पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१०३

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धकाथा ३६४२ पंकुर देना । वुलाना । फुरसी प्रादि वनाई जाती है । इसपर बारनिश और बकुचना@-क्रि० अ० [हिं० बकुचा<स० विकुञ्चन ] सिमटना । रंग अच्छा खिलता है। लकड़ो नीम की तरह कड़, ई होती सुकड़ना । संकुचित होना । उ०-लाज के भार लची तरुनी है। इससे उसमे दीमक घुन आदि नही लगते । वैद्यक में इसे वकुची बहनी सकुचो सतरानी। -देव (शब्द॰) । कफ, पित्त और कृमि का नाशक लिखा है और वमन आदि बकुचा-माझा पु० [हिं० दकुचना ] [ स्त्री० बकुची ] छोटी गठरी। को दूर करनेवाला तथा रक्तशोधक माना है। इसके फूल, वकचा । उ०—(क) फमरी थोरे दाम की मावै वहुतै काम । फल, छाल पोर पत्तियां प्रौपष के काम प्राती है। बीजों खासा मखमल बाफता उनकर राख मान । उनकर राखे का तेल मलहम में पड़ता है। इसके पेड़ समस्त भारत में मान बुद जंह प्राढ़े पावै । बकुचा बधि मोट राति को झारि और पहाड़ों के ऊपर तक होते हैं । यह बीज से उगता है । विछावै ।-गिरधरराय (शब्द॰) । बकाया-संज्ञा पुं० [अ० बकायह ] १. बचा हुप्रा । चाकी । शेष । बकुचाना-क्रि० स० [हिं० बकुचा+ना (प्रत्य॰)] किसी वस्तु २.बचत। को बकुचे में बांधकर कधे पर लटकाना या पीछे पीठ पर बांधना। वकार' --मज्ञा पुं० [अ० वकार ] अक्ष । धुरी । केंद्र । उ०-अगर पाप हिंदू जजवात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह बकुची'---सज्ञा स्त्री॰ [ स० वाकुची ] औषध के काम में प्रयुक्त कुरबानी करें तो यकीनन इसलाम के बकार में फर्क न होनेवाले एक पौधे का नाम । धाएगा।-काया०, पृ० ४७ । पर्या०- सोमराजी । कृष्णफल । वाकुची । पूतिफला ! वेजानी । वकारी-सझ पु० [हिं० बकारी ) वकारी । प्रावाज । शब्द । कालमेपिका । श्रवल्गुजा । ऐंदवी । शूलोत्या। कांवोजी । वकारना@-क्रि० स० [हिं० वकार+ना (प्रत्य॰)] भावाज सुपर्णिका। विशेष--यह पौधा हाथ, सदा हाथ ऊंचा होता है। इसकी बकारि-तज्ञा पुं० [म. वकारि ] १. बकासुर को मारनेवाले, पत्तियां एक अगुल चौडी होती हैं और डालियां पृथ्वी से श्रीकृष्ण । २. भीमपेन । अधिक ऊँची नही होती तथा इधर उर दूर तक फैलती हैं। धकारी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० 'व' कार या वाक्य ] वह शब्द जो मुंह इसका फूल गुलावी रग का होता है। फूलों के झड़ने पर छोटी छोटी फलियाँ घोद मे लगती हैं जिनमें दो से चार तक से प्रस्फुटित हो । मुह से निकलनेवाला शब्द । गोल गोल चौड़े और कुछ लबाई लिए दाने निकलते हैं । क्रि० प्र०-निकलना। दानों का छिलका काले रंग का, मोटा और ऊपर से खुरदरा मुहा०- वकारी फूटना = मुह से शब्द वा दो का उच्चारण होता है । छिलके के भीतर सफेद रंग की दो दालें होती हैं होना । शब्द निकलना। बात निकलना । जो बहुत कड़ी होती हैं और बड़ी कठिनाई से टूटती हैं । वीज बकावर, बकावरि-सज्ञा सी० [हिं० ] दे० 'गुलबकावली'। से एक प्रकार की सुगंध भी पाती है। यह औषध में काम उ०-तुम जो बकावरि तुम्ह सों भर ना। वकुचन गहै चहै प्राता है। वैद्यक मे इसका स्वाद मीठापन और चरपरापन जो करना ।—जायसी (शब्द॰) । लिए कड़वा बताया गया है और इसे ठंडा, रुचिकर, बकावलि-संचा मी० [ स० ] वफपंक्ति । सारक, त्रिदोषघ्न और रसायन माना है। इसे कुष्टनाशक वकावनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'गुलवकावली'। और त्वग्रोग की औषधि भी बतलाया है। कहीं कहीं काले वकासुर-तज्ञा पुं० [सं० चकासुर ] एक दैत्य का नाम जिसे कृष्ण फूल की भी बकुची होती है। ने मारा था। बकुची-मज्ञा स्त्री० [हिं० बकुचा ] छोटी गठरी । उ०-देवी ने वकी-सञ्ज्ञा सी० [ कपड़ों की एक छोटी सी बकुची बांधी। -मान०, स० बकी ] वकासुर की बहन पूतना का एक भा० ५, पृ० १३६। नाम जो अपने स्तन मे विष लगाकर कृष्ण को मारने के लिये गई थी। कृष्ण ने उसका दूध पीते समय ही उसे मार मुहा०--बकुची पधिना या मारना = हाथ पैर समेटकर गठरी डाला था । उ०-बकी कपट करि मारन प्राई । सो हरि जू स पाकार का बन जाना । जैसे,—वह वकुची मारकर कूदा। बैकुठ पठाई।-पूर०, ११३ । वकुचौहाँ-वि० [हिं० बकुचा + यौहाँ (प्रत्य॰)] [वि० सी० बकीया-वि० [अ० वकीयह ] पाकी। शेष । भवशिष्ट [को०) । बकुचौहीं ] बकुचे की भांति । वकुचे के समान । उ०- राखौ सचि कूवरी पीठि पै ये बाते बकुचीही। स्याम सो बकुचन-संज्ञा स्त्री० [सं० विकुञ्चन या हिं० वकुचा] १. हाथ गाहक पाय सयानी खोलि देखाइहे गोही–तुलसी (शब्द०)। जोडने की अवस्था । द्धांजलि । उ०-वकुचन विनवौं रोस न मोही । सुनु बकाउ तजि चाहु न जूहो । जायसी (शब्द०) वकुर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. भास्कर । सूर्य । २. तूर्ण वाद्य '। तुरही। ३. बिजली। २. हाथ या मुट्ठी से पकड़ने की क्रिया। उ०-तुम्ह जो बकावरि तुम्ह सों भर ना । बकुचन गहै चहै जो फरना। बकुर-वि० भयदायक । भयावना [को०] । —जायसी (शब्द०)। ३. गुच्छा । गुच्छ । स्तवक । घकुरी-संशा पु० [ स०/वच्, वक्+हिं० वार (प्रत्य॰)] बोल ।