पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१६५

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बर्फी ३४०४ चलवी अ० er साथ जमे हुए खोए मादि के फतरे काट काटकर बनाई की गैल मैं हों सखि गई भुलाइ। तब वरचाइ जदुराज ने जाती है। दोन्ही राह वताइ।-स० सप्नक, पृ० ३७८ । यौ॰—करनसाही वर्फी = एक मिठाई जो वेसन की तली हुई वरथाना-क्रि० स० [हिं० ] 'बराना'। उ० -बूझत बात बुदिया शीरे मे डालकर जमा देने से बनती है । वरचाह कहै मन ही मन केसवराह हंसे ।-केशव ग्रं०, बर्फी'-० [फा० बर्फ + हिं० ई (प्रत्य॰)] दे० 'बरफानी' । भा० १, पृ० १८। उ०-मानो बर्फी समुदर के जार घोड़ो के सदृश दौड़ रहे वर-संश पु० [सं० वरट ] वरें। भिड़ । हैं।-प्रेमघन, भा०' २, पृ० १२ । वर्ग-पंचा पु० [हिं० परना ] रस्से की खिंचाई जो कुमार सुदी वर्फीला-वि० [फा० बर्फ +हिं• ईला (प्रत्य॰)] बर्फ से भरा चौदन ( बांटा चौदस ) को गांवों में होती है। जो लोग हुपा । बर्फ से युक्त । बर्फ का ।' उ.-राजपूताने में पहले रस्सा खीच ले जाते हैं यह समझा जाता है कि वे साल भर बर्फीले पहाड़ थे ।-प्रा० भा० ५०, पृ० ३ । कृत कार्य होगे। बर्बट ह-सञ्ज्ञा पु० [सं०] [ लो० बर्बटी ] एक प्रकार का अन्न । बर्राक-वि० [ ] १. चमकीला । जगमगाता हुना। २. तेज । राजमाष को०)। वेगवान् । ३. तीव्र । ४. चतुर । चालाक । होशियार । ५. वटा, बर्बटी-मज्ञा स्त्री॰ [ स० ] १. वेश्या । गणिका । वार स्त्री । बहुत उजला । धवला । सफेद । ६. खूब मश्क किया हुमा । २. राजमाष । १३. बोड़ा [को०] । पूर्ण रूप से अभ्यस्त । जैसे, सवक वर्गक कर डालना । वरीना-क्रि० अ० [अनुध्व० घर पर ] व्यर्थ चोलना। फिजूल वर्बणा-सञ्ज्ञा स्त्री० [ स०] नीले वणं की एक मक्खी को॰] । बकना । प्रलाप करना। २. नीद या बेहोशो में वकना। वर्वर'-वि० [म.] १. भ्रष्ट उच्चारण किया हुमा । हकलाता स्वप्न की अवस्था में बोलना । हुआ । २ घूघरदार । बल खाया हुा । (वाल)। बर-सज्ञा पुं० [सं० घरट] भिड़ नाम का कीड़ा। ततैया । तितैया। पर्वर-संज्ञा पुं० १. घुघराले वाल । २. पनायं । वर्णाश्रम विहीन उ०-वरै बालक एक सुभाऊ । —तुलसी (शब्द०)। असभ्य मनुष्य । जंगली श्रादमी । ३. एक पौधा । ४. एक वरी२-संज्ञा पु० एक कोटेदार क्षुप जिसके पुष्प केसर के रंग के पौर कोड़ा। ५. एक प्रकार की मछली । ६. एक प्रकार का लाल पीले श्वेत होते हैं। इसके बीज का तेल बनता है। नृत्य । ७. अस्त्रो को झनकार । हथियारों की आवाज । यह एक कदन्न है। ८. पीतचंदन । बरों -ज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक चिड़िया का नाम । घबर-वि० १. जंगली । असभ्य । २. पशिष्ट । उद्दड । उ०—परम बर्रोही -सज्ञा स्त्री० [हिं० बरोह ] दे० 'वरोह' । उ०-कोउ पर्रोही वर्वर खवं गर्व पर्वत चढ़ो अज्ञ सर्वज्ञ जनमानि जनावै । खूनि खानि के बरत पलीते ।-प्रेमघन०, भा०१, पृ० ५। -तुलसी (शब्द०)। वर्बरा--संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बर्बरी। बनतुलसी । २. एक प्रकार वर्स-संज्ञा पुं० [ स० वर्प ] भूखड । देश । उ०-जब लगि रहि की मक्खी। ३. एक नदी का नाम तुव वर्ष मंह मम प्रायस कव वच।-५० रासो०, पृ० २० । वर्बरी-संज्ञा स्त्री० [स०] १. बनतुलसी। २. इंगुर । ३. पीतचंदन। बह-संशा पु० [सं०] मयूरपिच्छ । दे० 'वह' । बर्सात-सज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे॰ 'बरसात' । बर्बरीक 5-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १. घुघराले वाल । २. पीत चंदन । ३. बहण -वि० [सं०] मजबूत । शक्तिशाली (को०] । भीम के पुत्र घटोत्कच का बेटा । बर्हण -संशा पुं० पत्र । पत्ता [को०] । विशेष-इसकी माता का नाम कामकटंकटा था। अप्रमेय वलशाली बर्बरीक को कुछ ऐसी सिद्धियाँ प्राप्ती बर्हि-संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. कुश । कुशा [को॰] । बल से पलक झपते महाभारत के युद्ध मे भाग लेनेवाले समय बी-संज्ञा पुं० स० बर्हिन् ] १. मयूर । मोर । २. एक प्रकार का वीरो को वह मार सकता था। जब यह युद्ध में सहायता देने प्राया तव इसकी शक्ति का परिचय प्राप्त कर कृष्ण ने बलंद -वि॰ [फा०] [ संज्ञा वलंदो ] ऊंचा। उ०-क्रम क्रम अपनी कूटनीति से इसे रणचंडी को बलि चढ़ा दिया।' जाति कहूँ पुनि गगा । फरति अपार करारन भंगा। मंद मंद महाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इसको कामना कहुं चलत स्वछंदा । नीच होति कहुँ होति बलंदा ।-रघुराज कृष्ण के बरदान से पूर्ण हुई और इसका कटा सिर पंत तक (शब्द०)। युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा। बलंधरा-संज्ञा स्त्री० [सं० बलन्धरा] महाभारत के अनुसार भीमसेन वधुर -सज्ञा पुं० [सं०] १. एक वृक्ष । २. जल [को०] । की एक स्त्री का नाम । वर्म-सज्ञा पु० [सं० वर्म. ] दे० 'वर्म'। उ०-मंग वर्म धर्म बलंघो-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पेड़ । सु कीन । सिर टोप प्रोप सुदीन ।-ह. रासो, पृ० १२३ । विशेष-यह वृक्ष भारत के अनेक भागों में पाया जाता है । वरथाइ@+-कि० वि० [हिं०] द०, 'बरियाई। उ०-वंशीवट ' इसके फल खट्टे होते हैं भौर प्रचार के काम में आते हैं। गंध [को॰] ।