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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/११५

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बछड़ा ३३५४ यजना' यौ०-बछस्थल % हृदय । वक्ष। उ०-जदपि बछस्थल रमति छोटे छोटे बछड़ों और बछियाओं की पूछे पकड़कर उठे और रमा रमनी वर कामिनि ।-नंद०, ग्रं०, पृ० ४७ । गिर पड़े । लल्जू (शब्द०)। वछड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० बच्छ+डा (प्रत्य॰)] [स्त्री० बछडी, वछिया] मुहा०-बछिया का बाबा या ताऊ = मूर्ख । प्रज्ञान । निर्बुद्धि गाय का वच्चा। ३०-मां, मैं बछड़े चराने जाऊंगा।- वेवकुफ । उ०-यापके नवाव भी वछिया के ताऊ हैं।- लल्लू (शब्द०)। सैर०, पृ० ४२॥ बछनाग-सज्ञा पुं० [सं० वत्सनाभ ] एक स्थावर विष । बछा-संज्ञा पुं॰ [सं० वत्सक ] दे० 'वच्छा' । पर्या०–काकोला । गरल | विष । दारद । बछेड़ा-संज्ञा पुं॰ [सं० वत्स, प्रा० चन्छ, पु० हिं० वच्छ, यछ + एरा विशेष—यह नेपाल के पहाड़ों में होनेवाले पौधे की जड है। (प्रत्य॰)] [ सी० वछेडी ] । घोडे का बच्चा । इसे सींगिया, तेलिया और मीठा विप भी कहते हैं । यह देखने बछेरा-संा पुं० [हिं० बछेरा ] दे० 'बछेरा' । उ०-सुरंग बछेरे में हिरन की सीग के प्राकार का होता है। इसका रंग कड़वे नैन तु जद्यपि हैं नाद । मन सौदागर ने कह्यो हैं बहुतहि तेल की तरह कालापन लिए पीला होता है और स्वाद परसंद ।-सनिधि ( शब्द०)। मीठा होता है। इसकी जड़ के रेशों के बीच मे गोद की बछेरू- संज्ञा पु० [हिं० वट्टा ] दे॰ 'वछड़ा' । तरह गूदा होता है, जो गीला रहने पर तो नरम रहता है पर घछोटा-सज्ञा पु० [हिं० बाछ + श्रीटा (प्रत्य)] वह चंदा जो सूचने पर बहुत कड़ा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक हिस्से के मुताविक लगाया या लिया जाय । प्रकार का और बछनाग होता है जो काला और इससे वडा बजंत्री-प्रज्ञा पु० [हिं० बाजा ] १. वाजा वजानेवाला। वज- होता है और जिसके ऊपर छोटे छोटे दाग होते हैं जो गांठ निया। उ-वजंत्री बजाने लगे ।- लल्लू ( शब्द०)। की तरह मालूम पड़ते हैं। इसे काला बछनाग या कालकूट २. मुसलमानी राज्यकाल का एक प्रकार का कर जो गाने कहते हैं। यह शिकम ( सिक्किम) की पहाडियो में होता वजाने का पेशा करनेवालो से लिया जाता था। है। ये दोनों ही विष हैं और दोनों के खाने से प्राणियो की मृत्यु होती है। वैद्यक में वछनाग का स्वाद मीठा, प्रकृति वजकंद - सज्ञा पुं० [सं० बज्र कन्द ] एक बडी लता जो भारत के गरम और गुण दात एवं कफनाशक तथा कंठरोग और जंगलो मे पैदा होती है। इसकी जह विषैली और मादक सन्निपात को दूर करनेवाला बतलाया गया है। इसका प्रयोग होती है परंतु उबालने से खाने योग्य हो सकती है । प्रौषधों में होता है। निघंटु में इसके वत्सनाभ, हारिद्र, वजकना-क्रि० अ० [ अनुध्व ० ] किसी तरल पदार्थ का सड़कर सवतुक, प्रदीपन, सौराष्ट्रक, शृगक, कालकूट पौर ब्रह्मपुत्र, या बहुत गंदा होकर बुलबुले फेंकना । बजबजाना। ये नौ भेद बतलाए गए हैं। बजका-संज्ञा पु० [हिं० बजकना] १. चने की दाल या बेसन की वछरा-मझा पुं० [हिं० ] दे॰ 'वछड़ा' । उ०-(क) कब की बनी हुई बड़ी बड़ी पकौडियां जो पानी में भिगोकर दही में हो हेरति न हेरे हरि पावति ही बछरा हिरानी सो हिराय डाली जाती है। २. दे० 'वचका'। नैक दीजिए। -मति० ग्रंक, पृ० २८७ । बजट-मंज्ञा स्त्री॰ [अं॰] मागामी वर्ष या मास घादि के लिये बछरुआ, बछरुवा-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'वछडा' । उ०-(क) भिन्न भिन्न विभागों में होनेवाले माय और व्यय का लेखा ब्रह्मा बाल बछरुया हरि गयो सो ततछन सारिखे सवारी।- जो पहले से तैयार करके मंजूर कराया जाता है । भविष्य मे सूर०, १३६ । (ख) असमैं देह बछरुवनि छोरि । ठाड़ी होनेवाली प्राय और व्यय का अनुमित लेखा । प्रायव्ययक । हँसै खरिक की खोरि ।-दंद० ग्रं, पृ० २४६ । बजड़ना-क्रि० स० [? ] १. टकराना । २. पहुंचना । बछा-संज्ञा पुं० [सं० वत्सरूप, प्रा० वच्छ + रूप] वछड़ा। बजड़ा-प्रज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बजरा' । २. दे० 'वाजड़ा'। गाय का बच्चा । उ०--(क) भोजन करत सखा इक बोल्यो बजनक-सज्ञा पुं० [ पश्तो ] पिस्ते का फूल जो रेशम रंगने के काम वछरू कतहूँ दूरि गए । यदुपति कह्यो घेरि हौं प्रानो तुम प्राता है जेंवहु निश्चित भए । —सूर (शब्द०)। (ख) हंसा संशय छूटी कहिया । गैया पिय' बछरू को दुहिया ।-कवीर बजना'-कि० अ० [हिं० वाजा ] १. किसी प्रकार के प्राघात या हवा के जोर से बाजे आदि में से शब्द उत्पन्न होना। (शब्द०)। बोलना । जैसे, डंका बजना, बांसुरी बजना। उ०-(क) बछल-वि० [सं० वत्सल ] दे० 'वत्सल'। उ०-भगत बछल एरी मेरी ब्रजरानी तेरी बर बानी किधौ बानी ही की बीणा कृराल रघुराई । —मानस, ७।११ । सुख मुख मे बजत है।-केशव (शब्द॰) । (ख) मोहन तू बछलता@-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वत्सलता, प्रा० वच्छलता] । वात्सल्य । 'या बात को, अपने हिये विचार । बजत तंबूरा कहुँ सुने, उ०-भगत बछलता प्रभु के देखी।-मानस ७८३ । गांठ गठीले तार।-रसनिधि (शब्द०)। २. किसी वस्तु पछवा-संवा पुं० [हिं० बच्छ ] [ स्त्री० बछिया ] बछेड़ा। गाय का दूसरी वस्तु पर इस प्रकार पड़ना कि शब्द उत्पन्न हो। का बच्चा । उ०—(क) बैल बियाय गाय भइ वांझा। बछवं प्राघात पड़ना । प्रहार होना। जैसे, सिर पर डंडा या जूता दुहिया तिन दिन साझा । -कवीर (शब्द०)। (ख) जव वजना । उ०-लोलुप भ्रमत गृहप ज्यों जहें तहँ सिर पदत्राण