पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४१२

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पोहना पौड़ा है वह प्यारी। भली करी यह वात जनाई प्रगट ( कलवारिन ) और वैश्य से उत्पन्न एक सकर जा दिखाई मोहिं । सूर श्याम यह प्रान पियारी उर मैं राखी लिखा है। पोहि ।-सूर०, १० । २४१३ । (ख) के मधुपावलि मजु ३ पुडू देश का एक राजा । लसै अरविंद लगी मकरदहि पाहे ।-वेनी (शब्द॰) । विशेप-यह जरामघ का सवधी था। इसके पिता का नाम ५ पीसना । घिसना । ६. दे० 'पोना' । वसुदेव था, इससे यह अपने को वासुदेव कहता था। राजा पोहना-वि० [स्त्री० पोहनी ] घुसनेवाला। भेदनेवाला। उ०- यज्ञ के समय भीम ने इसे हराया था। श्रीकृष्ण के समान : यह चार प्रग सी सोहनी, चार सैन्य मघि पोहनी । जुग भी अपना रूप बनाए रहता था। नारद के द्वारा श्रीकृत चार चार श्रुति में विदित मृत्युपास मनमोहनी।-गोपाल की महिमा सुनकर यह बहुत क्रुद्ध हुपा और कहने ल (शब्द०)। मेरे अतिरिक्त और दूसरा वासुदेव है कौन । इसने एकर पोहमी-सचा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'पुहमी'। उ०—जहाँ पोहमी प्रादि वीरो को लेकर द्वारका पर चढ़ाई की पर कृष्ण पवन नहिं जल प्रकाश ।-तुरसी श०, पृ० १४५। हाथ से मारा गया । पोहरी-सञ्ज्ञा पु० [हिं० पोहा] १ वह स्थान जहाँ पणु चराए जाते पौंड्रवत्स-सशा पुं० [सं० पौण्ड्वरस] वेद को एक शाखा का ना हैं या चरते हैं। चरहा । २. चरहा । घास या पशुमो के पौंड्रवर्धन--सज्ञा पुं॰ [ पौण्ड्रवर्द्धन ] पु ड्रवर्धन नगर । चरने का चारा । चरी। पोहर-सज्ञा पुं० [ स० प्रहर ] दे० 'पहर' । उ०—कारण विण पौड्रिक-सशा पुं० [सं०] १ पोडा नाम का गन्ना। २ गोत्रप्रवर्तक ऋषि। ३ लवा नाम का पक्षी। ४ पौं जग सू करे, पाठ पोहर उपगार ।-बांकी ग्रं॰, भा॰ २, नामक देश । पृ० ४७ । पौश्चलोय-वि० [सं०] पु श्चली सवधी। कुलटा मवधी। पु पोहरा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पहरा'। उ० -न को पिंड का [को०] । पोहरा न को चोर लागे। न को रेण सूता न को दिन्न जागे । -राम धर्म०, पृ० १३३ । पौश्चलेय-सचा पु० [मं०] पुश्चली या कुलटा का पुत्र (को०] । पोहा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पशु ] पशु । चौपाया । पौश्चल्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] कुलटापन । व्यभिचार (को०] । पोहिया -सज्ञा पुं० [हिं० पोहा+इया ] चरवाहा । पासवन-प्रज्ञा पु० [ मं०] दे० 'पु सवन' को०] । पोहोप-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पुष्प ] पुहुप । फूल । पुष्प । उ०- पोस्न'-वि० [ स०] मानवीय । मानव के उपयुक्त । (को०] । इछ्या पोहोप चढाऊँ पूजा मनसा सेवा कीजै ।-रामानद०, पास्न-सञ्चा पुं० मनुष्यता । पुरुषता । मानवता [को०] । पृ०२७॥ पाँचा-समा पु० [हिं० पाँच ] साढे पाँच का पहाटा। पोड-सशा पुं० [अ० ] दे० 'पाउड' । पौंछना@+-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'पोछना' । उ०-वधन पौहरीक-ससा पुं० [सं० पौण्डरीक ] १ स्थलपद्म । पुडरी। छती लपटाए। पौंछत सुदर प्रग सुहाए ।-नद० प्र० २. एक प्रकार का कुष्ट जिसमें कमल के पत्ते के रग का २५५। सा वर्ण हो जाता है। ३ एक यज्ञ का नाम । पौडई-वि० [हिं० पौड़ा ] पौडे के रग का । गन्नई। पौडरीकर-वि० [ वि० सी० पौण्डरीकी ] पुंडरीक सवधी । पुडरोक पौडई -ज्ञा पुं० एक रग जो पौडे के रग से मिलता • निर्मित [को०] । होता है। पौंडरीय, पोडरीयफ-सशा पुं० [सं० पौण्डरीय, पौण्डरीयक ] दे० विशेप-इसमें २० सेर टेसू का रग और ११ हटाक 'पुडयं' [को०] । पौंडर्य-सज्ञा पुं० [ मं० पौंडयं ] स्थलपद्म । पडती है। रग पीलापन लिए हग होता है। इसे गन कहते हैं। पौंड्र'-वि० [सं० पायद] १ पु देश का । २ पुट्ट देश का निवासी पौड़ना-क्रि०म० [हिं० ] दे० 'पोरना'। उ०-पौंडत पौंड्र २--सरा पुं०१ भीमसेन के पास का नाम । ३ मोटा गन्ना। भव जले काहू पार न पावा ।-घरम० श०, पृ०७१। पौडा । पौंडा । ३ पु देश (विहार का एक भाग)। ४ पुद्र पौड़ा-सशा पुं० [सं० पौण्टक ] एक प्रकार की वही मौर देश के वसुदेव का पुत्र जो 'मिथ्या वासुदेव' कहलाया। दे० जाति की ईख या गन्ना। 'पौड़ क' । ५ मनु फे मनुसार एक जाति जो पहले क्षत्रिय थी विशेष-इसका छिलका कुछ कटा होता है पर इस पर पीछे सस्कारभ्रष्ट होकर वृषलत्व को प्राप्त हो गई थी। वहुत अधिक होता है। यह ईस अधिकतर चूसने के दे० 'पुड़-६। में पाती है। लोग इसके रस से गुड, चीनी मा पौंड्रक-संज्ञा पुं॰ [सं० पौण्डक ] १. एक प्रकार का मोटा गन्ना । बनाते । पौंष्टा दो प्रकार का होता है-सफेद और पौंडा । २ एक पतित जाति । दे० 'पुड-'। सुश्रुत ने पोंडे को शीतल और पुष्ट रहा है । वहते हैं कि विशेष-ग्रह्मवैवर्त पुराण में इसी जाति को शौडिका पहले पहल इस देश में चीन से पाया। या राजा।