पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३९५

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पंठ ३१०४ 15 रहती है जिसे चलने में यह झन झन बजता है। घोडो क जुपारी। जायसी (शब्द०)। २ जूमा खेलने का पांसा । पैर में भी उन्हें कभी कभी पहनाते हैं। उ०-प्रमुदित पुलकि पते पूरे जनु विधि वस सुढर ढरे हैं । २ सग्गड या बैलगाडी के पहिए के धागे की वह टेढ़ी लकडी -तुलसी (शब्द०)। जिससे छेद में से धुरा निकला रहता । पतर-सञ्ज्ञा पुं० [? ] सात की सख्या (दलाल)। पैट-सज्ञा सी० [ स० पण्यस्थान, प्रा० पणट्ठा, अप० पइँट्ठा प्रथवा पैंतरा-उ पुं० [हिं० ] दे० 'पैतरा' । स० परय, प्रा० पगण (वणि)+थप० ठाय<प्रा० ठाणा, पैंतरी-सशास्त्री० [हिं० पग+तरी ] पनही । पैतरी। उ०- <० स्थान, मथवा देशी पइट्ठाण ] १ हाट । बाजार । वा के पग की पैतरी, मेरे तन को चाम ।-कवीर सा०, उ०-लेना हो सो लेइ ले उठी जात है पैठ। -कवीर पृ० ५। (चन्द०) । २ हट्टी । दुकान । उ०-ऊघो ब्रज में पैठ करी । पैंतालिस'-वि० [सं० पञ्चचरवारिंशत्, प्रा. पचचत्तालीसति, —सूर (शब्द०) ३ वह दिन जिस दिन हाट लगती हो । अप० पंचतालीस ] जो गिनती में चालीस से पांच अधिक बाजार का दिन । ४ दूसरी हुडी जो महाजन पहली हुडी के हो। चालीस और पांच । खो जाने पर लिख देता है। पैंतालिस-सज्ञा पु० चालीस से पाच अधिक की संख्या या प्रक पेठोर-मग पुं० [हिं० पैंठ + ठौर ] दुकान । हाट । उ०-ऐसी वस्तु अनूपम मधुकर मन जिनि प्रानहु और । प्रजवनिता के पैंतालीस–वि० [हिं० ] दे० 'पैतालिस' । जो इस प्रकार लिखा जाता है-४५। नाहिं काम को है तुम्हरे पैठोर ।—सूर (शब्द॰) । पड़ता पुं० [हिं० पायं+ड (प्रत्य० ) या स० पाददण्ड, प्रा. पती-सज्ञा स्त्री० [सं० पवित्री, प्रा० पवित्ती, पइत्ती ] १ कुश को ऐंठकर बनाया हुआ छल्ला जिसे श्राद्धादि कर्म करते समय पायदएड ] १ घलने मे एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान उंगली में पहनते हैं। पवित्री । २ तांबे या त्रिलोह की पर पैर रखना । डग । मंगूठी जो पवित्रता के लिये अनामिका मे पहनी जाती है। कि० प्र०-भरना। पैंतीस-वि० [सं० पञ्चप्रिंशत्, प्रा० पञ्चत्तिसति, अप० पंचतीस] मुहा०-पैंड भरना = (१) किसी देवता या तीर्थ की ओर जो गिनती में तीस से पांच अधिक हो । तीस और पांच । पर नापते चलना । (२) इस प्रकार शपथ खाना । जैसे.- तु सच बोलता है तो गगा की ओर चार पैड भर जा। पैतीसर-सचा पुं० तीस से पांच अधिक की संख्या या अक जो २ एक स्पान से उठाकर जितनी दूरी पर पैर रखा जाय उतनी इस प्रकार लिखा जाता है-३५ । दूरी । डग । पग । कदम । उ०-तीन फंड धरती ही पार्क पँधना-क्रि० स० [हिं० पहनना] धारण करना । पहनना । उ०- परन फुटी इक छाऊँ।-सूर (शब्द०)। ३ पथ । मार्ग । नख सिख ले सब भुखन बनाई । बसनं झलाझलि पंधे आई। रास्ता। पगहडी। 3०-व्रजमोहन तेहे दरस पियासियां -स० दरिया, पृ०३। पंढरा उढीको सलिया।-घनानद, पृ० ४८४ । पफ्लेट-सञ्ज्ञा पुं० [अ० ] कुछ पन्नो की छोटी सी पुस्तक जिसमें पढ़ा-सा पु० [हिं० पैद] १ रास्ता । पथ । मार्ग । किसी सामयिक विषय पर विचार किया गया हो। मुहा०-पैड़े परना = पीछे पडना । तग करने के लिये साथ लगे पुस्तिका । पर्चा । फिरना । बार बार तग करना । उ०-मानत नाहिं हटकि पैंयाँ -सज्ञा स्त्री० [हिं० पाय ] पैर । पाँव । हारी हम पैडे परे कन्हाई।—सूर (शब्द०)। पैंसठ' -वि॰ [स० पञ्चपष्टि, प्रा० पचसहि ] जो गिनती में साठ २ घुडसार । अस्तवल । ३ प्रणाली । रीति । उ०-गोकुल गांव से पांच अधिक हो । साठ मोर पाँच । को पंडो न्यागे (शब्द०)। पैंसठर—समा पुं० साठ से पांच अधिक की सख्या या अ क जो इस पंडायवा-सरा पु० [हिं० पैढाँ] दे० 'पेडाइत' । उ०-पांच प्रकार लिखा जाता है-६५ । पैडायता प्रगट पैग दिया तास के बीच कोई संत जीया। पैल-अव्य [ स० परम् ] १ पर। परतु । लेकिन । उ०- -राम० धर्म०, पृ० ३८१ । बरजत बार बार हैं तुमको पै तुम नेक न मानौ। सूर पड़िया-सशा पु० [देश० ] कोल्हू में गन्ने भरनेवाला । (शब्द०)। २ निश्चय । अवश्य । जरूर । उ०—सुख पाइ पड़ो-सरा पुं० [हिं० ] प्रणाली। रीति । दे० 'पैडा'। उ० कान सुनें बतियाँ कल पापुस मे कछु पै कहिहै ।-तुलसी सुदर कोउ न जानि सके यह गोकुल गाँव के पैडो ही (शब्द०)। ३ पीछे। अनतर । वाद। उ०-(क) ऊघो। न्यारो। -सु दर० ग्र०, भा० २, पृ० ६४३ । श्याम कहा पाबैंगे प्रान गए पै पाए —सूर (शब्द॰) । (ख) पैंत-राश रही [ स० पणकृत, प्रा० पणइत ] १ दांव । कमल भानु देखे पै हंसा । —जायसी (शब्द०)। पाजी। उ०-(क) मागे पेत पावत पचारि पातकी प्रचंड यौ०-जो पै= यदि । अगर । उ०-जो पै रहनि राम सों काल की करालता भले को होतु पोच है।-तुलसी (शब्द०)। नाहीं । ती नर खर कूकर सुकर से जाय जियत जग माही। (ख) चोर पैठ जस सेंघ संवारी । जुवा पैत जस लाय -तुलसी (शब्द०)। तो पै- तो फिर। उस अवस्था में ।