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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४८

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२७५७ पचलोना पचना साधन, पात्र, ई धन प्रादि (को०)। ४ अग्नि । ५ वह जो पचपन-वि० [सं० पञ्चपञ्चाशत्, पा० पचपण्णास ] पचास और पकाता हो । पकानेवाला। पांच । पाँच कम साठ । पचना-क्रि० अ० [ म० पचन ] १ खाई हुई वस्तु का जंठराग्नि पचपन-सचा पु० पचास और पाँच की संख्या या प्रक जो इस प्रकार लिखा जाता है-५५। की सहायता से रसादि मे परिणत होना। भुक्त पदार्थों का रसादि में परिणत होकर शरीर में लगने योग्य होना । हजम पचपनवाँ-वि० [हिं० पचपन + वाँ (प्रत्य०) ] क्रम मे पचपन के स्थान पर पडनेवाला । जो गिनने मे चौवन के वाद पचपन होना । जैसे,—(क) रात का भोजन अभी तक नही पचा। (ख) जरा सा चूरण खा लो, भोजन पच जायगा। २ क्षय की जगह परे। होना। समाप्त या नष्ट होना। जैसे, वाई पचना, शेखी पचपल्लव-सञ्ज्ञा पुं० [ मे० पञ्च पल्लव ] ने० 'पच पल्लव' । पचना, मोटाई पचना। ३ किसी चीज का मालिक के हाथ पचबीसी-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पच्चीस ] बीस और पांच का जोड । से निकलकर अनुचित रूप से किसी दूसरे के हाथ में इस २५ की सख्या। पचीस प्रवृत्तियां। उ०-रहै पचवीस का प्रकार चला जाना कि फिर कोई उससे ले न सके। पराया पहरा।-घट०, पृ० ३०६ । माल इस प्रकार अपने हाथ मे पा जाना कि फिर वापस न पचमेल-वि० [वि० पाँच + मेल ] जिसमें कई या सब प्रकार हो सके। हजम हो जाना । जैसे,—उनके यहाँ अमानत में ( के पदार्थ आदि ) हो। जिसमे कई या सब मेल ( की हजारो रुपए के जेवर रखे थे, सब पच गए। ४ अनुचित चीजें ) हो । जैसे पचमेल मिठाई । उपाय से प्राप्त किए हुए धन या पदार्थ का काम में आना। पचरंग'-मज्ञा पुं० [हिं० पाँच रग] चौक पूरने की सामग्री । जैसे-उन्होने लावारसी माल ले तो लिया पर पचा न सके, मेहदी का चूरा, अबीर, बुक्का, हल्दी और सुरवाली सब चोर चुरा ले गए। ५ बहुत अधिक परिश्रम के कारण के वीज । शरीर, मस्तिष्क आदि का ना, सूखना या क्षीण विशेष-इस सामग्री मे सर्वत्र ये ही ५ चीजें नहीं होती। इनमे होना। ऐसा परिश्रम होना जिससे शरीर क्षीण हो। बहुत से कुछ चीजो के स्थान पर दूसरी चीजें भी काम मे लाई हैरान होना। दुख सहना। उ०-ऊँचे नीचे करम घरम जाती हैं। अधरम करि पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी। तुलसी पचरंगर-वि० दे० 'पचरगा' । (शब्द०)। पचरगा-वि० [हिं० पाँच + रग] [ वि० स्त्री० पचरगी ] १ संयो.क्रि०-जाना। जिसमे भिन्न भिन्न पाँच रग हो। पाँच रग का या पांच मुहा०-पच मरना = किसी काम के लिये बहुत अधिक परिश्रम रगो वाला । २ ( कपडा ) जो पाँच रगो से रंगा या पांच करना। जीतोड मिहनत करना। परेशान होना । हैरान रगो के सूतो से बुना हुआ हो। ३ जिसमे कई या बहुत से होना। उ०-जगत मेख माया के कारण पच्च मरे दिन रग हो। कई रंगो से रजित । उ०-ग्रजब एक फूल पच- रात रे । अत वेर नागा हुय चाले ना कोई सग न साथ रे। रगा।-घट०, पृ०२४७ । राम० धर्म०, पृ० २१६ । पचरंगा-सज्ञा पु० नवग्रह आदि की पूजा के निमित्त पूरा जाने- ६ एक पदार्थ वा दूसरे पदार्थ मे पूर्ण रूप से लीन होना। वाला चौक जिसके खाने या कोठे पचरग के पांच रगो से भरे खपना । जैसे,—जरा से चावल मे सारा घी पच गया । पचनागार-मन्ना पुं० [म०] पाकशाला । रसोईघर । वावरचीखाना । पचरा-सज्ञा पु० [हिं० पचड़ा ] दे॰ 'पचडा'-२ । उ०-गावहि पचनाग्नि-पशा पु० [ पुं० ] जठराग्नि । पेट की प्राग जिससे खाया पचरा मूड कंपावहिं, वोरलहिं सकल कमाई हो।--गुलाल, हुआ पदाथ पचता है। पृ० २२ । पचनिका-सशा भी [ स०] कडाही। पचलड़ी--मज्ञा स्त्री० [हिं० पाँच + लडी ] माला की तह वा एक पचनी-मज्ञा स्त्री॰ [ स०] विहारी नीबू । जगली नीबू । आभूषण जिसमे पाँच लडियां होती हैं। पचनीय-सज्ञा पु० [सं०] पचने योग्य । जो पच सकता हो । विशेष-यह गले मे पहना जाता है और इसकी प्रतिम लडी पचपच'-सज्ञा स्त्री० [अनु०] १ पचपच शब्द होने की क्रिया प्राय नाभि तक पहुंचती है। कभी कभी प्रत्येक लडी के या भाव । २ कीचड । और कभी कभी केवल प्रतिम के वीचो बीच एक जुगनू पचपचर-संज्ञा पु० शिव का एक नाम (को०) । लगा रहता है। इसके दाने सोने, मोती अथवा किसी अन्य रत्न के होते हैं। पचपचा-वि० [हिं० पचपच ] वह अघपका भोजन जिसका पानी ठीक तरह से सूखा या जला न हो। पचलोना-सञ्ज्ञा पु० [ न० पञ्च, हि पांच + लोन ( = लवण)] १ जिसमे पांच प्रकार के नमक मिले हो । उ०--मेरा पाचक पचपचाना -[हिं० पचपच] १ क्सिी पदाथ का मावश्यकता से है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना ।--भारतेंदु ग्र०, अधिक गीला होना । कीचड़ होना ( क्व भा० १, पृ०६६२ । २ दे० 'पचलवए'। जाते हैं। 1