पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४५

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- o पखा २७५४ पगड़ी पखा-मक्षा पुं० [ म० पन] १ दाढ़ी। श्मश्रु । २ पख । उ० पखुषा-सशा स० [ मै० पक्ष, हिं० पक्ख ] बांह का वह भाग जो मोर पखा सिर ऊपर राखिही गुज की माल गरे पहिरौंगी। किनारे या बगल में पड़ता है। पमुरा । भुजमूल या पार्श्व । -रसखान०, पृ०१३ । पावं । बगल। पखाउज-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पखावज'। मुहा०--पखुवे से लगकर बेठना -- बगल मे सटकर बैठना । पखाटा-सज्ञा पुं॰ [ दश०] धनुप का कोना। पखेरुवा -नशा पुं० [हिं०] 70 पनेरू' । पखान-सज्ञा पुं॰ [ म० पापाण ] दे० 'पाषाण'। उ०-नहीं चद्र पसेरू-सज्ञा पु० [सं० पक्षालु, प्रा. पक्याडु ] पक्षी । चिडिया । मनि जो द्रवै यह तेलिया पखान । -दीनदयाल (शब्द॰) । उ०--मधुवन तुम कन रहत हरे। विरह वियोग श्याम मुदर पखाना-सञ्ज्ञा पु० [ म० उपाख्यान ] कहावत । कहनूत । कथा । के ठाडे क्यो न जरे? ससा स्यार थी बन फे पखेरू मसल । उ०-बालापन ते निकट रहत ही सुन्यो न एक धिक धिक सवन करे।--सूर (शब्द०)। पखानो।—सूर (शब्द०)। पखेव-सशा पुं० [ श०] वह खाना जो भैस या गाय को, बच्चा पखाना-सशा पुं० [हिं० ] दे० 'पाखाना' । जनने पर, यह दिनो तक दिया जाता है। इसमे मोठ, गुड, पखापखी-सना मी० [सं० पक्षापक्षि? ] निरतर किमी न किसी हलदी, मंगरैला और उर्द का पाटा होता है। एक पक्ष के स्वीकरण की स्थिति या क्रिया। उ०-दादू पखा- पखौंडा--सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० ] पक्तपौड वृक्ष । एक पेड का नाम । पखी ससार सव निरपख विरला कोई। -दादू० पृ० ३१६ । पखौथा-सज्ञा पु० [२० पक्ष ] पस। पर। उ०—कारे रंग के पखारना-क्रि० स० [स० प्रक्षालन, प्रा० पक्खाढन ] पानी से काग पखीया, पटियन जात उनारे। ककरिजिया सो प्रोड मैल आदि साफ करना । घोना। जैसे, पैर पखारना । उ० ईसुरी खकल कलेजे डारे ।-शुक्ल० अभि० ग्र०, पृ० १५७ । (क) पाँव पखारि निकट बैठारे समाचार सब बूझे ।-सूर पखौटा-सज्ञा पु० [हिं० पस] १ हैना । पर । २ मछली का पर । (शब्द०) । (ख) जो प्रभु पार अवसि गा चहहू । तो पद पदुम पखौड़ा-सा पु० [हिं० पखारा ] द० 'पसीग'। पखारन कहहू । -तुलसी (शब्द०)। पखौरा-मज्ञा पुं० [ पत+हिं० श्रौरा (प्रत्य॰)] कधे और मुजदर पखाल-सच्चा सी० [ म० पय (= पानी) + हिं० खाल ] १ बैल के की सघि । कधे पर की हड्डी। चमडे की बनी हुई वडी मशक जिसमे पानी भरा जाता है । पक्खर-सशा पी० [हिं० पाखर ] 'पाखर'। उ०-सजे उ०-भीतर मैला बाहेरी चोखा, पाणी प्यड पखाले घोना। हवर अवर साज चाज । बनी पक्खर बाजि साज समाज । -दक्खिनी०, पृ० ३४ । २ घौंकनी। -ह. रासो, पृ० ३४। पखालनाल-क्रि० स० [ म० प्रक्षालन ] दे० 'पखारना' । उ०- पएर पखाल रोसे नहि खाए, अघरा हाथ भेटल हर जाए। पग-सज्ञा पु० [ स० पदक, प्रा. पथक, पक] १ पैर और पांच । २ चलने मे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैर रखने की विद्यापति, पृ० ३१३ । क्रिया की समाप्ति । डग । फाल । ३ चलने में जिस स्थान से पखान पेटिया-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पखाल + पेट ] १ वह जिसका पैर उठाया जाय और जिस स्थान पर रखा जाय दोनों के पेट पखाल की तरह वढा हो । बडे पेटवाला। २ बहुत खाने- वीच की दूरी । डग । फाल । वाला आदमी। पेट् । मुहा०-पग परना = पैरो पर सिर रखक, प्रणाम करना । पखाली-सज्ञा पु० [हिं० पखाल ] पखाल या मशक मे पानी भरने- पांव लगना या छूना। उ०-अस कहि पग परि पेम प्रति वाला । भिश्ती। सिय हित विनय सुनाइ। -मानम, २।२८४ । पग फंककर पखवज-सज्ञा स्त्री॰ [ स० पक्ष + वाय ] एक वाजा जो मृदग से धरना = सावधान होकर और नोच समझकर कदम कुछ छोटा होता है। रखना । उ०-धनमानो को प्रति पग फूंककर धरना पड़ता पखावजी--सच्चा सौ० [स० पखावज + ई (प्रत्य॰)] पखावज है। -प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २७६ । पग रोपना = कोई वजानेवाला। प्रतिज्ञा करके किसी जगह दृढतापूर्वक पैर जमाना। पखिया-मज्ञा पुं० [हिं० पख + इया (प्रत्य॰)] झगडालू । पगचंपो-सज्ञा सी० [हिं० पग+ चाँपना ] पैर दवाने की क्रिया । वखेडा मचानेवाला। पैर दवाना । उ०-नारायण देवा मही, ज्यू नारायण चद । पखी-सञ्ज्ञा पु० [स० पक्षिन् ] दे० 'पक्षी'। कमला पगचपी करै वक सक तज बद।-बांकी० ग्रं, पखीरी-तज्ञा पुं॰ [ देश० ] दे० 'पक्षी'। भा० २, पृ०४०। पखुडी–सञ्चा स्त्री० [हिं० पख = पख ] दे० 'पखही'। पगडडो-सज्ञा सी० [हिं० पग+ डडी ] जगल या मैदान में वह पखुरा-सञ्ज्ञा पुं॰ [ मं० पक्षमूल ] दे० 'पखुवा' पतला रास्ता जो लोगो के चलते चलते बन गया हो। पखुरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पख ] दे० 'पखडी' । उ०-मनहुँ खिलायो पगड़ा-सज्ञा पुं॰ [ फा० पगाह ] प्रभात । दे० 'पगरा' । उ०- कमल कछु प्रात अरुण ने प्राय । नैक पखुरिन बीच में अतर सघली रेनि मानदघन वरस्या पगड़े म्हां पर छाया । परत लखाय ।-शकुतला, पृ० १३६ । -घनानद, पृ० ३८६ ।