पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५२१

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प्राधीत ३२३० प्राप्तकाल प्राधीत-वि० [सं०] जिसने काफी अध्ययन किया हो । पूर्ण शिक्षित । प्रानायाम सज्ञा पुं० [स० प्राणायाम ] दे० 'प्राणायाम' । उ०-- प्रत्यत शिक्षित को०] । प्रानायाम साधं सुद प्रान होय ताके परे, वावरे गए रे प्रान प्राधीना-वि० [सं० पराधीन] दे० 'पराधीन' । उ०-हे प्रभु मेरे वदी प्राननाथ साथ ही।-प्रज०म०, पृ० १३० । छोरा । हौं प्राधीन दास मैं तोरा ।-फवीर सा०, पु०८१ । प्रानी-मशा पुं० [स०प्राणी ] ६० 'पाणी'। प्राध्ययन-वि० [सं०] अध्ययन । पढ़ना [को०] । प्रानेस @ सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्राणेश ] पति । स्वामी । उ०-वामा भामा प्राध्यापक-सझा पुं० [स०] प्रधान प्रध्यापक । वरिष्ठ अध्यापक । कामिनी कहि वोलो प्रानेस । प्यारी कहत खिसात नहिं (म० प्रोफेसर)। पावस चलत विदेस । -विहारी (शब्द०)। प्राध्व'- सञ्चा पु० [स०] १ लबी राह । बहुत बडा रास्ता । २ प्रानेसुर@-संज्ञा पुं० [० प्राणेश्वर] दे० 'प्राणेश्वर' । उ०-ग्रजबन जिस वस्तु पर सवार होकर लोग लबी यात्रा करें। सवारी । रस सवही ते न्यारो । मुरलीधर प्रानेसुर प्यारो। -धनानद, ३ पहर । ४ विनय । ५ बघ । ६ परिहास । कीड़ा (को०)। पृ०२२७॥ प्राध्व-वि० १ दूर का । लवा । २ मुका हुआ । प्रवृत्त । ३ बंधा प्राय-वि॰ [स०] जिस तक पहुंचा जा सके । प्राप्य [को०] हुमा । बद्ध । ४ अनुकूल । ५ यात्रा पर गया हुआ [को०] । प्रापक-वि० [स०] १ प्राप्ति सवधी। २. पानेवाला । जो पाने प्रध्वन-मशा पुं० [सं०] १ सडक । २ नदी का गर्म । योग्य हो । ३ प्राप्त होनेवाला। ४ प्राप्त करनेवाला । प्राध्वर-सशा पु० [म०] वृक्ष की शाखाः । पेड की डाल । प्रापण-मज्ञा पुं॰ [ स०] [वि॰ प्रापणीय, प्राप्य, प्राप्त ] १, प्राप्ति । प्रान-सपा पु० [सं० प्राण] दे० 'प्राण' । उ०- जय जय दशरथ मिलना। २ प्रेरण। २ ले पाना। ४ सदर्भ । हवाला (को०)। कुल कमल भान । जय कुमुद जनन शशि प्रजा प्रान ।-सूर प्रापणिक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] सौदा या माल बेचनेवाला । (शब्द०)। प्रापणीय-वि० [सं०] १ जो मिलमे योग्य हो । प्राप्य । २ पहुंचाने मुहा०-प्रान तजना - मरना । उ०—प्रिय विछुरन को दुसह या ले जाने लायक । दुख हरखि जात प्योसार। दुरजोधन लौं देखियत तजत प्रान इहि बार ।-विहारी (शब्द०)। प्रान नहों में समाना = प्रापत-वि० [स० प्राप्त ] दे॰ 'प्राप्त-१' । उ०-कौनहु भात प्राशकित होना। भयभीत होना। वैसे,-जब से इसे ज्वर जोग फरि कोई । तुव पद पकज प्रापत होई।-नद० ग्र०, है मेरे प्रान नहो में समाए हुए हैं।-मान०, मा०५, पृ०६। पृ०२२६। प्रान रखना = जिलाना । जीवन देना। उ०-अचल करो प्रापति-सज्ञा सी० [स० प्राप्ति ] दे० 'प्राप्ति' । उ०—सुद्ध प्रेम तन राखौ प्राना। सुनि हंसि योलेउ कृपानिधाना ।- मधि प्रापति करे। इक विरोध इहि विधि विस्तरे।-नद० तुलेसी (शब्द०)। प्रान सा पाना= सजीव होना । उत्साहित ग्र०, पृ०२१७॥ होना । उ०-नद महर घर जब सुत बायो। सुनतहि सवन प्रापत्त-वि० [स० प्राप्त ] दे० 'प्राप्त-४'उ०-क्रीहत जमुन प्रान सो पायौ।-नंद० प्र०, पृ० २३३ । सुदरि बिसाल । प्रापत्त षट्ट सत बरष बाल 1-पु. विशेष-अन्य मुहावरे तथा मर्थों के लिये दे० 'माण' शब्द । रा०, २।३६७। प्रानधार-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्राण + आधार ] वह जो प्राण के प्रापना@f-क्रि० स० [सं० प्रापण ] प्राप्त होना । मिलना । समान प्यारा हो। बहुत प्रिय व्यक्ति । उ०-चारिह चक्र प्रापित--वि० [#०] १ जो ले जाया गया हो। २ जिसे प्राप्त कराया फिरौं मैं खोजत दछ नाहि थिर वार । होइफ भस्म पवन सँग गया हो । ३. प्राप्त । पाया हुमा [को०] । घानो जहाँ प्रान प्रधार । —जायसी (शब्द०)। प्रापी-वि० [ स० प्रापिन् ] १ प्राप्त करनेवाला । जिसे फुछ मिले । प्राननाथ-सज्ञा पुं० [स० प्राणनाथ] दे० 'प्राणनाथ-१'। उ० २ पहुँचनेवाला (समासात में )। भाव सो करो तो उदास भाउ प्राननाथ, साथ ले चलो कैसे प्राप्त-वि० [स०] १ लब्ध । प्रस्थापित । २ उत्पन्न । ३. समुन लोक लाज बहिनो-पोद्दार भभि० ग्र, पृ० ४५८ । पस्थित । उ०-भरत, अपराधी भरत, है प्राप्त । साकेत, प्रानपियाराल-वि० [सं० प्राणप्रिया] दे० 'प्राणप्यारा' । उ०- पृ० १८६। ४ पाया हुमा । जो मिला हो। ५ सहा हुआ। प्रानपियारो चल्यो जब ते, तब कछु और ही रीति निहारी । भोगा हुमा (को०)। ६ पूर्ण किया हुमा (को०) । ७. उचित । पीरी जनावति मगन मैं, कहि पीर जनावत काहे न ठीक (को०)। प्यारी ।-मति०प्र०, पृ० २६५ ॥ प्राप्तकारी-वि० [सं० प्राप्तकारिन् ] उचित कार्य करनेवाला [को०] । प्रानप्रिया-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० प्राणप्रिया] मत्यत प्यारी । प्राणप्यारी। प्राप्तकाल'-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ कोई काम करने योग्य समय । २ ७०-प्रानप्रिया फेहि हेतु रिसानी।-मानस, १२५ । उपयुक्त काल । उचित समय । ३ मरण योग्य काल । प्रानराम-सचा पुं० [सं० प्राण + राम ] प्राण । उ०—प्रानराम ४ वर्तमान समय । वह समय जो चल रहा हो । उ०-- जब निकसन लागे उलट गई दूनो नैन पुतरिया । कबीर अतीत काल की वस्तुओं और व्यक्तियो के प्रति जो हमारा श, भा० १, पृ०३ । रागात्मक भाव होता है, वह प्राप्तकाल की वस्तुमों पौर