पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/९१

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पथचारी २८८० पथिकाश्रय पथचारी-ग्ला पु० [ स० पथचारिन् ] रास्ता चलनेवाला । विशेष-ये टुकडे मूत्रोत्सर्ग मे बाधक होते हैं जिसके कारण पथत्-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] मार्ग । पथ । रास्ता [को॰] । बहुत पीडा होती है और मूद्रिय में कभी कभी घाव भी हो पथदर्शक-सञ्ज्ञा पु० [स०] राह दिखानेवाला। रास्ता बतलाने जाता है । मूत्राशय के अतिरिक्त यह रोग कभी कभी गले, फेफडे और गुरदे में भी होता है। वाला । उ०-जग के अनादि पथदर्शक वे, मानव पर उनकी लगी दृष्टि । -युगात, पृ० १३ । ३ चकमक पत्थर जिसपर चोट पडने से तुरत आग निकल माती है। ४ पत्थर का वह टुकहा जिसपर रगडकर पथनारी-सश स्पी० [हिं० पाथना ] १ गोबर के उपले बनाना उस्तरे आदि की धार तेज करते हैं। सिल्ली। ५ कुरड या थापना । पाथना । २ पीटने या मारने की क्रिया । पत्थर जिसके चूर्ण को लाख अादि मे मिलाकर औजार पथप्रदर्शक-सञ्ज्ञा पु० [ स० ] मार्गदर्शक । रास्ता दिखानेवाला । तेज करने की मान बनाते हैं। ६ पक्षियो के पेट का वह पथभ्रात-वि० [सं० पथभ्रान्त ] राह से भटका हुआ। भूला हुा । पिछला भाग जिसमे अनाज आदि के बहुत कडे दाने जा उ०-ऐसी स्थिति मे उसकी प्रवृत्ति कुछ तो पीछे की ओर कर पचते हैं। पेट का यह भाग बहुत ही कडा होता है। मुडने की हुई और कुछ पथभ्रात होने की।-हिं० का० प्र०, ७ एक प्रकार की मछली। ८ जायफल की जाति का पृ० ३२। एक वृक्ष। पथरी-मञ्ज्ञा पु० [ म० प्रस्तर हि पत्थर, पाथर ] पत्थर । पाषाण । विशेष—यह वृक्ष कोकण और उसके दक्षिण प्रात के जगलों में उ०--धरम दास के साहेब कबीरा, पथर पूजे तो पूजन दे । होता है । इस वृक्ष की लकडी साधारण कडी होती है और -घरम०, पृ०६८। इमारत बनाने के काम मे पाती है। इसमे जायफल से मिलते पथरकट-वि० [हिं० पत्थर + काटना] पत्थर काटने का काम जुलते फल लगते हैं जिन्हे उवालने या पेरने से पीले रग का करनेवाला। उ०—कनेत का चस्मा गढ़े पत्थर का बंधा तेल निकलता है। यह तेल प्रौपध के मे भी प्राता है हुआ कुडला है, उससे नातिदूर लोहार का चस्मा भी कुछ और जलाने के काम मे भी। उसी तरह का है, इसमे लोहार का पथरकट होना भी सहा- पथरोला-वि० [हिं० पत्थर + ईला (प्रत्य॰)] [वि॰ स्त्री० यक हुा ।-किन्नर०, पृ० ४७ । पथरीली ] पत्थरो से युक्त । जिसमे पत्थर हों। जैसे, पथरकला-सशा पु० [हिं० पत्थर या पथरी+कल ] एक प्रकार पथरीली जमीन । की वदूक या कहावीन जो चकमक पत्थर के द्वारा अग्नि पथरोटा-सच्चा पु० [हिं पत्थर + श्रौटा ( प्रत्य॰)] दे० 'पथ- उत्पन्न करके चलाई जाती थी। वह बदूक जिसकी कल वा रोटी'। घोडे मे पथरी लगी रहती हो। इस प्रकार की बदूक का पथरौटी-सज्ञा स्त्री॰ हिं० पत्थर + श्रौटी (प्रत्य० ) ] पत्थर की व्यवहार पहले होता था। कटोरी। पथरी । कूडी। पथरचटा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पत्थर+चाटना] १ पाषाणभेद या पथरौदा-सपा पुं० [हिं० पाथना ] दे० 'पथौरा'। पखानभेद नाम की प्रोपधि । २. एक प्रकार की छोटी मछली पथल-सया पुं० [हिं० पत्थर, पथर] पत्थर । पाथर । पाषाण । जो भारत और लका की नदियो मे पाई जाती है। इसकी लवाई प्राय एक वालिश्त होती है। उ.-महल के बीच प्रजव मूरति पथल पूजे सेमर सुमा।- सं० दरिया, पृ. ६६ । पथरना'-क्रि० स० [ हिं पत्थर+ना ( प्रत्य० ) ] अौजारो को पत्थर पर रगडकर तेज करना । पथसु दर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पथसुन्दर ] एक क्षुप । पथरना-मज्ञा पुं॰ [ देश० या मु० प्रस्तरण] विछौना। शय्या । पथस्थ-वि० [ स०] राह मे । मार्गस्थ । उ०-अवर वोढ़न भूमि पथरना । समुझि देखि निश्च करि पथहारा-वि० [हिं० पथ + हारना ( = खोना)] भूला भटका । पथ- मरना ।—सु दर ग्र०, भा०१, पृ० ३३५ । भ्रष्ट । जिसका सही पथ छूट गया हो। उ०—सबसे ऊपर पथराना-क्रि० अ० [हिं० पत्थर से नामिक धातु ] १ सूखकर निर्जन नभ में अपलक सध्या तारा, नीरव औ नि सग, खोजता पत्थर की तरह कडा हो जाना। २ ताजगी न रहना । सा कुछ, चिर पथहारा।-ग्राम्या, पृ०७२ । नीरस और कठोर हो जाना। ३ स्तब्ध हो जाना। सजीव पथिक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] मार्ग चलनेवाला । यात्री। मुसाफिर । न रहना । जैसे, आँखें पथराना। राहगीर। पथराव-सज्ञा पु० [हिं० पथर + याव (त्य०) ] पत्थर के टुकडे, यौ०-पथिकसतति, पथिकसहति, पथिकसार्थ = कारवाँ। ढेला प्रादि का फेंकना । ढेलवाही । पत्थरबाजी। काफिला । सार्थ । यात्रीदल । पथरी-मज्ञा स्त्री॰ [ हि० पत्थर+ई (प्रत्य॰)] १ कटोरे या कटोरी पथिका-सज्ञा स्त्री० [ स०] १ मुनक्का। २ अगूर की मदिरा । के प्राकार का पत्थर का बना हुपा कोई पात्र। २ एक एक प्रकार की अगूरी मदिरा (को॰) । प्रकार पा रोग जिसमें मूत्राशय में पत्थर के छोटे वडे कई पथिकाश्रय-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] पथिकों के रहने का स्थान । धर्म- टुकडे उत्पन्न हो जाते हैं। शाला । चट्टी।