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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५३६

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प्रेमोत्कर्ष प्रेमभाव ३२४५ प्रेमभाव-सञ्ज्ञा पुं० [स०] प्रेम का भाव । स्नेह । प्रेम (को०] । दूसरी काव्यपरपरा का अनुसरण करते हुए कथा को 'प्रेमा- प्रेमल--वि० [सं० प्रम+हिं० ल ( प्रत्य०)] प्रेमी स्वभाववाला। “ख्यानी रग (रोमैंटिक टनं) देने के लिये "धनुषयज्ञ के प्रसग स्नेही । सहृदय । उ०-इन स्वामी को कष्ट से मैं कैसे बचाऊँ में 'फुलवारी' के दृश्य का सनिवेश किया।'-माचार्य, इतने उदार, इतने निश्छल, इतने प्रेमल ।-सुखदा, पृ० ११३ । पृ० १११ । प्रेमलक्षणाभक्ति-मज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णव मतानुसार प्रेमपूर्वक प्रेमात्मक-वि० [सं० प्रम+श्रात्मक] प्रेम सबधी। प्रेम का। श्रीकृष्ण के चरणो की भक्ति करना। उ०-प्रमात्मक रहस्यवाद और विरह की उदात्त कल्पना सूफी सिद्धातो की देन है। हिंदी काव्य०, पृ० ८४। प्रमलेश्या-संज्ञा श्री० [सं०] जैनियो के अनुसार वह वृत्ति जिसके अनुसार मनुष्य विद्वान, दयालु, विवेकी होता और निस्वार्थ प्रेमानद-सञ्ज्ञा पुं० [स० प्रेम + श्रानन्द] प्रेम का आनद । प्रेम में भाव से प्रेम करता है। अनुभूत मानद । उ०-यद्यपि प्रेमदशा के भीतर सुखात्मक और दुखात्मक दोनो प्रकार Wता है, 'प्रेमापन्न' नहीं।-रस०, पृ०७४ । प्रेमवारि-सच्चा पु० [सं०] वह आंसू जो प्रेम के कारण निकले । प्रमानल-पक्ष पु० [स० प्रेम+अनल] प्रेम की भाग । प्रेमाग्नि । प्रेमाथ। उ०-तुझको न भले भाता हो प्रेमी का यह पागलपन । प्रेमविवल-वि० [म० प्रम+विह्वल ] प्रेम से व्याकुल । प्रेममय । उर उर में दहक रहा पर तेरे प्रेमानल का कण- उ०-भर अमृतधारा आज कर दो प्रेम विह्वल हृदयदल, मधुज्वाल, पृ०६१। अानद पुलकित हो सकल तव चूम कोमल चरणतल ।- प्रेमापन्न-वि० [सं० प्रेम+श्रापन्न प्रेम से पीड़ित । प्रेम में व्याकुल । अनामिका, पृ० ३३ । प्रेम की पीडा से दुखी। उ०—पर कान में प्रेमानद शब्द ही प्रेमांकुर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रेम+प्रकर ] प्रेम का अकुर । प्रेम का पड़ता है। प्रेमापन्न नहीं। इससे प्रेम मानद स्वरूप है यह सूत्रपात । प्रेम की प्रारभिक अवस्था। उ०-उगा रहा उर लोकधारणा प्रकट होती है, जो साहित्य मीमासको को भी में प्रेमाकुर । -गीतिका, पृ० १५। मान्य है।-रस०, पृ० ७४ । प्रेमांजली-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० प्रम + अञ्जलि ] प्रेम से जुड़े हुए हाथ, प्रेमालाप-सञ्चा पुं० [सं०] वह वातचीत जो प्रेमपूर्वक हो। परस्पर प्रेमभावपूर्ण मंजलि । उ०-अरावना, प्रार्थना, पूजा, प्रेमांजली, प्रेमी जनों की बातचीत । उ०-विहग युग्म हो विह्वल सुख विलाप, कलाप । 'तेरा' हूँ, तेरे चरणों में हूँ, पर कहाँ पसीजे से पाप । पखों से प्रिय पख मिला करते हैं प्रेमालाप ।- प्राप।-हिम०, पृ०५८ । युगवाणी, पृ० ७६ । प्रेमा-सञ्चा पु० [म० प्रेमन्] १. स्नेह । २ स्नेही । ३ वासव । इंद्र। प्रेमालिंगन-सञ्चा पु० [सं० प्रेम+ आलिङ्गन] १ प्रेमपूर्वक गले ४ वायु । ५ उपजाति वृत्त का ग्यारहवाँ भेद, जिसके पहले, लगाना। २ कामशास्त्र के अनुसार नायक और नायिका दूसरे और चौथे चरण में (ज त ज ग ग) | ISIS का एक विशेष प्रकार का आलिंगन । और तीसरे चरण में (त त ज ग ग) ississ होता है । प्रेमाभु-सञ्ज्ञा पुं० [स०] प्रेम के मासु । वे आँसू जो प्रेम के कारण प्रेमाक्षेप-पञ्ज्ञा पुं० [स०] केशव के अनुसार भाक्षेप अलंकार का एक आँखो से निकलते हैं। भेद जिसमे प्रेम का वर्णन करने में ही उसमें वाधा पड़ती दिखाई जाती है। जैसे, यदि नायक से नायिका यह कहे प्रेमास्पद-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रम+श्राम्पद ] प्रिय । प्रेमी । उ०- मधुर चाँदनी सी तंद्रा जब फैली मुछित मानस पर, तव कि 'हमारा मन तुम्हे कभी छोडने को नहीं चाहता। पर जब मभिन्न प्रेमास्पद उसमें अपना चित्र वना जाता।- तुम उठकर जाना चाहने हो, तब हमारा मन तुमसे भागे ही कामायनी, पृ० १८०। चल पडता है। तो यह प्रेमाक्षेप हुआ क्योकि इसमें पहमे तो यह कहा गया है कि हमारा मन तुम्हें कभी छोड़ने को नही प्रेमिक-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] वह जो प्रेम करता हो। प्रेम करने- चाहता, पर नायिका के इस कथन में उस समय वाघा पटती वाला । प्रेमी। है, जब वह यह कहती है कि 'जब तुम उठकर जाना चाहते प्रेमी'-सचा पुं० [ स० प्रमिन् ] १ वह जो प्रेम करता हो । प्रेम हो सब हमारा मन (तुमको छोडकर) तुमसे भागे ही चल करनेवाला। चाहनेवाला । अनुरागी । २. पाशिक । मासक्त । पडता है।' (कविप्रिया)। प्रेमी-वि० प्रेमपूर्ण । स्नेहपूर्ण को०] । प्रेमाख्यान, प्रेमाख्यानक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] सूफी कवियो की वह प्रेमोत्कर्ष-सञ्चा पुं० [सं० प्रम+ उत्कर्ष ] प्रेम की उच्चता। प्रेम काव्यमय रचना जिसमें नायक नायिका के प्रेम की कथा की प्रबलता । प्रेम का आधिक्य । उ०-उसी प्रकार वणित हो। उदारता, वीरता, त्याग, दया, प्रमोत्कर्ष इत्यादि को और प्रेमाख्यानी-वि० [स० प्रेमाख्यान + ई (प्रत्य॰)] प्रेमाश्यान से मनोवृत्तियों का सौदर्य भी मन में जगाती है ।-रस०, सबधित । प्रेमकथा सबंधी। उ०-गोस्वामी जी ने एक पृ० ३१ ।