३२४० प्रोतिमान के काम में सहायता देनेवाले कुछ चुने हुए लोगो का वर्ग । चित चिता परि लहिए । सो तिय प्रोतमगवनी कहिए।- २ इंगलैंड में वहां के राजा को परामर्श देनेवालो का वर्ग नंद०प्र०, पृ०१५८ । या परिषद् । प्रीतमा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० प्रियतमा ] प्रेमिका । प्रियतमा। उ०- विशेप~-इसका सगठन १५ वी शताब्दी में हुमा था। इस वर्ष में या मानस भएउ प्रीतमा ठाऊँ । भूलि गएउ सुमिरन पो नाऊँ । तो कुछ पुराने पदाधिकारी और या राजा के सुने हुए कुछ -इद्रा०, पृ० १६३ । लोग रहते हैं । अाजकल इसमें राजकुल से सवष रखनेवाले प्रीतात्मा-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रीतास्मन् ] शिव का एक नाम । लोग, बडे बडे सरकारी कर्मचारी रईस पोर पादरी मादि प्रीति-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं०] १ वह सुख जो किसी इष्ट वस्तु को समिलित हैं, जिनकी सख्या २०० से ऊपर है । इस वर्ग के दो देखने या पाने से होता है। तृप्ति । २ हपं । मानद । प्रस- विभाग है। एक विभाग शासनकायं मे राजा को परामर्श नता । ३ प्रेम। स्नेह । प्यार । मुहन्वत । ४ मध्यम स्वर देता है जिनके नाम के साथ राइट पानरेवुल की उपाधि की चार श्रुतियो मे से अतिम श्रुति । ५ काम की एक रहती है, पौर दूसरे विभाग मे न्याय विभाग के सर्वप्रधान पत्नी का नाम जो रति की सौत थी। कर्मचारी होते हैं। कौंसिल का यह दूसरा विभाग अपील के काम के लिये अंगरेजी राज्य भर मे मतिम न्यायालय है विशेष-कहते हैं कि किसी समय अनगवती नाम की एक वेश्या और यही मतिम निर्णय होता है। शासन कार्यों मे अब यो जो माघ मे विभूतिद्वादशी का विधिपूर्वक व्रत करने के प्रिवी कौंसिल का विशेष महत्व नही रह गया और उसका कारण दूसरे जन्म में कामदेव की पत्नी हो गई थी। मत्स्य स्थान प्राय मत्रिम हल ने ले लिया है। पुराण में इसका भाख्यान है। ६ फलित ज्योतिष के २७ योगो मे से दुसरा योग । श्री'-तशा स्त्री० [स०] १ प्रोति । प्रेम । २ काति । चमक । ३ विशेष- इस योग मे सव शुभ कर्म किए जाते हैं । इस योग मे इच्छा । ४ तृप्ति । ५ तर्पण। जन्म ग्रहण करने से मनुष्य नीरोग, सुखी, विद्वान् श्रीर प्री-सञ्चा पु० [सं० प्रिय ] दे० 'प्रियतम' । उ०-वलि माल- धनवान होता है। वणी वीनवइ, हु प्री दासी तुझ्झ । का चिंता चित म तरे ७ कृपा । दया (को०)। ८ अभिलाषा। माकांक्षा। वाच्छा। सा प्री दाखठ मुझझ । - ढोला०, दू० २३६ । (को०)। अनुकूलता। सक्ष्य । हितबुद्धि (को०)। १० प्रोअंक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रियक ] कदव । कदम । (मनेकार्य)। मनुरजन । प्रसायन (को०)।, प्री-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रिय ] प्रियतम । प्यारा । उ०-वावहिया प्रीतिकर-वि० [सं०] प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। प्रेमजनक । निलपखिया वाढत दइ दइ लुण । प्रिउ मेरा मई प्रोउ को तू प्रातिकर्म सञ्चा पुं० [सं० प्रीतिकर्मन् ] मैत्री भयवा प्रेम का कार्य । प्रिउ कहइ स कूण।-ढोला०, दू०३३ । कृपापूर्ण कार्य। प्रीछित-सचा पुं० [सं० परीक्षित ] दे० 'परीक्षित'। प्रीतिकारक-वि० [सं०] दे० 'प्रीतिकर' । प्रीण-वि० [स०] १. पुराना । २. पहले का । पूर्ववर्ती । ३. जो प्रीतिकारी-वि० [सं० प्रोतिकारिन् ] दे॰ प्रोतिकर' । प्रसन्न हो । प्रीतियुक्त । प्रीतिजुषा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] मनिरुद्घ की पत्नी उषा का नाम । प्रीणन-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ प्रसन्न करना । २ वह जो सतोष दे प्रोतितृट-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० प्रीतितृप् ] कामदेव का एक नाम (को॰] । या प्रसन्न करे [को॰] । प्रीतिद-सञ्चा पुं० [स०] विदूषक । भाड । प्रीणस-सपा पुं० [सं०] गैडा । खङ्गी को०] । प्रीतिदर-वि० सुख या प्रेम उत्पन्न करनेवाला। प्रीणित-वि० [०] प्रसन्न । हर्षयुक्त (को०] । प्रीतिदत्त-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] १. प्रेमपूर्वक दिया हुप्रा दान । २ प्रीत-वि० [स०] प्रीतियुक्त । प्रसन्न । हर्षित । तुष्ट । वह पदार्थ जो सास अथवा ससुर अपने पुत्र या पुत्रवधू को, प्रोत-~सञ्चा पु० [ स० प्रीति ] दे॰ 'प्रीति'। उ०-कठिन पड़े सुख या पति अपनी पत्नी को भोग के लिये दे । दुख सहै, प्रीत निभावै ओर।-घरम० श०, पु०७६ । प्रीतिदान-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] प्रेम या मैत्राविश दिया हुमा उपहार। प्रीतही-सचा खी० [हिं० प्रीa+डी (प्रत्य॰)] प्रीति । स्नेह । प्रमोपहार (को०)। उ०-परवा सौ प्रीतही सु दर सुमिरन सार । -सु दर० प्रीतिदाय-सञ्ज्ञा पुं० [स०] दे० 'प्रीतिदान। ग्र०, भा०२, पृ० ६७८ । प्रीतिपात्र--सञ्चा पुं० [सं०] जिसके साथ प्रीति की प्रीतम-शा पु० [सं० प्रियतम ] १. पति । भर्ता । स्वामी । उ० प्रेमभाजन । प्रेमी। ढाढी जइ प्रीतम मिलइ यू दाखविया जाइ।-ढोला०, प्रीतिभोज-सज्ञा पुं० [ सं०] वह भोज या खान पान 'जिसमें मित्र" दू० ११८ । २ वह जिससे प्रेम या स्नेह हो । प्वारा । उ०- मौर बंधु मावि प्रेमपूर्वक समिलित हों।। सुरत सज मिली जहां प्रीतम प्यारा।-तुरसी श०, पृ० २१ । प्रीतिमान्-वि० [सं० प्रीतिमत् ] १ प्रेम रखनेवाला। जिसमें प्रेम यौ०-प्रीतम गवनी= दे० 'प्रवत्स्यत्पतिका'। उ०—चित ही हो । २. प्रसन्न । हर्षित (को०) । ३ भनुकूल (को॰) । 1 जाय। 4
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५३१
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