प्रकपन ३५३० प्रकल्प्य प्रकंपन-वि० हिलानेवाला । जो कर उत्पन्न करे । संवधी कल्पित घटनाएं होनी चाहिए और प्रधानत शृगार प्रकरमान-वि० [सं० प्रकम्पमान ] जो थरथराता हो । प्रत्यत रस ही रहना चाहिए। जिस प्रकरण की नायिका वेश्या हो हिलता हुआ। वह शुद्ध' प्रकरण और जिसकी नायिका कुलवबू हो वह प्रकंपित-वि० [ स० प्रकम्पित ] १ करता हुआ। कंपायमान । 'सकोणं प्रकरण' कहलाता है । नाटक की भांति इसका नायक २ हिलता हुपा । ३. कपित । पाया हुमा [को०] । बहुत उच्च कोटि का पुरुष नहीं होता, और न इसका प्रकपी-वि० [सं० प्रकम्पिन् ] कापता हुमा । हिलता झूलता हुपा । माख्यान कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक या पौराणिक वृत्त होता है। कॉपने या हिलनेवाला (को०] | संस्कृत के मृच्छकटिक, मालतीमाधव प्रादि 'प्रकरण' के ही भतर्गत हैं। प्रकच-वि० [सं०] जिसके सर के बाल खड़े हों । मध्यकेश (को०। प्रकरणी-सशा स्त्री० [सं०] प्रकरण के समान नाटिका। प्रकट-वि० [सं०] १ जो सामने आया हो। जो प्रत्यक्ष हुमा हो । जाहिर । जैसे,—इस नगर में प्लेग प्रकट हुपा है। प्रकरिका-सञ्चा श्री० [सं०] प्रासगिक कथावस्तु । प्रकरी [को०] । २ उत्पन्न । माविर्भूत । जैसे,—इतने में वहाँ एक राक्षस प्रकरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ एक प्रकार का गान । २ नाटक में प्रकट हुमा । ३ सष्ट । व्यक्त । जाहिर । प्रयोजनसिद्धि के पांच साधनो में से एक जिसमें किसी एक प्रकट-मध्य० स्पष्टत । प्रकाश्य रूप से । सबके मामने (को०] । देशव्यापी चरित्र का वर्णन होता है। ३ नाटकीय, वेशभूषा प्रकटता-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रकट + हिं० ता ( प्रत्य० ) ] स्पष्टता । (को०)। ४ किसी जमीन का खुलता हिस्सा। प्रांगन (को॰) । दृष्टिगोचर होने का भाव । उ०~पनैसगिक घटा सी छा ५ चौराहा । चत्वर (को०)। ६ प्रासगिक कथावस्तु के दो रही थी। प्रलय घटिका प्रकटता पा रही थी। -साकेत, भेदो में से एक । वह कथावस्तु जो थोडे काल तक चलकर रुक जाती या समाप्त हो जाती है। प्रासगिक कथावस्तु का पृ०५४। दूसरा भेद 'पताका' है। प्रकटन-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] प्रकट होने की क्रिया । प्रकर्ष-सज्ञा पुं० [स०] १. उत्कर्ष । उत्तमता । २ अधिकता । बहुता. प्रकटना-कि० म० [सं० प्रकट +हिं० ना (प्रत्य॰)] प्रकट होना यत । ३ श्रेष्ठता । सर्वोच्चता (को०)। ४ शक्ति। वल (को॰) । प्रादुर्भूत होना । दिखाई देना । ५. विशिष्टता । विशेषता (को०)। ६ विस्तार (को॰) । प्रकटित-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] जो प्रकट हुमा हो । प्रकट किया हुमा । प्रकर्षक-वि० [सं०] उत्कर्प करनेवाला । प्रकटीकरण-प्रज्ञा पुं॰ [ स० ] प्रकट या अभिव्यक्त होने का भाव । प्रकर्षक-सज्ञा पुं० कामदेव की पाख्या [को०] । प्रकट करना [को०] । प्रकर्षण-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ प्रकर्ष। उत्कपं । महत्ता । वैभव । प्रकटीभवन-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं.] मभिव्यक्त होना । जाहिर होना । २ प्रषिकता। ३ खींचना। अलग करना (को०)। ४ पाकु- प्रकट होना। लता । व्यग्रता । विह्वलता (को०)। ५ हल चलाना। कपण प्रकथन-मशा पुं० [सं०] व्यक्त करना । घोषित करना । (को०)। ६. लवाई। विस्तार (को०)। ७. कोडा। चावुक बताना (को०)। (को०)। ८.उधार दिए गए धन का अधिक व्याज लेना (को॰) । प्रकर-सञ्ज्ञा पुं० [म०] १ गुरु । मगर नामक गष द्रव्य । २ पुंज । प्रकर्षणीय-वि० [ स० ] जो उत्कर्ष करने के योग्य हो । प्रकर्षण के समूह । राशि । ३ खिला हुमा फूल या स्तवक । ४ सहारा । मदद । सहायता। ५ अधिकार । ६ खुब काम करनेवाला । वह जो किसी काम में बहुत होशियार हो। ७. समादर । प्रकर्षित-वि० [सं०] १ खींचा हुमा। २. जो (धन आदि) ब्याज के सत्कार (को०)। ८ भपनयन । अपहरण । नारी अपहरण रूप में अधिक प्राप्त या वसूल हो (को०) । (को०)। प्रक्षालन । सक्षालन । मार्जन (को०)। ६ रीति। प्रकी-वि० [सं० प्रकपिन् ] १ उत्कर्षप्राप्त । प्रकर्पयुक्त । २. परिपाटी परपरा (को०)। मागे ले चलनेवाला। प्रकरण-सशा ० [सं०] १ उत्पन्न करमा । अस्तित्व में लाना । २. प्रकला-सधा स्त्री० [सं०] एक कला ( समय ) का साठयां भाग। किसी विषय को समझने या समझाने के लिये उसपर वाद यौ०-प्रकक्षाविद् = (१) भबोध । मप्राज्ञ । प्रज्ञान (२) विवाद करना। जिक्र करना । वृत्तात । ३ प्रसंग। विषय । व्यापारी। वणिक् । ४ किसी प्रथ के अतर्गत छोटे छोटे भागों में से कोई भाग । प्रकल्पक --वि० [सं०] उपयुक्त स्थान पर स्थित [को०] ! किसी ग्रय प्रादि का वह विभाग जिसमें किसी एक ही विषय या घटना मादि का वर्णन हो। परिच्छेद । मध्याय । ५. प्रकरुपना-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चित करना । स्थिर करना। वह वचन जिसमें कोई कार्य पवश्य करने का विधान हो । प्रकल्पित-वि० [सं०] १. निश्चित किया हुमा। स्थिर किया हुआ । ६ अवसर । काल । समय (को०)। दरय काव्य के मतर्गत २. बनाया हुआ। निर्मित (को॰) । रूपक के दस भेदों में से एक । प्रकल्पिता-सज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की प्रहेलिका । विशेष-साहित्यदर्पण के अनुसार इसमें सामाजिक पौर प्रेम प्रकरण्य-वि० [सं०] निश्चित करने योग्य । स्थिर करने योग्य (को०] । योग्य।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४२१
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