पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४७

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पचन पगार पगारी -सज्ञा पु० [हिं० पग ] मार्ग। रास्ता । उ०-छहक पगारा पचखना-फि० अ० [सं० पिच्च (= दवना) ] दे॰ 'पिचकना' । नोर छित, घुरे नगारा घोर ।-रघु० रू., पृ०६४ । पचखा-सज्ञा पु० [ म० पश्चक ] 70 'पचक-४' । पगारना-क्रि० स० [हिं० पगार+ना?] फैलाना । पचगुना-वि० [ स० पञ्चगुण ] पाँच वार अधिक । पाँचगुना । पगाह-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० ] यात्रा प्रारभ करने का समय। भोर । पचग्रह - सना पुं० [सं० पञ्चग्रह ] मगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, और शनि तडका । दे० 'पगरा'। का समूह । पगिआपु-मज्ञा स्त्री० [हिं० पाग+इया (प्रत्य०) ] दे० 'पगडी'। पचड़ा-सशा पुं० [हिं० पच ( = पँच = पच = प्रपच)+दा (प्रत्य॰)] उ०-जटा फटके लटके पगिना घट ना परचो रस रहत जो १ झझट । वरोडा । पवाटा । प्रपच । उ.--प्राज वाह्मणो भीने। -स० दरिया, पृ०६३ । में ऐसी मारपीट हुई कि नहीं कह सकता। वह वहा पगिआना-क्रि० स० [हि पगाना ] द० 'पगाना' । पचडा है ।-भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० ३५२ । पगिया- सञ्चा स्त्री॰ [हि० पाग+इया (प्रत्य॰)] २० 'पगडी' । क्रि० प्र०-निकालना।-फैलाना । उ०-कुटिल अलक समात नहिं पगिया, मालस सो झलमले। २ एक प्रकार का गीत जिसे प्रायः प्रोझा लोग देवी प्रादि के नद० ग्र०, पृ० ३५३ । सामने गाते हैं। ३ लावनी या खयाल के ढग का एक प्रकार पगियाना-क्रि० स० [हि० पगाना ] 70 'पगाना' । का गीत जिसमे पांच पांच चरणो के टुकडे होते हैं। ऐसे पगुन-संशा पुं॰[हि० पग]दे० 'पग' । उ०-राम सकल कुल रावनु गीतों में प्राय कोई कथा या पाख्यान हुघा करता है । मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा।-मानस, १।२५ । पचत -वि॰ [म०] १ पकाया हुआ। २ पका हुमा। परिपक्व । पगुराना -क्रि० प्र० [हिं० पागुर ] १ पागुर करना । जुगाली पचत-मज्ञा पुं० १ अग्नि । २ सूर्य । ३ इंद्र का नाम । ४ पकाया करना । २ हजम कर जाना । डकार जाना । ले लेना। हुमा भोजन या खाद्य पदार्थ [को॰] । पगेरना-सज्ञा पुं॰ [देश॰] कसेरो की एक प्रकार की छेनी जो वरतनों पचताना-क्रि० प्र० [हिं० पछताना ] द० 'पछताना'। उ.- पर नकाशी करने के काम मे आती है। खावते जुग सब चलि जावे खटा मिठा फिर पचताचे ।- पग्गा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पागना या पकाना ] पीतल या तॉवा गलाने दक्खिनी०, पृ०१०५। की घरिया। पागा। पचतावा-सशा पुं०] हिं० पछतावा ] द० 'पछतावा'। उ०- पग्घ-सशा पु० [ हि पाग ] पाग । पगडी। उ०-गज गही दौरि साजनि आगे कि बोलव प्रायो। आगे गुनि जे काज न करए सिर पग्ध सुड। -पृ० रा०, ५२२५ । पाछे हो पचतामो।-विद्यापति, पृ० ८८ । पघरना-सज्ञा पुं॰ [हि० पिघलना ] दे० 'पिघलना'। उ०-ज्यो पाले का पिंड पघरना। समुझि देषि निश्चै करि मरना।- पचतूरा-सज्ञा पुं॰ [देश० अथवा सं० पच तूर्य ( = पचसवद)] एक सुदर ग्र०, भा०१, पृ० ३३४ । प्रकार का बाजा। पघा- सज्ञा पु० [ मं० प्रग्रह, प्रा० पग्गह ] वह रस्सा जो गायो, बैलो पचतोरिया-मज्ञा पुं॰ [म० पञ्च+तार या स० पट+तार] एक प्रकार आदि चौपायो के गले में बांधा जाता है । ढोरो को बांधने की का कपडा । उ०-(क) पीरे पचतोरिया लसित प्रतलस लाल, मोटी रस्सी। पगहा । लाल रद चद मुखचद ज्यो शरद को।-देव (शब्द॰) । (ख) पघाल-सञ्ज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का बहुत कडा लोहा । सेत जरतारी की उज्यारी कचुकी की कसि अनियारी डीठि पघिलना-क्रि० अ० [हिं० पिघलना ] दे० 'पिघलना'। प्यारी उठि पैन्ही पचतोरिया ।-देव (शब्द॰) । पघिलाना-क्रि० स० [हि० पघिलना ] दे० 'पिघलाना' । पचतोला-सज्ञा पु० [हिं० पचतोरिया ] एक प्रकार का कपडा । पघैया-ज्ञा पुं० [हिं० पग ( = पैर, पैदल )+इया (प्रत्य॰)] जरी का कपडा । उ० -हमन भावज रानी, अवसे वढी स्यानी गावों आदि में घूम घूमकर माल वेचनेवाला व्यापारी । बादल पो का पानी, पचतोला से छानी।-दक्खिनी०, पच'-वि० [ स० पञ्च ] हिंदी पाँच का समासगत रूप । जैसे, पच- पृ० ३६२। कल्यान, पचमेवा, पचरतन, पचतोरिया, पचगुना आदि। पचवोलिया-सज्ञा पुं० [हिं० पाँच+तोला+इया (प्रत्य॰)] पांच पच-वि० [म०] पाकर्ता । पाचक [को०] । तोले का वाट । पचक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] रसोइया [को॰] । पचतोलिया-7 पाँच तोले की पर्यात् हलकी । वजन मे न मालूम पचकना-क्रि० प्र० [हिं०] दे॰ 'पिचकना'। पहनेवाली। उ०--ऐसे पचतोलिया पाग नरायनदास प्रति. पचकल्यान-सज्ञा पु० [हि० पच+कल्यान] दे० 'पंचकल्याण' । वर्ष श्री गुसाई जी को पठावते ।-दो सौ बावन०, भा. १, पचकल्यानी-वि० [हिं० ] पाँच का कल्याण करनेवाला। धूर्त । पृ० १३१। चाइयाँ । (व्यग्य) । पचतोलिया-सशा पुं० [हिं०] दे॰ 'तौलिया' । पचखना'-वि० [हिं पाँच+खड ] पाँच खडोवाला या पंचजिला पचन-सज्ञा पुं० [स०] १ पकाने की क्रिया या भाव । पाक । २ ( मकान प्रादि )। पकने की क्रिया या भाव । ३ पकाने का सामान । पकाने का