पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४१३

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५१२२ पौतवापचार पर्या०-भोरुक । वशक | शतपोरक | कांतार | काप्ठेतु । पौड़ना-क्रि० स० [सं० प्लवन ] २० 'पोरना' । उ०-पाट सूचिपत्रक । नेपाल । नीलपोर (काला गन्ना)। अटफ मानै नही, पौट जल धारा। -चावीर श०, भा० ३, पौड़ी-सचा स्त्री० [हिं० ] दे० 'पोरी' । गृ० १४ । पौढ़ना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'पोढ़ना' । पौष्ठर-सशा पुं० [अ० पाउदर ] १. चूर्ण। उनी । २ एक पूर्ण पॉरना-कि० अ० [ म० प्लधन ] तैरना । पैरना । जिसे लोग मुह पर मलते हैं। उ०-सुभग रूज, .पौहर पौराकोg+-सज्ञा पुं० [हिं० पौरना ] तैरनेवाला । तैराक । उ०- से कर मुख रजित । -ग्राम्पा०, पृ० ८३ । निर्गुन विविध धार प्रति बाँकी। बूडि मुए भव सम पौड़ी-सहा पी० [हिं० पाव+दी (प्रत्य॰)] १. लवदी का मोढ़ा पौराकी।-स० दरिया, पृ०२० । जिसपर मदारी चदर को नचाते ममय विठाता है । मुहा०-पौदी पर टिकना = पौडी पर बैठना। मोड़े पर बैठना। पारि-सज्ञा प्रो० [हिं० ] ६० 'पोरी' । (मदारी)। पौरिया-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे॰ 'पौरिया' । २ मध्याय । परिच्छेद । पौहन-सज्ञा पुं० [१] स्तुतिपाठ करनेवाला । उ०-ौहन वखाने पौड़ो'- राजा जी० [देश॰] एक प्रकार की पडी मिट्टी । धनवान मुख पाने सुतो, साहिब के साहियो के पगोरो पौढ़ना-क्रि० स० [म० प्रलोठन ? प्रा० पनुष्ट्र, देशी पवढ़ ] १ म पाइगै। -सु दर ग्र० (जीवनी), भा० १, पृ० ६४ । सोना । शयन करना। उ०-(क) महलन माही पौढने पौ'-मञ्चा स्त्री० [सं० प्रपा, प्रा० पचा ] पोसाला। पौसला । प्याऊ । परिमल पंग लगाय। छत्रपती की छाक में गदहा लोट पौर--सञ्ज्ञा स्त्री० [म० पाद, प्रा० पाय, पवा (= किरन) या सं. पाय । -कवीर (शब्द॰) । (ख) पुनि पुनि प्रभु कह सोबहू, प्रभा ] किरन । प्रकाश की रेखा । ज्योति । ताता। पौढ़े परि पर उद जलजाता । --तुलसी (शब्द०)। २ लेटना । शयन की मुद्रा मे होना । उ०-(फा) ले सर पर मुहा०-पौ फटना = सवेरे का उजाला दिखाई पडना। सवेरा खाट विद्याई। पोढी दोऊ कत गर लाई। -जायसी होना। तहका होना। उ०-पी फाटी, पागर हुमा, जागे जीया जून । सव काहू को देत है चोंच समाना चुन । (शब्द०)। (ख) दूरहि ते देखे बलवीर । अपने बालसखा जु कबीर ( शब्द०)। सुदामा मलिन वमन अफ छोन परीर । पौढ़े हृते प्रयक परम रुचि रुक्मिणि चमर डुलावति तीर । उठि अयुलाय भगमने पौ३ -सञ्ज्ञा पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव ] १ पैर। उ०-पी लीने मिलत नैन भरि पाए नीर। -सूर (शब्द॰) । परि वारहिवार मनाए। सिर सौं खेलि पैत जिर लाएउ । -जायसी ग्र०, पृ० १३७ । २ जद। मूल । उ०पी पौढ़ाना-क्रि० म० [हिं० पौदना ] १ डुलाना | झुनाना। इधर से उघर हिलाना। २ लेटाना। उ०-एक बार जननी बिनु पत्र, करह विनु तूबा, चिनु जिन्मा गुन गावै। -कबीर (शब्द०)। अन्हवाए । करि सिंगार पालन पोढ़ाए। -तुलमो (शब्द०)। पौ-सज्ञा स्त्री० [सं० पद, प्रा० पध ( = कदम, हग ) ] पांसे की ३. सुलाना। रायन कराना। उ०-(क) सेज एचर रचि राम उठाए । प्रेम समेत पलंग पौढ़ाए। -तुलसी (शब्द०)। एक चाल या दावें। (ख) चारो भ्रातन अमित जानि के जननी तब पौढ़ाए। विशेष-फेंकने पर जब ताफ माता है या दस, पचीस, तीस' चापत चरण जननि अब अपनी कछुक मधुर स्वर गाए। पाते हैं तब पौ होती है। -"सूर (शब्द०)। मुहा०-पौ बारह पढ़ना = जीत का दाँव पड़ना। पौ यारह पौढारना-क्रि० स० [हिं० पौढाना ] दे० 'पौढाना' । उ०- होना = (१) जीत का दाव पडना । (२) जीत होना । तापर नृप पौढारियो, दधि चरण चितु लाय । -१० रासो, वन पाना । भाग्य खुलना । लाभ का खुव भवसर मिलना । पृ० ११०॥ जैसे,—यहाँ तो सदा पौ बारह हैं । पौण-सहा पुं॰ [ सं० पवन, प्रा० पवण ] दे० 'पौन'। पौधा-सक्षा पुं० [सं० पाद ] दे० 'पौवा' । पौण्य-वि० [सं०] १ पुण्यफर्मकारक । धार्मिक । २ पवित्र । पौगह-सक्षा पुं० [सं० पौगएड ] पाँच वर्ष से दस वर्ष तक की शुद्ध । सच्चा। अवस्था। पौतन--सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद । पौगड-वि० बालोचित । बालकों के अनुरूप (को०] । पौतव-सचा पु० [सं०] १. कौटिल्प के अनुसार विक्री का माल पौगटक-सज्ञा पुं० [ स० पौगएटक ] दे० 'पोगह' । तौलनेवाला। बया । डडीदार । २ एक परिमारण। मान । पौठ-सज्ञा स्त्री० [सं० पर्वत, प्रा. पवट्ट ] जोत की एक रीति तौल (को०)। जिसके अनुसार प्रति वर्ष जोतने का अधिकार नियमानुसार पौतवाध्यक्ष-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थशास्त्रानुसार माल की वदलता रहता है। वारी बारी गांव के सब किसानों की तौल की निगरानी रखनेवाला अधिकारी । जोत में खेत जाता रहता है । भेजवारी। पौतवापचार-सज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार उचित से कम पौड़ना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'पौढ़ना' । तौलना । डडी मारना।