पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३४१

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जीव । 1 पुरपाल पुरवाना पुरपाल-सचा पुं० [सं०] १. नगर का रक्षक। कोतवाल । २ पुरवइया-सशा प्री० [सं० पूर्वा ] दे० 'पुरवाई'। उ०-नान्हीं नान्ही बूद पवन पुरवइया वरसत थोरे थोरे । -सतवाणो०, पुरच-वि० [फा०] चक्करदार। घुमावदार । घुघराला । उ०- भा०२, पृ०७६ । इसकी पुरेपच जुल्फे दिल को बेताब किए डालती हैं। पुरवटा -सञ्ज्ञा पुं० [सं० पूर+ वर्म ? ] चमड़े का बहुत बढ़ा ढोल -श्रीनिवास ग्र०, पृ० ४५ जिसे कुएं में डालकर वैलो की सहायता से खेत की सिंचाई पुर फन-वि० [फा० पुर+श्र० फन ] मक्कार । धूर्त । प्रवचक । आदि के लिये पानी खीचते हैं । चरसा । मोट । पुर । उ०-ऐ इस्कवाज पुरफन बलिहार तुज मकर पर। क्रि० प्र०-चलना । स्त्रींचना । दक्खिनी०, पृ० ३२० । मुहा०--पुरवट नाधना=पुरवट की रस्सी में वैल जोतना । पुरवला - वि० [सं० पूर्व + हि० ला प्रत्य० [ वि० मी० पुरबली ] पुरवट हाँकना = पुरवट के बैलों को चलाना । १. पूर्व का । पहले का । २ पूर्व जन्म का । पूर्वजन्म सबधी । पुरवधू-सचा त्री० [सं०] दे० 'पुरनारी' [को॰] । जैसे, पुरबले पाप । पुरवना@'-क्रि० स० [हिं० पूरना] १ पूरना । भरना । पुजाना । पुरबा'-सज्ञा स्त्री॰ [ में पूर्व ] दे० 'पुरवा' । जैसे, घाव पुरवाना । २. पूरा करना । पूर्ण करना। पुरवा R-सञ्ज्ञा पुं॰ [ हि० पूर्वा ] दे॰ 'पूर्वा ( नक्षत्र)। उ०-पुरवा उ० -(क) जौं विधि पुरब मनोरथ काली। करउँ तोहि लाग भूमि जलपूरी।-जायसो ग्र०, पृ० १५३ । चष पूतरि प्राली। -तुलसी (शब्द॰) । (ख) मो सो कहा पुरबिया-वि० [हिं० पूरघ+इया (प्रत्य॰)] [ वि० सी० पुरबिनी ] दुरावति राधा। कहा मिली नंदनदन को निज पुरषो मन की पूर्व देश में उत्पन्न या रहनेवाला । पूरब का । जैसे, पुरबिये साधा । —सूर (शब्द॰) । लोग। मुहा०-साथ पुरवना = साथ देना । साथी होना । उ० -पुरवहु पुरबिया-सञ्ज्ञा पुं० पूरब का रहनेवाला व्यक्ति। पूरब के निवासी साथ तुम्हार बडाई।-जयसी (शब्द०)। जन । जैसे, पुरवियो की फौज । पुरवना-क्रि० म०१ पूरा होना । २. यपेष्ट होना। ३ उपयोग के योग्य होना। पुरबिला-वि० [हिं० पूरब ] दे० 'पुरबला' । पुरबिहा-सज्ञा पुं० [हिं० पूरय + इहा (प्रत्य॰)] दे० 'पुरविया' । मुहा०-पल पुरवना = पूरी शक्ति या सामर्थ्य होना। बलवीर्य पुरबो-वि० [हिं० पूरब + ई ] दे० 'पूरवी' । पुरवय्या-सहा स्त्री॰ [ हिं०] दे० 'पुरवइया'। उ०-हिल रही पुरखुजल-वि० [ सं० पूर्वज ] पूर्व का । पहिले का। उ० -जो नोम की डाल मदगति, कहती रे। वह रही लजीली सीरी पुरबुज अपने कर्मन तें, डारयौ सर्व मिटा री।-जग० वानी, धीरी पुरवइया ।-मिट्टी०, पृ० ५७ । पृ० २८। पुरवा'-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुर + हिं० धा (प्रत्य॰)] छोटा गांव । पुरा । पुरचुला–वि० [ स० पूर्व+हिं० ला ( प्रत्स० ) ] दे० 'पुरबुला' । खेडा। उ०-नदी नद सागर डगरि मिलि गए देव, डगर उ०-रही न रानी कैकेई अमर भई यह बात । ववन पुरवुले न सूझत नगर पुरवान को। देव (शब्द॰) । पाप ते बन पठयो जगतात ।-(शब्द०)। पुरवा -- पुं० [सं० पूर्व + वात, हिं० पूरब+याव ] पूरव की पुरभिद्-सशा पु० [सं०] (असुरो के त्रिपुर का नाश करनेवाले ) हवा। पूर्व दिशा से चलनेवाली वायु । २ एक रोग जो शिव । पुरमथन । वायु चलने से उत्पन्न होता है। पुरमजाक-वि० [ फा० पुर+अ = मजाक ] दिल्लगी से भरा हुमा । विरोप-यह पशुमो को होता है। इसमें पशु का गला फूल जाता ध्यग्यपूर्ण । उ०-वे जहाँ एक और करुण चित्रों के माकलन है और उसके पेट में पीड़ा होती है। में सिद्धहस्त हैं वहां पुरमजाक, फबती भरे, गुदगुदा देनेवाले पुरवार-सशा पुं० [ सं० पुटक ] मिट्टी का कुल्हड। कुल्हिया। फिसाने लिखने में भी। -शुक्ल० पभि० प्र० ( सा० ) उ०-बूट के केदार सम लूटिहै त्रिलोक काल पुरवा के फूट पृ०६२ सम ब्रह्म मड फूटिहै। हनुमान (शब्द०)। पुरमथन-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] शिव । पुरवा@:-वि• [ हिं० पूरना ] पूर्ण करनेवाला। पुरानेवाला । पुरमान-सञ्ज्ञा पुं॰ [फ० फर्मान ] दे० 'फरमान'। उ०-पाखेटक 6०-चलि राधे वृदावन बिहरन प्रौसर बन्यो है मनोरथ बन तविक इतै गज्जने सपत्ते । साह जोर साहाब दिए पुरमान पुरवा ।-घनानद, पू० ४६० । निरत्ते।-पृ० रा, १०१६ । पुरवाई-सचा सी० [सं० पूर्व + वायु, हिं• पूरव +वाई ] पूर्व की पुररोध-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] नगर को चारों ओर से घेरना [को०] । वायु । वह वायु जो पूर्व से चलती है। 6०-प्राग सो धघात पुररौनक-वि० [फा० पुररौनक ] चहल पहल से भरा हुआ । जहाँ ताती लपट सिराय गई पोन पुरवाई लागी सीतल सुहान खूब रौनक हो (फो०)। री।-ठाकुर०, पृ०२०॥ पुरला-सदा सी० [सं०] दुर्गा । पुरयाना-क्रि० स० [हिं० पुरवना का प्र० रूप ] पूरा कराना । का काम करना।