पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५२७

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माशिबाहरण ३२३६ प्रासुक प्राशिबाहरण नामक यज्ञपात्र मे रखा जाता है । यह भाग जो जिसमें अनेक शृग, शृखला, अडका दि हों तथा अनेक द्वारों या पीपल के गोदे बरावर निकाला जाता भौर प्राय नोक और गवाक्षो से युवत त्रिकोण, चतुष्कोण, प्रायत, वृत्त की पोर से काटा जाता है। २ दे० 'प्राशिकाहरण'। ३ शालाएँ हों। खाद्य पदार्थ । खाने योग्य कोई वस्तु (को॰) । विशेप-प्राकृति के भेद से पुराणों में प्रासाद के पाँच भेद दिए प्राशित्राहरण- सज्ञा पु० [ म०] यज्ञ के एक पात्र का नाम । गए हैं-चतुरस्र, चतुरायत, वृत्त, पृत्ताय और अष्टास्त्र । विशेष—यह पात्र गोवर्ण के धाकार का होता है और इसी में इनका नाम क्रम से वैराज, पुष्पक, कैलास, मालक और प्राशिव रखा जाता है। त्रिविष्टप है। भूमि, अडक, शिखरादि की न्यूनाधिकता के प्राशी-वि० [सं० प्राशिन् ] [वि॰ स्त्री० प्राशिनी ] प्राशन करने कारण इन पांचो के नौ नौ भेद माने गए हैं । जैसे, वैराज के वाला । खानेवाला । भक्षक । मेरु, मदर, विमान, भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचक, नदन, नदिवर्धन प्राशु'-वि० [सं०] त्वरित । शीघ्र । तुरत । और श्रीवत्स, पूष्पक के वलभी, गृहराज, शालागृह, मदिर, प्राशु-सहा पुं० १ खाना । भक्षण। भोजन । १ वह जो सोम विमान, ग्रहमदिर, भवन, उत्तभ और शिविकावैश्म, कैलास खाता है। ३ वृत्रासुर का एक शत्रु [को०] । के वलय, दृ दुमि, पद्म, महापद्म, भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचफ, नदन, गुवाक्ष या गुवावृत्त, मालव के गज, वृषभ, हस, गरुड़, प्राश्निक-वि० [सं०] १ सभ्य | सभा की कार्रवाई करनेवाला। २ प्रश्नकर्ता । पूछनेवाला । ३ परीक्षक । ४ निर्णयकर्ता। सिंह, भूमुख, भूवर, श्रीजय और पृथिवीधर, और त्रिविष्टप निर्णायक (को०)। के वज, चक्र, मुष्टिक या वज्र, वक्र, स्वस्तिक, खड्ग, गदा, प्राश्नीपुत्र-सज्ञा पुं॰ [ स०] एक ऋषि का नाम । श्रीवृक्ष और विजय । पुराणों में केवल राजाओ और देवताओं के गृह को प्रासाद कहा है। प्राश्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ अर्कप्रकाश के अनुसार वे पशु जो गांव में रहते हैं। जैसे, गाय, बकरी, भेडा मादि । २ प्राशन करने २ बहुत वडा मकान । महल । उ०-वे प्रासाद रहे न रहें, पर, योग्य पदार्थ । अमर तुम्हारा यह साकेत ।--साकेत, पृ० ३७१ । ३ महल की प्रासग-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० प्रासङ्ग] १ हल का जुमा या जुप्राठा जिसमें चोटी । ४. कोठे के ऊपर की छत । ५ वौद्धों के सघाराम मे नए बैल निकाले जाते हैं। २ तराजू । तुला । २. तराजू वह वही शाला जिसमें साधु लोग एकत्र होते हैं । ६ मदिर । की डही। देवालय (को०)। ७ दर्शको के लिये बना हुमा स्थान (को॰) । प्रासंगिक'-वि० [सं० प्रासनिक ] १ प्रसग सबंधी। प्रसग का । प्रासादकुक्कुट-सज्ञा पुं॰ [म०] कबूतर । २ प्रसग द्वारा प्राप्त । प्रसगागत । प्रासाद्गर्भ-सक्षा पुं० [स०] महल का भीतरी भाग को०] । प्रासगिक-सज्ञा पुं० कथावस्तु के दो भेदों में से एक। गौण कथा प्रासादप्रतिष्ठा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] मदिर में मूर्ति की स्थापना [को०] । वस्तु । विशेष-इससे अधिकारिक या मूल कथावस्तु का सौंदर्य बढता प्रासादमडना-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रासादमण्डना] प्राचीन काल का है और मूल कार्य या व्यापार के विकास में सहायता मिलती एक प्रकार का रंग जिससे प्रासाद के ऊपर रंगाई होती थी। है। इसके दो भेद कहे गए हैं-पताका और प्रकरी । विशेष-यह पोला या लाल होता था और इसकी रंगाई बहुत दिनों तक टिकती थी। प्रासग्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं० प्रासमय ]जुप्रा वहन करनेवाला [को०] । प्रास-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ प्राचीन काल का एक प्रकार का माला । प्रासादशायी-वि० [म० प्रासादशायिन् ] महल मे सोनेवाला को०] । बरछी । भाला । वर्षास्त्र। प्रसादशिखर-सचा पुं० [सं०] दे॰ 'प्रामादशृग' । विशेप-इसमें सात हाथ लंबी वास की छड लगती है पौर प्रासादशृग-सचा पुं० [स० प्रासादशृङ्ग] महल या मदिर का दूसरी नोक पर लोहे का नुकीला फल रहता है । इसका फल सर्वोच्च स्थान । चोटी [०५] । बहुत तेज होता है जिसपर स्तवक चढ़ा रहता है। इसे प्रासादिक-वि० [सं०] १ दयालु । कृपालु । २. सुदर । अच्छा। स्त्रि भी कहते हैं। ३ जो प्रसाद मे दिया जाय। ४. प्रसाद सबधी। ५ प्रसाद २ फेंकना। प्रक्षेपण (को०) । ३. अनुप्रास (को०) । गुण सवधी । प्रसाद गुण का । उ०-काम्य का जो प्रासादिक प्रासक-सज्ञा ० [सं०] १. प्रास नामक अस्त्र । २ पाशक । रूप, दिखाया तुमने मनोभिराम। कहाँ से लाकर भरी अनूप, छटा उसमें स्वर्गीय ललाम ।-सागरिका, पृ०५७ । प्रासन'- सझा पुं० [सं०] फेंकना । प्रासादीय-वि० [सं०] प्रासाद सबधी । प्रासाद का । प्रासन-सक पुं० [स० प्राशन ] दे० 'प्राशन'। प्रासिक-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] वह जिसके पास प्रास हो। प्रासघारी । प्रासहा-सदा स्त्री० [स०] इंद्र की पत्नी का नाम [को०] । वरची बरदार। प्रासाद-सज्ञा पुं० [सं०] १ प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार लवा, प्रासु-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं०] दीर्घश्वास । गहरी सांस । चौटा, ऊंचा और कई भूमियों का पक्का या पत्थर का घर प्रासुक-वि० [सं० प्रांशु या प्रार] १. प्रचुर । अधिक । विशेष । पांसा।