पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१०५

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वक्की ३३४४ बखसीसना यौ०-बनिया बक्काल । कबीर ववस जब दीन्हा । सुर नर मुनि मब गुदरी लीना। वक्की'-वि० [हिं० बकना ] बकवाद करनेवाला। बहुत बोलने- -कबीर मं०, पृ० ३९१ । वाला या बकबक करनेवाला। वखा-संज्ञा पुं० [अ० वक्त ] समय । मोका । अवसर । उ०- वक्की-संज्ञा स्त्री० [ देशी] एक प्रकार का धान जो भादो के हर बम्बत रोजा निमाज धौर वांग दे। खुदा दीदार नहिं महीने के अंत में पक्ता है। इसके धान की भूसी काले रग खोज पाई।-तुलसी० श०, पृ० १६ । की होती है और चावल लाल होता है। यह मोटा धान बखत'-संज्ञा पु० [अ० वख्त ] दे० 'बख्त' ।। माना जाता है। बखतर-संज्ञा पु० [फा० बकतर] दे० 'वकतर' । उ०-वखतर पहिरे वक्कुर -संज्ञा पु० [सं० वाक्य ] मुह से निकला हुआ शब्द । प्रेम का घोडा है गुरु ज्ञान । पलटू सुरति कमान ले जीत चले वोल । वचन । मैदान । -पलटू०, भा० ३, पृ० १०४ । क्रि० प्र०-फूटना। -निकलना । बखतावर-वि० [फा० बख्तावर ] [ वि० सी० बखतावरि ] दे० वक्खर-संज्ञा पु० [हिं०] १. एक प्रकार की घास । दे० 'वाखर' । 'वस्तावर' । उ०-माइ वाप तजि घी उमदानी हरखत चली २. पशुवंधन का स्थान। खसम के पास । बहू बिचारी बड़ बखतावरि जाके कहै चलत है सास । -सुदर ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ५४१ । बक्खर-सज्ञा पु० [ देश० ] कई प्रकार के पौधों की पत्तियों और जड़ो को कूटकर तैयार किया हुआ वह खमोर जो दूसरे बखर-संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'वाखर' । २ दे० 'वक्खर' । ३. + पदार्थो में खमीर उठाने के लिये डाला जाता है। यह प्रायः एक प्रकार की चौड़ी जुताई करनेवाला हल जिसका फाल चौड़ा होता है। खोए आदि में डाला जाता है। बगाल में इसका प्रयोग अधिक होता है। बखरा'-संज्ञा पु० [फा० बखरह, ] १ भाग । हिस्सा। वाट । दे० 'बखर'। बक्तर-संज्ञा पु० [ फा० वकतर ] दे० 'बकतर' । उ०—कबीर दादू यौ०-बाँट घखरा। घने, पहिर वक्तर बने, कामदेव सारिखे बहुत फूदे ।-चरण. वानी, पृ०६३। बखरा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] घोडे की पीठ पर पलान प्रादि के नीचे रखने के लिये फाल या सूखी घास प्रादि का दोहरा किया वक्र'-वि० [ स० वक्र ] टेढा । तिरछा। उ०-बक्र चंद्रमहि ग्रस हा वह मुठ्ठा जिसपर टाट प्रादि लपेटा रहता है । यह घोड़े न राहू |--मानस, ११८१ । को पीठ पर इसलिये रखा जा जाता है जिसमें घाव न हो वक्रg२-सज्ञा पुं० [सं० वक्र व ] वक्रता। टेढ़ापन । उ०--कलि जाय । बाखर । सुडको । कुचालि सुभमति हरनि सरले दहे चक्र । तुलसी यह वखराg3-संज्ञा पु० [हिं० बखार ] पशुबंधन का स्थान । ठाव । निश्चय भई, बाढि लेति नव बक्र ।-तुलसी० ग्रं, ठिकाना | उ०-अति गति पग डारनि हुंकारनि । सीचत पृ०१४६ । घरवि दूध की धारनि । बखरे बछरनि पै चलि प्राई । मिली वक्राव-सज्ञा पुं॰ [ ? ] एक पक्षीविशेष । उ० -परंतु साधु गृद्ध, धाड, क्छु नहिं कहि पाई।-नंद००, पृ० २६५ । गरुड़, वक्राव प्रादि पक्षी केवल मुरदे जीवो के मांस से अपनी बखरी -संज्ञा सी० [हिं० बखार का सी० अल्पा० ] एक कुटुंब के उदरपूर्ति करते हैं। -प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २१ । रहने योग्य बना हुपा मिट्टी या ई आदि का अच्छा बक्रिमा-सज्ञा स्त्री॰ [स० वक्रिमा ] वक्रता । टेढापन । वांकपन । मकान । (गाँव)। उ०-गति न मंद य छु भई सुहाई। नैनन नहिन बक्रिमा बखरैत-वि० [हिं० बखरा + ऐत ( प्रत्य० ) ] हिस्सेदार पाई।-नंद० ग्र०, पु. १५७ । साझीदार। वक्षी-सज्ञा पु० [ फ़ा० घख्शी ] सेनापति । उ०-सेना का सेनापति बखशिंदा-वि० [फा० बख्शिदह्] १. देने वाला । २. कृपा करने- किलेदार या बक्षी कहलाता था। -शुक्ल प्रमि. ग्रं०, वाला । ३. मुक्ति देनेवाला। उ०-वही बंदा पासी का पृ०५४। बखशिदा है।-कबीर म०, पृ० ३८६ । बक्षीस-सज्ञा पु० [फ़ा बरिशश ] दे० 'बकसीस' । उ०—काजी घखसाना-क्रि० स० [हिं० बरूशना ] माफ कराना। दे० मुल्ला विनती फर्माय; बक्षीस हिंदू मैं तेरी गाय ।- 'बकसाना' । उ०-हुइए दीन अधीन चूक बखसाइए । दक्खिनी, पृ० ३१ । -कबीर श०, पृ० ४१ । वक्षोज-सना पुं० [० वक्षोज ] स्तन । उरोज । बखसीस -संज्ञा स्त्री० [फा० बख़शिश ] दे० 'बकसीस' । वक्स-सञ्ज्ञा पु० [अ० बॉक्स ] १. दे० 'वकस' । २. थियेटर, सिनेमा उ०-नाचे फू-यो अंगनाई, सूर बखसीस पाई, माथे को चढ़ाइ आदि मे अलग घिरा हुया स्थान जिसमें तीन चार व्यक्तियो लीनो लाल को बगा।-सूर (शब्द०)। फे बैठने की व्यवस्था रहती है। वखसोसनाg+-क्रि० स० [फा० बखशोश + हिं० ना (प्रत्य०)] धक्सना-फि० स० [फा० बस्श ] दे० 'वरूशना' । उ०-साहब देना । बख्थना । उ०-त्यौ वे सब वेदना खेद पीड़ा दुखदाई।