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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५३५

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करना। -प्रेतोन्माद ३२४४ प्रेमभगति प्रेतोन्माद-मचा पु० [सं०] एक प्रकार का उन्माद या पागलपन अतिहि मानंद कद वानि हूँ सुनावै । सतगुरु जत्र दया जानि जिसके विषय में यह माना जाता है कि यह प्रेतो के कोप से प्रेम हूँ लगावै ।-गुलाल ०, पृ०, ३५ ॥ ६ कोडा। नम होता है। (को०)। ७. हपं । मानद (को०)। ८. विनोद (को०) । ६. विशेष - इस उन्माद मे रोगी का शरीर कापता है और उसका यायु । हवा (को०) । १० इद्र (को०) । साना पीना छूट जाता है । लबी लवी साँसें आती हैं, वह घर प्रेमका-सशा पुं० [सं०] प्रीति करनेवाला। प्रेमी। से निकल निकलकर भागता, है, लोगो को गालियां देता है प्रेमकलह-सज्ञा पुं० [सं०] प्रेम के कारण हँसी दिल्लगी या झगडा और बहुत चिल्लाता है। प्रेत्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] लोकातर । परलोक । अमुत्र। प्रेमगरबिता-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० प्रेम+ गर्विता] दे० 'प्रेमगर्विता'। उ.-निज नायक के प्रेम की गरव जनावै बाल । प्रेमगर- प्रत्यजाति-सच्चा श्री० [सं० ] दे० 'प्रत्यभाव' को०] । विता कहत हैं तासौं सुमति रसाल।-मति. ग्र०, प्रत्यभाव-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जन्म पृ० २६२। लेकर मरने और मरकर जन्म लेने की परपरा जो मुक्ति न प्रेमगर्विता-मा श्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका जो अपने होने के समय तक चलती है। बार वार जन्म लेना और पति के अनुराग का अहकार रखती हो। वह स्त्री जिसे इस मरना । (दर्शन)। बात का भभिमान हो कि मेरा पति मुझे बहुत चाहता है। प्रत्यभाविक-वि० [स०] प्रेत्यभाव या इहलोक सवधी। उ०-प्राखिन मैं पुतरी ह रहै हियरा में हरा है सबै रस प्रत्वा-सञ्ज्ञा पुं० [स० प्रेत्वन् ] १ वायु । २ इंद्र [को०] । लूट । मगन सग बसें मंगराग ह, जीव ते जीवनमूरि न प्रप्सा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ प्राप्त करने की इच्छा। २ इच्छा। हुदै । देव जू प्यारे के न्यारे मने गुन, मो मन मानिक ते नहिं कामना । ३ कल्पना । धारणा [को०] । टूट । और तियान ते तो वतियाँ कर, मो छतिया त छिनो प्रेप्सु-वि० [सं०] १ प्राप्त करने का इच्छुक । २. अनुमान करनेवाला । जनि छूटे।-देव (शब्द०)। धारणा करनेवाला । ३. देने का इच्छुक [को०] । प्रेमजल-सश पुं० [सं०] १ प्रस्वेद । पसीना । २ प्रेम के कारण प्रेम-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ वह मनोवृत्ति जिसके अनुसार किसी वस्तु या पाँखो से निकलनेवाले पांसू । प्रेमाथु । व्यक्ति मादि के सबध में यह इच्छा होती है कि वह सदा प्रेमजा-सा मी० [सं०] मरीचि ऋपि की पत्नी का नाम । हमारे पास या हमारे साथ रहे, उसकी वृद्धि, उन्नति या प्रेम-सशा पु० [सं० प्रिय+मद ] प्रेम का नशा । प्रेममद । हित हो अथवा हम उसका भोग करें। वह भाव जिसके उ०-कहवा मृग नेनी वह वाला। प्रेमद दीन्ह कीन्ह मत- मनुसार किसी दृष्टि से अच्छी जान पहनेवाली किसी चीज या वाला।-इद्रा०, पृ० ११ । व्यक्ति को देखने, पाने, भोगने, अपने पास रखने अथवा रक्षित प्रेमनीर-मश पुं० [सं०] प्रेम के कारण पाखो से निकलनेवाले करने की इच्छा हो । स्नेह । मुहब्बत । अनुराग । प्रोति । आँसू । प्रेमाश्र। विशेष-परम शुद्ध और विस्तृत अर्थ मे प्रेम ईश्वर का ही एक प्रेमपातन-सशा पुं० [सं०] १ प्रेम के भावेग में रोना। २ वह रूप माना जाता है । इस लिये अधिकाश धर्मों के अनुसार प्रेम मास जो प्रेम के कारण मांखों से निकले। ३ नेत्र जिससे ही ईश्वर अथवा परम धर्म कहा गया है । हमारे यहां शास्त्रो अथ गिरें (को०)। में प्रेम अनिवर्चनीय कहा गया है और उसे भक्ति का दूसरा प्रेमपान-सभा पुं० [सं०] वह जिससे प्रेम किया जाय । माशूक । रूप और मोक्षप्राप्ति का साधन बतलाया है। मुमुक्षुप्रो के प्रेमपाश-सज्ञा पुं॰ [सं०] प्रेम का फंदा या जाल । लिये शुद्ध प्रेममाव का ही विधान है। शास्त्रो में, और प्रेमपुत्तलिका-सशा स्त्री० [सं०] १ प्यारी स्त्री। २ पत्नी । भार्या । विशेषत वैष्णव साहित्य में, इस प्रेम के अनेक भेद किए गए हैं। साहित्य में प्रेम, रति या प्रीति के तीन प्रकार माने गए प्रेमपुलक-सज्ञा सी० [सं०] वह रोमाच जो प्रेम के कारण होता है। हैं-(१) उत्तम, वह जिसमें प्रेम सदा एक सा बना रहे। जैसे, ईश्वर के प्रति भक्त का प्रेम । (२) मध्यम, जो प्रकारण प्रेमप्रत्यय-सचा पुं० [सं०] वीणा मादि के शब्दो से जिनसे राग हो । जैसे, मित्रों का प्रेम और (३) अधम, जो केवल स्वार्थ रागिनी निकलती हैं, प्रेम करना । (जैन)। के कारण हो। प्रेमबध, प्रेमबंधन-सज्ञा पुं० [स० प्रमवन्ध, प्रमयन्धन ] प्रेम २ स्त्री जाति और पुरुष जाति के ऐसे जीवो का, पारस्परिक प्रथवा स्नेह का बंधन [को॰] । स्नेह जो बहुधा रूप, गुण, स्वभाव, सान्निध्य मथवा काम प्रेमभक्ति-पञ्चा खी० [स०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण की वह भक्ति वासना के कारण होता है । प्यार । मुहब्बत । प्रीति । जैसे जो वहुत प्रेम के साथ की जाय । (क) वे अपनी स्त्री से मधिक प्रेम करते हैं। (ख) उस विधवा प्रेमभगति-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० प्रेम+हिं भगति<सं० भक्ति ] दे० फा एक नौकर के साथ प्रम था। -३ केशव के मनुसार एक 'प्रेमभक्ति' व०-प्रमभगति जल बिनु रघुराई।-मानस, अलकार । ४. माया और लोभ । ५. कृपा। दया। उ०- ७/४६।