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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/७७

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समान। पतठड़ २७५६ पतनी वान बेग ही उडाने जातुधान जात, सूखि गए गात हैं पतउमा पतत्-वि० [सं०] १. गिरता हुा । उतरता हुआ। नीचे को भए वाय के ।—तुलसी (शब्द॰) । जाता या भाता हुमा। २ उहता हुआ। पतउड़-सज्ञा पुं[ स० पति + उडु] चद्रमा ।-(हिं०) । पतत्-सच्चा पु० पक्षी। चिडिया । पतखोपन-सज्ञा पुं० [हिं० पत+खोवन ( = खोनेवाला) ] वह जो पतत्पतंग-सचा पुं० [सं० पतत्पतङ्ग ] इवता हुमा सूर्य । वह सूर्य अपने या अन्य के मान सभ्रम की रक्षा न कर सके। वह जो जो अस्त हो रहा हो। प्राय ऐसे कार्य करता फिरे जिससे अपनी या दूसरे की यौ०-पतत्पतगप्रतिम = नीचे की ओर गिरते हुए सूर्य के वेइज्जती हो। पतग-सशा पु० [स०] पक्षी। चिडिया। पखेरू । उ०-द्विज, सकुत, पतत्प्रकर्प-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] काव्य मे एक प्रकार का रसदोप। पक्षी, शकुनि, अडज, विहग, विहग । वियग, पतत्री, पत्ररथ, पतत्र-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ पक्ष । पख । डेना । २ पर। ३. पत्री, पतग, पतग। नद० ग्र०, पृ०१०१। वाहन । सवारी। पतगेंद्र-सज्ञा पुं॰ [सं० पतगेन्द्र ] पक्षिराज । गरुह । पतत्रि-सशा पुं० [सं०] पक्षी । चिहिया। पतचौली-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार का पौधा । पतत्रिकेतन-संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु । पतजिवा-सञ्चा पुं० [देश॰] जिया पोता । पुत्रजीवक । पत्रिराज-सञ्ज्ञा पु० [सं०] गरुड । पक्षिराज [को०] । पतझड़-सञ्ज्ञा सी० [हिं० पत ( पत्ता ) + झड़ना] १ वह ऋतु पतत्री-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पतन्निन् ] पक्षी। उ०-वियग (= विहग) जिसमे पेड़ों की पत्तियाँ झड जाती हैं। शिशिर ऋतु । माघ पतत्री पत्ररथ पत्री पतग पतग । -अनेकार्य०, पृ० २५ । और फाल्गुन के महीने । कुभ और मीन की सक्रातियां । २ वाण । तीर (को०) । ३ अश्व (को॰) । विशेष-इस ऋतु मे हवा अत्यत रूखी और सर्राटे की हो जाती पतगह-सज्ञा पुं० [सं०] १ प्रतिग्राह। पीकदान । २ वह है, जिससे वस्तुप्रो के रस और स्निग्धता का शोषण होता है कमडलु जिसमे भिक्षुक भिक्षान्न लेते हैं । भिक्षापात्र । कासा । और वे अत्यत रूखी हो जाती हैं। वृक्षों की पत्तियां रूक्षता पवद्भीरु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] वाज पक्षी । श्येन । के कारण सूखकर झड जाती हैं और वे ठूठे हो जाते हैं। पतन्-सञ्ज्ञा पुं० [स०] पक्षी । चिडिया। सृष्टि का सौंदर्य और शोभा इस ऋतु में बहुत घट जाती हैं, पतन'–सशा पुं॰ [ स०] १ गिरने या नीचे पाने की क्रिया या वह वैभवहीन हो जाती है । इसी से कवियो को यह अप्रिय है। भाव । गिरना। २. नीचे जाने, घेसने या बैठने की क्रिया या वैद्यक के मतानुसार इस ऋतु मे कफ का सचय होता है और भाव । वैठना या इवना। ३. अवनति । अधोगति । जवाल । पाचकाग्नि प्रवल रहती है जिससे स्निग्ध और भारी आहार तवाही। जैसे,-दुष्टो की सगति करने से पतन अनिवार्य हो इसमे सरलता से पचता है और पथ्य है। हलके, वातवर्धक और तरल भोजनद्रव्य इसमें अपथ्य हैं। जाता है । ४ नाश । मृत्यु । जैसे,—अमुक युद्ध मे कुल दो लाख सैनिकों का पतन हुधा । ५ पाप । पातक । ६. जातिच्युति । सुश्रुत के मत से माघ और फाल्गुन ही पतझड के महीने हैं, पर पातित्य । जाति से बहिष्कृत होना । ७. उडने की क्रिया या अन्य अनेक वैद्यक ग्रथो ने पूस और माघ को पतझड माना भाव । उडान । उडना । ८ किसी नक्षत्र का प्रक्षाश । है। वैद्यक के अतिरिक्त सवत्र माघ और फाल्गुन ही पतझट पतन-वि० १. गिरता हुआ या गिरनेवाला । २. उहता हुआ या माने गए हैं। उडनेवाला। २ अवनतिकाल । खरावी और तवाही का समय । वैभवहीनता पतनधर्मी–वि० [सं० पतनर्मिन् ] गिरने के स्वभाववाला। या कगाली का समय । नश्वर [को॰] । पतमर-मशा सी० [हिं०] दे० 'पतझड' । पतनशील-वि० [सं०] जिसका पतन निश्चित हो। जो विना पतमला-सज्ञा सी० [हिं०] दे० 'पतझड' । गिरे न रह सके। गिरनेवाला । पतझाड़-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पतझड़ ] दे॰ 'पतझड' । उ०—पतझाष्ट पतना-सञ्ज्ञा पुं० [ देश० ] योनि का तट भाग। योनि का किनारा। के पीछे नवल दल यथा देत वसत है।-प्रेमघन॰, भा०१, पतनारा-सशा पुं० [हिं०] परनाला । नावदान । मोरी। पृ० १२२। पतनाला-सञ्ज्ञा पुं० [ हि ] दे० 'पतनारा'। उ०-झर लगता था पतमारा-सज्ञा सी० [हिं० पतझड़ ] दे० 'पतझड' । उ०-ससार और वही पर बूदें नाचा करती थी। वाजे से वजते पत- वाटिका मे जो बहार और पतझार के अनुसार नाना प्रसूनो नाले, सडक लबालब भरती थी।-मिट्टी०, पृ०६८ । के प्रस्फुटित और रहित होने के कारण शोभा का प्रकाश और पतनी–यचा स्त्री० [सं० पत्नी ] दे० 'पत्नी' । उ०—गुरु पतनी ह्रास होता है।-प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० ४६८ । पठए तव कानन।-नद० ग्र०, पृ०२१४ । पतड़ो-सज्ञा पुं० [सं० पत्र, हिं० पत्रा] पत्रा। पर्चाग । उ० पतनी-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] वह आदमी जो घाट पर की नाव इस पार पाड्या तोहि बोलावइ हो राय, ले पतडो जोसी वेगो तु से उस पार ले जाता और उस पार से इस पार ले पाता हो। प्राइ।बी० रासो०, पृ०६। घाट पर से पार उतारनेवाला घटहा या माझी । (लश०) । .