पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३९४

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पैजनी पेषण ३१०३ पेषण-सञ्ज्ञा पुं० [ मं०] १. पीसना। २. तिघारा थूहह । ३ वह राजा भोज की। पेहलई थावण खेलावा जाई। - वसु जिससे कोई चीज पीसी या चूण की जाय । खरल (को०)। रासो, पृ० १०८। ४. खलिहान । खलधान्य (को॰) । पैंग-वि० [ मं० पैझ ] १ मूषक सवधी । २ पिंग वर्ण का [को० पेषणि, पेषणी-सा खी० [सं०] सिल, खरल, चक्की प्रादि शिला पैंगल-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पैङ्गल ] पिंगल का पुत्र या प्रतेवा जिसपर कोई चीज पीसी जाय । २. पिंगल प्रणीत अथ (को०] पेषना'-क्रि० स० [सं० प्रक्पण, प्रेक्षण ] दे० 'पेखना'। उ० गल्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पैङ्गल्य ] पिंग वणं । पिंगल रग [को०] पषावषी के पेषण, सब जगत भुलाना । -कवीर ग्र०, गि-सज्ञा पुं॰ [सं० पैहि ] निरुक्त के निर्माता महर्षि यास्क के पृ० १४६। पैंजूष -सञ्ज्ञा पुं० [सं० पैशंप ] श्रवणेंद्रिय । कान [को०] । पेषना-सञ्ज्ञा पुं० दे० 'पेखना'। पैंट-तचा पुं० [ ] पायजामें की तरह एक पोशाक । पतर पेपाक-सञ्चा पुं० [सं०] दे० 'ऐषणी' [को०] । पैंडपातिक-वि० [स० पैण्डपातिक ] पिंड प्रर्थात् भिक्षा पेषि-सचा स्त्री० [सं०] वच । जीवनयापन करनेवाला (को०] । पेपो-सज्ञा खी० [सं०] पिशाचिनी । पैहिक्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पैण्डिक्य ] भिक्षा वृत्ति । भैदय जीवि पेषीकरण-सशा पुं० [०] पीसना । चूर्ण करना। पैंडिन्य-सज्ञा प० [ स० पैरिडन्य ] भिक्षावृत्ति । भैक्ष्य जी पेस'-वि० [फा०] दे० 'पेश'। उ०-(क) हेतुमान सहित वखाने भिक्षा द्वारा प्राप्त वस्तु (फो०] । 'हेतु' जाको नाम, चारो फल पाठो सिद्धि दीवे ही को पेस पैंकड़ा-सा पुं० [हिं० पाय + फडा] १ पैर का कडा । २ वे है। दूलह ( शब्द०)। (ख ) मेवात घनी पाए महेस, पंकड़ा-सञ्ज्ञा पुं॰ [ ? ] ऊँट की नकेल । मोहिल्ल दुनापुर दिए पेस । -पृ० रा० ११४२२ । पेसकबज-सञ्ज्ञा सी० [फा० पेशकब्ज ] कटारी । उ.-तह पैंग'-पशा सी० [हिं० ] २० 'पेंग'। उ०-एक वेर निज पैग की होत ऊचाई। सम्हारि न सकी सयानि सरकि , घली घोर छुरी बगुरदा पेसकवज अरिन सौं। पद्माकर उर आई।-रत्नाकर, भा०१, पृ०१३ । ग्र०, पृ०१६। पेसकस-सञ्ज्ञा पुं० [फा० पेशकश ] दे० 'पेशकश'। उ०-पेसकस पग-सच्चा पुं० [हिं०] दे॰ 'पग' । उ०-विश्व हमारा दिन घिरकर संकरा होता पाता है। प्राणों का पाहत भेजत इरान फिरगान पति ।-भूषण ग्र०, पृ० ५.। दो पैग नही उढ़ पाता है। -चिता, पृ० ५४ । पेसबंद-सज्ञा पुं० [ फा• पेशवद ] दे० 'पेशवद' । उ०-साखत , पेसबद अरु पूजी । हीरन जटित हैकले दूजी।-हम्मीर०, पैच'-सशा स्त्री० [सं० प्रत्यञ्चा, प्रतञ्ची ] धनुष की डोरी पृ०३। पंच-सशा स्त्री॰ [ स० पिच्छ ] मोर की पूछ। पेसल-वि०, सशा पुं० [सं०] दे० 'पेशल' । पंच-सज्ञा पु० [देश॰] हाथ फेर । हेर फेर । लेन देन । पेसवाई-सज्ञा स्त्री॰ [ हि पेसवा+ ई (प्रत्य॰)] दे० 'पेशवाई' । यौ०-पंच उधार=हेर फेर । पलटा । उ.-साहजादे देखे हिम्मत निवाह । दुरग का भाई पैंचना-क्रि० स० [ देश०] १ अनाज फटकना । पछोरना पेशवाई दुरग साह । -रा० रू०, पृ० ११५ । पलटना । फेरना। पेस्टल-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की रग की वत्ती, जिससे पैंचा तशा पु० [ देश० ] हथ उधार । हेर फेर । पलटा । चित्र बनाए जाते हैं। यौ.-एचा पैंचा = हेर फेर । हेरा फेरी । उलट पुलट । यो०-पेस्टल कलर =पेस्टल रग । पेस्टल ड्राइंग = वह चित्र पैंजना-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पाय + अनु० मन, झन ] [स्त्री० जो पेस्टल रग से बना हो (को०) । एक प्राभूषण जो कड़े के ग्राकार पेस्टल रग-सक्षा पुं० [अ० पेस्टल+हिं० रंग] पेस्टल की वत्ती । उससे मोटा और खोखला होता है। इसके भीतर क पेस्टल । पडी रहती हैं जिससे चलने में यह बजता है। पेरखर-वि० [सं०] १ चलनेवाला। गतिशील । २ विनाशक । पजनियु-सज्ञा सी० [हिं०] दे6 'पैजनी-१' । उ० ध्वसक [को०]। तट किकिनि, पंजनि पाइन । चलत घुटुरवनि पेटा-सशा स्त्री॰ [देश॰] कचरी नाम की लता का फल जो कुंदरू चाइनि ।-नद० ग्र०, पृ. २४५ । के भाकार का होता है और जिसकी तरकारी तथा कचरी पैजनियाँ -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैजनी'। बनती है। विशेष-दे० 'कचरी-१'। पजनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पाय+अनु० झन, मन] १ पेटी-ससा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'पेहँटा'। और बच्चों का एक गहना जो फड़े की तरह पैर में पेहँटुल-सशा सी० [देश॰] दे० 'पेहेंटा'। जाता है। पेहला@t-वि० [हिं० पहला ] दे० 'पहला' । उ०—कुंवर रमई विशेष—यह खोखला होता है और इसके भीतर ककडि पैंजनी ] पैर