- पंचोपचार २७४० पंजशाखा कर दूर फेंकने का एक ढग। इसमें गुल्ली को बाएँ हाथ से पंछी-सञ्चा पुं० [सं० पक्षी] चिडिया। पक्षी। उ०-भई यह सांझ उछालकर दाहिने हाथ से मारते हैं। सवन सुखदाई। मानिक गोलक सम दिनमणि मनु संपुट पचोपचार-सज्ञा पुं० [सं० पञ्चोपचार पूजा मे प्रयुक्त होनेवाले या दियो छिपाई। अलसानी ग मूदि मूदि के कमल लता मन भाई। पछी निज निज चले वसेरन गावत काम वधाई।- साधन रूप पांच द्रव्य। गध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य-ये पांच देवपूजन में प्रयुक्त होनेवाले पदार्थ [को०] । हरिश्चद्र (शब्द०)। १ज-वि० [फा०] पाँच [को०] । पचोपविप–मचा पु० [ म० पञ्चोपविप ] हड, मदार, कनेर, जल- पीपल और कुचला-ये पाँच कृत्रिम और सामान्य विष [को०] यौ०-पजायत । पंजगज । पंजगूना = पंचगुना। पजगोशा = पचकोण युक्त । पंचकोना । पजतन । पजनोश । पजहजारी। पंचोपण-सजा पुं० [स० पञ्चोण्ण] पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, मिर्च और चित्रक नामक पांच प्रोपधियाँ। पंजायत-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा०] कुरान की पाँच छोटी छोटी आयतें जो प्राय गमी या फातिहे के समय पढी जाती हैं [को॰] । पचोप्मा-संज्ञा पुं० [म० पञ्चोप्मन् ] शरीर के भीतर, भोजन पचानेवाली पांच प्रकार की अग्नि । पंजगज-सज्ञा पुं० [फा] पांचेंद्रिय समूह । पाँच इ द्रियाँ [को॰] । पचौदन-सज्ञा पुं० [स० पञ्चौदन] एक यज्ञ का नाम । पंजतन-सञ्ज्ञा पुं० [फा०] पांच व्यक्ति । पजनोश-सञ्चा पुं० [फा०] १. महूर, लोह, ताँवा, अभ्रक और पचौवान-सञ्ज्ञा पु० [म० पञ्चवाण] पचवाण । कामदेव । उ०- पारद का रासायनिक मिथरण । २ लोहे का मैल । मङ्कर [को०] पचागनि कहा साधे पचौवान हमें दाथै हरे वेदरद होय अग्नि माम धर दै।-व्रज० य०, पृ० १३२ । पंजर-सञ्ज्ञा पु० [सं० पञ्जर] १. शरीर का वह कडा भाग जो अणुजीवो तथा विना रीढ के और क्षुद्र जीवो में कोश या पंचौलो'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० पञ्च+श्रावलि ] एक पौधा जो पश्चिम प्रावरण प्रादि के रूप मे ऊपर होता है और रीढवाले जीवों भारत, मध्यप्रदेश, ववई और वरार मे मिलता है। पचपात । में कडी हडियो के ढांचे के रूप मे भीतर होता है। हड्डियो पचपानडी। का ठट्टर या ढाँचा जो शरीर के कोमल भागो को अपने ऊपर विशेप-इसकी पत्तियो और डठलों से एक प्रकार का सुगधित ठहराए रहता है अथवा बद या रक्षित रखता है। ठठरी । तेल निकलता है जिसका व्यवहार यूरोप के देशो में होता अस्थिसमुच्चय । ककाल । २. पसलियों से बना हुआ परदा । है। इसकी खेती पान के भीटो में की जाती है। पौधे ऊपरी घड (छाती) का हडियो का घेरा। पार्श्व, वक्षस्थल दो दो फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं। एक वार के आदि की अस्थिपक्ति। उ०-जान जान कीने जो ते नेहिन लगाए हुए पौधो से दो बार छह छह महीने पर फसल काटी ऊपर वार। भरे जो नैन कटाच्छ के खजर पजरफार ।- जाती है। दूसरी फसल कट जाने पर पौधे खोदकर फेंक रसनिधि (शब्द॰) । ३ शरीर । देह । ४ पिंजडा। उ०- दिए जाते हैं। ठठल सूख जाने पर बडे बडे गट्ठों में बाँध- पजर भग्न हुपा, पर पक्षी अब भी अटक रहा है आप।- कर विक्री के लिये भेज दिए जाते हैं। इन उठलो से साकेन, पृ० ३६६ । भवके द्वारा तेल निकाला जाता है। ६६ सेर लकही से यौ०-पजरशुक = पालतू तोता। पालतू सुग्गा। पिंजडे मे लगभग बारह से पद्रह सेर तक तेल निकलता है। यूरोप पालित सुरगा। में इस तेल का व्यवहार सुगघ द्रव्य की भांति होता है। इसे 'पचपात' और 'पचपानी' भी कहते हैं । ५ गाय का एक सस्कार । ६ कलियुग। ७ कोल कद । पजरक-सज्ञा पुं॰ [स० पञ्जरक] १ खांचा । झावा । बेंत या लचीले पचौली-सचा पुं० [सं० पञ्चकुल, पञ्चकुली] वशपरपरा से चली डठलों आदि का बुना हुआ बडा टोकरा। २ पिंजरा। याती हुई एक उपाधि । पिंजर (को०)। विशेप-प्राचीन समय में किसी नगर या गांव मे व्यवस्था पंजरना-क्रि० अ० [म० प्रज्ज्वल ] दे० 'पजरना' । रखने और छोटे मोटे झगडो को निपटाने के लिये पाँच पजराखेट-सञ्ज्ञा पु० [ म० पञराखेट ] एक प्रकार का झावा या प्रतिष्ठित कुल के लोग चुन लिए जाते थे जो 'पच' कहलाते थे। जाल जो मछली पकड़ने में काम आता है [को०] । पछा-सज्ञा पु० हिं० पानी+छाल ] १ पानी की तरह का एक पजरी-सज्ञा स्त्री॰ [स० पञ्जर ( = ठठरी) ] अर्थो । टिकठी। स्राव जो प्राणियों के शरीर से या पेड पौधो के अगो से चोट पजरोजा-वि० [ फा० पंजरोजह ] पांच दिनो का। चद दिनो लगने पर या यो ही निकलता है। २ छाले, फफोले, चेचक का । अस्थायी [को०] । आदि के भीतर भरा हुआ पानी । पजवो-वि० [स० पञ्चमी ] पाँच की संख्यावाली । पांचवीं । पछाला-वरा पुं० [हिं० पानी+छाला] १. फफोला। २. फफोले का उ०-पजवी नाडि इद्री की करी। नानक किसे विरले पानी । उ०-केतकी ने कहा कांटा अहा तो अडा और छाला सोझी परी। -प्राण०, पृ०१६ । पडा तो पडा पर निगोडी तू क्यो पछाला हुई।-इनशा० पंजशाखा-सञ्ज्ञा पुं० [अ० पजशाखा ] एक तरह की मशाल । (शब्द०)। एक तरह की वैठकी ( दीपाघार ) जिसमें पांच शाखायो पर पछिराजयु-सडा पु० [म० पक्षिराज] दे० 'पक्षिराज'। दीप या मोमबत्ती जलाई जाती है। दे० 'पनसाखा' [को०] ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३१
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