पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३१९

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पोरक पीपलमल भाग भी वैसा ही दानेदार होता है। इसका रंग मटमैला का दूध जिसे व्याए सात दिन से अधिक न हुआ हो । नव- और स्याद तीखा होता है। छोटी कलियो को छोटी पीपल प्रसूता गाय का दूध । और बडी तथा किंचित् मोटी कलियो को वही पीपल विशेष-वैद्यक के अनुसार ऐसा दूध रूखा, दाहकारक, रक्त को कहते हैं । ओषधि के लिये अधिकतर छोटी ही काम मे लाई कुपित करनेवाला और पित्तकारक होता है । साधारणतः जाती है । वैद्यक के अनुसार पीपल (फली) किंचित उष्ण, ऐसा दूध लोग नहीं पीते क्योकि वह स्वास्थ्य के लिये हानि- चरपरी, स्निग्ध, पाक में स्वादिष्ट, वीर्यवर्धक, दीपन, रसायन कारक माना जाता है। हलकी, रेचक तथा कफ, वात, श्वास, कास, उदररोग, ज्वर, यौ०-पीयूपद्युति, पीयूपधाम = पीयूपभानु । पीयूपमुक्, पीयूप- कुष्ठ, प्रमेह, गुल्म, क्षयरोग, बवासीर, प्लीहा, शूल और मयूख, पीयूपमहा, पीयूपरुचि = चद्रमा । प्रामवात को दूर करनेवाली मानी जाती है। पोयूषभानु-सशा पुं० [ म० ] चद्रमा । उ०—तीछन जुन्हाई भई पर्या-पिप्पली। मागधी । कृष्णा । 'चपला । चचला । उप ग्रीषम को घामु, भयो भीसम पीयूपभानु, भानु दुपहर को। कुल्ला । कोल्या । वैदेही । तिक्ततडुला। उष्णा । शौंडी। –मतिराम (शब्द०)। कोला। कटी। एरढा । मगधा। कृकला। कटुबीजा । कारगी। दतकफा । मगधोद्भवा । पीयूपभुक -सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पीयूपभुज्] १ चद्रमा । २ देवता (को०] । पीयूषमहा - सचा पुं० [सं० पीयूपमहस ] अमृतमय किरणोवाला। पीपलमूल-सज्ञा पुं० [ हिं० ] दे० 'पीपलामूल' उ०—विसूचित अमृतदीधिति । चद्रमा [को०] । तन नहीं सके समारि । पीपलमूल ज्वाइनि तारि।-प्राण, पोयूषरुचि-सज्ञा पुं० [सं०] चद्रमा । पृ० १५० । पीपलामूल-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पिप्पलीमून ] एक प्रसिद्ध प्रोषधि जो पीयषवर्ण-वि० [ सं०] दूध की तरह सफेद (को॰] । पीपल प्रोषधि की जड है। पीयूषवर्ण - सज्ञा पुं० श्वेत वर्ण का घोडा । सफेद घोडा [को० । विशेष-प्रायुर्वेद के अनुसार पीपलामून चरपरा, तीखा, गरम, पीयूषवर्ष-सज्ञा पुं॰ [ स०] १. चद्रमा । २ कपूर । ३ एक छद रुखा, दस्तावर, पित्त को कुपित करनेवाला, पाचक, रेचक का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १०-६ विधाम से १६ तथा कफ, वात, उदररोग, पानाह, प्लीहा, गुल्म, कृमि, श्वास, मात्राएं और प्रत मे गुरु लघु होता है । इसको 'मानदवर्षक' क्षयरोग, खाँसी, प्राम और शूल को दूर करनेवाला माना भी कहते हैं। ४ जयदेव कवि की उपाधि । ५. अमृत की जाता है । पीपरामूल नाम से भी यह प्रसिद्ध है । वर्षा (को०)। पोपा-सज्ञा पुं० [2 ] बडे ढोल के प्राकार का या चौकोर काठ या पोर–सद्या स्त्री० [सं० पीडा ] १ पीडा । दृ ख । दर्द । तकलीफ । लोहे का पात्र जिसमें मद्य, तेल आदि तरल पदार्थ रखे और उ.-जाके पैर न फटी बिवाई। सो का जाने पीर पराई। चालान किए जाते हैं। —तुलसी (शब्द॰) । २. दूसरे की पीडा या कष्ट देखकर विशेष-बरसात के अतिरिक्त अन्य दिनो में बड़े बड़े पीपों को उत्पन्न पीडा । दूसरे के दुख से दुःखानुभव । सहानुभूति । पक्ति में विछाकर नदियो पर पुल भी बनाए जाते हैं। हमदर्दी । दया । करुणा। पीपिया -सशा पुं० [अनु० ] आम की गुठली या अन्य किसी मुहा०-पीर न थाना = दूसरे के दुख से दुखी न होना । पराए साधन से बनाया हुमा बच्चों का बाजा। कष्ट पर न पसीजना । सहानुभूति या हमदर्दी न पैदा होना । ३ बच्चा जनने के समय की पीडा । प्रसवपीडा। उ०- पीब-सच्चा पुं० [ सं० पूय, हिं० पीप ] दे० 'पीप' । कमर उठी पीर मैं तो लाला जनगी।-गीत (शब्द॰) । पीय-सज्ञा पुं० [सं० प्रिय ] दे० 'पिय' । उ०-प्यारी झूलत प्यार सौं पीय अलावत जात । मनौ सितारे भूमि नभ फिरि क्रि० प्र०-पाना ।-उठना ।—होना । पावत फिरि जात । -स० सप्तक, पृ० ३६३ । विशेष-यद्यपि ब्रजभाषा, खडी वोली और उर्दू तीनो भाषाओं पीयरी-वि० [अप० पीचर ] दे० 'पोला'। के कवियो ने बहुतायत से इस शब्द का प्रयोग किया है और स्त्रियों को बोलचाल में अब भी इसका बहुत व्यवहार पीयाg-सहा पु० [सं० प्रिय ] स्वामी । पति । पिय । होता है तथापि गद्य में इसका व्यवहार प्राय नही होता । पीयु'-सचा पुं॰ [ स०] १ काल । समय । २ सूर्य । ३ अग्नि (को०) । ४ स्वर्ण। सोना (को०) । ५ पीर-वि० [फा०] [ सशा पीरी ] १ वृद्ध । बूढ़ा । बडा । थूक । ६ कौमा। वुजुर्ग । २, महात्मा । सिद्ध । ३ पूर्त । चालाक । उस्ताद । काक । ७ उल्लू । पेचक । (वोलचाल)। पीयुर-वि० १ हिंसा करनेवाला । हिंसक । २ प्रतिकूल । विरुद्ध । पीर-सञ्ज्ञा पुं० १ धर्मगुरु । परलोक का मार्गदर्शक । २ मुसलमानों पीयूक्षा-सज्ञा स्त्री॰ [ स०] एक प्रकार का पाकर । के धर्मगुरु । पीयूख- सपा पुं० [सं० पीयूप ] दे॰ 'पीयूष' । पीर-सझा पुं० [फा० पीर (= गुरु ) ] सोमवार का दिन । पीयूष- सज्ञा पुं॰ [सं०] १ अमृत । सुधा । २ दूध । ३ नई व्याई चद्रवार। दुई गाय या सम से सातवें दिन तक का दूध । उस गाय पीरक - वि० [सं० पीर क, हिं० पीर + क (प्रत्य॰)] पीरा देने-