पचे ही विष्ठा द्वारा शरीर पितृप्पसा-- सी० [ मै० पितृप्वस ] वाप की वहन । वूपा । से बाहर हो जाता है। इसके अतिरिक्त इसके और भी पितृप्यनीय - पुं० [सं०] वूमा का बेटा । फुफेरा भाई। कई कार्य हैं, जैसे प्रामापाय से पक्वाशय मे श्राए हुए पाहार पितृसनिभ-वि० [म० पितृसन्निम ] पिता के समान आदरणीय । रस की खटाई दूर करना, प्रांतो मे भोजन को सहने न देना, पिता के तुल्य (को०] । शरीर का तापमान स्थिर रखना, अादि। पित्त की कमी से पितृसम-सा पु० [सं० पितृसमन् ] श्मशान [फो० । पाचन किया विगड जाती है और मंदाग्नि, कब्ज, अतिसार आदि रोग होते हैं । इसी प्रकार इसकी वृद्धि से ज्वर, दाह, पितृसत्ताक-वि० [सं० पितृसत्ता+फ ( प्रत्य० ) ] जहां पिता वमन, प्यास मूर्खा और अनेक चर्मरोग होते हैं। जिसका पी सत्ता प्रपान हो। जहाँ पिता के अधिकार को प्रधानता पित्त बढ गया हो उसका रंग बिलकुल पीला हो जाता है । हो । उ०-यह बिलकुल सभव है कि अफगानिस्तान में रहते पित्त के बढ़े या विगठे हुए होने की दशा मे वह अकसर यमन वक्त पार्यों का समाज पितृसत्ताक रहा हो।-भा० इ० रू०, द्वारा पेट से बाहर भी निकलता है। वैद्यक के अनुसार पित्त शरीर के स्वास्थ्य और रोग के कारण- पितृसत्तात्मक-सी० [1० पितृ + सत्तारमा ] ३० पितृसत्ताक । भूत तीन प्रधान तत्वो अथवा दोपो मे से एक है। जिस उ०-मातृसत्ता यी जगह पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ले ली। प्रकार रस का मल कफ है उसी प्रकार रक्त का मल पित्त प्रा० भा०प० (४०), पु० 'स'। है जो यकृत या जिगर में उससे अलग किया जाता है। पिसू-सभा सी० [मं०] १ दादी । पितामही । २ सध्या । भावप्रकाश के अनुनार यह उपण, द्रव, पामरहित दशा पिटसूफ-० [२०] एक वैदिक ममममूह । में पीला और ग्रामसहित दशा मे नीला, सारक, लघु, पितृस्थान-मया ० [सं०] १. वह जो पिता के स्थान पर हो। सत्वगुणयुक्त, स्निग्ध, रम मे कटु परतु विपाक के पभिभावक । २ जो पितृतुल्य हो। जो पितृात् हो । समय थम्न हैं। मग्नि स्वभाववाला तो स्वय अग्नि है। पितृस्यानोय- पुं० [२०] १२० पितृस्यान' । शरीर में जो कुछ उपपता तत्व है उसका प्राधार यही पितृस्वसा-नाने [२०] यूपा [२०] 1 है । इनी से अग्नि, उपण, तेजम् प्रादि पित्त ने पर्याय है । पियस्य सोय-परा पु. [सं०] फुफेरा भाई (को०] । इममे एक प्रकार की दुगंधि भी माती है। शरीर में इसके पांच स्थान हैं जिनमें यह अलग अलग पाँच पिता- [४० पितृहन] २० "पितृहा। नामो से स्थिर रहार पांव प्रकार के कार्य करता है। पितृहत्या-गरा • [0] २० पितृपात' । ये पांच स्थान है-मामाशय (कहीं कहीं भामाशय 1 पृ०४४।
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