पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३२०

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। पीरजादा ३०२६ पीजपाव वाला । सतानेवाला। उ०-प्राननि प्रान हो, प्यारे मुजान तुम्हारे वावा की पीरी है । ५. प्रमानुपिक पाक्ति या उसके हो, बोलो इते परपीरक हो क्यो।-घनानद, पृ० १२१ । कार्य । चमत्कार । करामात (क्व० )। पीरजादा-सञ्ज्ञा पु० [फा० पीरजादह, ] [स्त्री० पीरजादी ] किसी पोरो-वि० सी० [हिं० ] दे० 'पीला'। उ०-यह पीरी पीरी भई, पीर या धर्मगुरु की सतान । उ०-यो सुन कर जमा हो सब पीरी मोहि मिलाय ।-ग्रज० ग्रं॰, पृ०.५६ । पीरजादे, सवारो जमा कर कर होर प्यादे ।-दक्खिनी०, पोरी-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पीला ] पीलिया या कामला रोग । पृ०१६६। पीरू'-पञ्च पुं० [फा० पीलमुर्ग ] एक प्रकार का मुर्ग । पीरजाल-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० पीरजाल ] वृद्धा स्त्री। बुढ़िया (को०] । विशेष-इस शब्द का पुराना रूप 'पीलू' है । पर अब इस पीरनाबालिग-वि० [फा० पीर+० नाबालिग ] ऐसा वृद्ध जो रूप में ही अधिक प्रचलित है। बच्चो के से काम और बातें करे । सठियाया हुआ बुड्डा । पोरो-वि० [हिं०] दे० 'पीला' । उ०-(क) राधे राधे टेर बुद्धिभ्रष्ट बूढ़ा। टेर, पीरो पट फेर फेर, हेर हेर हरि डोले गेर गेर वन में। पीरमर्द-सञ्ज्ञा पुं० [फा०] बूढा और सदाचारी व्यक्ति (को०] । (ख) द्वै सिंघ प्रानन पर जमें कारो पीरो गात ।-नद. पोरमान-सञ्ज्ञा पुं० [ लश० ] मस्तूल के ऊपर बंधे हए वे डडे ग्र०, पृ० १८४॥ जिनके दोनो सिरो पर लटु बने रहते हैं और जिनपर पीरोज-सञ्ज्ञा पुं० [स० पेरोज (= उपरत्न), फा० फीरोजह , पाल चढाई जाती हैं । अहहंडा । परवान । पोरोजह , हिं० पीरोजा ] दे० 'फीरोजा' । उ०-- कहूँ दाडिमी चूव चिचन्न चपी । मनो लाल मानिक्क पीरोज थप्पी।-पृ० पीरमुरशिद-सज्ञा पुं० [फा०] गुरु, महात्मा, पूजनीय अथवा अपने से दरजे में बहुत बड़ा । रा०, २ । ४७०। विशेष-महात्माओ के अतिरिक्त राजानो, वादशाहो और पोरोजा-सज्ञा पुं॰ [फा० पीरोजह ] २० 'फीरोजा'। वडो के लिये भी इसका प्रयोग किया जाता है। पील' सञ्चा पुं० [फा०] १ हाथी। गज । हृस्ति । उ०-पर पीरसाल-वि० [फा०] १ बूढा । वयोवृद्घ । २ वृद्घा । पील भुम्मी म घुम्मै गरज । -ह. रासो, पृ० १४६ । २. बूढी (को०] । शतरज के खेल का एक मोहरा । यह तिरछा चलता है और पीरा-मशा स्त्री० [सं० पीडा ] दे० 'पीडा'। तिरछा ही मारता है। इसको पीला, फोल, फोला तथा ऊंट पीरा-वि० [ स० पीत, प्रा० पीअर ] दे० 'पीला' । उ०—पाँच भी कहते हैं । विशेष-दे० 'शतरज' । तत्त रंग भिन भिन देखा। कारा पीरा सुरख सपेदा । पील-सज्ञा पुं॰ [हिं० पीलू ] कीडा। घट०, पृ०२३८ । पील-सशा पुं० [सं० पीलु ] दे० 'पीलु'-१ । पीराई-सञ्ज्ञा पु० [फा० पीर + हिं० श्राई (प्रत्य॰)] वह जाति पीलg:-वि० [हिं० पीला ] दे० 'पीला' । उ०—ता में लील पील जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। ढकाली। सम द्वारा।-घट०, पृ० २४६ । पीरान-सज्ञा स्त्री॰ [फा० ] वह भूमि जो किसी पीर की सेवा पोलक'-सज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का पीले रग का पक्षो जिसके में अर्पित हो। २ भूमि जो पोरों की सहायता के लिये डैने काले और चोच लाल होती है। हो [को०] । पीलक-सञ्ज्ञा पु० [सं०] बढा और काला चीटा [को०] । पीराना-वि० [फा० पोरानह ] बूढ़ो के समान । वृद्ध जैसा । पीलखा-मज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का वृक्ष । वध का [को०)। पोलखाना-सशा पुं० [फा० पीलखानह ] हस्तिशाला। हथसार । पोरानी-सच्चा स्पी० [फा०] पीर की पली [को०) । पीलपाँव-सज्ञा पुं॰ [फा० पीलपा ] एक प्रसिद्ध रोग। फीलपा । पोरानेपीर-सचा पुं० [फा० ] पोरो का पीर को०] । एलीपद। पौरामिड-सज्ञा पुं० [अं. पिरेमिढ ] ऊपर को उठा हुआ त्रिको- विशेष-इसमे घुटने के नीचे एक या दोनो पैर सूजे रहते हैं। गात्मक कब्रगाह । सूजन पुरानी होने पर उसमें खुजली और घाव भी हो जाता विशेप-मिस्र में इस प्रकार के अनेक कनगाह बने हैं, जिनमें है । सूजन पहले टाँग के पिछले भाग से प्रारभ होती है फिर प्राचीनतम राजामो के शव सुरक्षित हैं। विश्व की पाश्चर्य घीरे धीरे सारी टांग में व्याप्त हो जाती है। मारम में ज्वर जनक वस्तुषों मे पिरामिड भी हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से और जिस पैर में यह रोग होनेवाला रहता है उसके प? मे इन कयो या पिरामिडो का विशेष महत्व है। गिलटी निकलती है जिसमें असह्य पीडा होती है । वात की पीरो-तशा सी० [फा०] १ बुढ़ापा । वृद्धावस्था । २. चेला अधिकता मे सूजन काली, रूखी, फटी और तीन वेदनायुक्त, मूडने का घधा या पेशा। गुरुवाई। ३ चालाकी । धूर्तता पित्त की अधिकता मे कोमल, पीली भोर दायुक्त तथा कफ ( क्व० ) । ४, इजारा । ठेका । हुकूमत । जैसे,- क्या की अधिकता में कठिन, चिकनी, सफेद या पाहवणं और भारी