पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१७८

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बसीठी ३४१७ बसोदर वास करना। ही मकराक्ष के रावण अति दुख पाय । सत्वर श्री रघुनाथ बसेरा'---वि० [हिं० बसना /वस+एग (प्रत्य॰)]बसनेवाला : पं दिए बसीठ पठाय ।-केशव (शब्द०)। वाला । उ०—(क) निपट बसेरे अघ भौगुन घनेरे नर नारे बसीठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बसीठ+ई (प्रत्य॰)] दूत का काम । दौत्य । अनेरे जगदंब चेरी चेरे हैं । —तुलसी (गन्द०)। () संदेशा भुगताने का काम । उ०-(क) हरि मुख निरखत जंबूदीप बसेरा ।—जायसी ग्रं, पृ० १३८ । नागरि नारि । ...हारि जोहारि जो करत बसीठी प्रथमहि वसेरा-संज्ञा पुं० १. यह स्थान जहाँ रहकर यात्री रे प्रथम चिन्हार । —सूर (शब्द०)। (ख) बिकानी हरिमुख की हैं । वासा । टिकने की जगह । २. वह त्यान, मुसकानि |...."नैनन निरखि बसीठी कीन्हों मनु मिलयो ठहरकर रात बिताती हैं। उ०-घाइ हाइ पय पानि । -सूर (शब्द॰) । (ग) सेतु बाँधि कपि सेन हेरा। मानहुँ विपति विषाद बसेरा ।- जिमि, उतरी सागर पार । गयउ नसीठी वीरवर जेहि विधि (ख) पिय मूरति चितसरिया चितवति बान बालिकुमार ।—तुलसी (शब्द०)। बसेरवा जपि जपि माल ।-रहिनन (जन्दा घसीत-सञ्ज्ञा पु० [अ० ] एफ यंत्र का नाम जो जहाज पर सूर्य का प्रक्षाश देखने के लिये रहता है । कमान । मुहा०-यसेरा करना = (१) डेग करना न ठहरना । उ०—(क) बहुते को उद्यमी वसीत्यो-संज्ञा पुं० [हिं०] वास । निवास । बसेरो करे । —सूर (जन्द०)। (बोहर वसीना@t-संज्ञा पु॰ [हिं० घसना ] रहायस । रहन । संग्रह किया घनेरा। बस्ती में से दिया यौ०-पासबसीना। उ०-इनही ते व्रज वासबसीनो। हम बसेरा। -कबीर (शब्द०)। सब अहिर जाति मतिहीनो।-सूर (शब्द॰) । वस जाना। उ०-कहा भयो : है बसीला'-वि० [हिं० वास+इल (प्रत्य॰)] गंधयुक्त । सुगंध या दूर बसेगे । पापुनही या व्रज के का दुगंध भरा। फेगे। —सूर (शब्द०)। बसंग - रहना। २.- वसीला-संञ्चा पुं० [अ० वसीलह ] १. मदद । सहायता । २. वोलत जो अनेरो। कब हरि बात - जरिया । राह । रास्ता । बसेरो।-सूर (शब्द॰) । बगदेन =': बसु-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वसु' । देना। ठहराना । टिकाना। बसुकला-संज्ञा पुं॰ [ सं० वसुकला ] एक वर्णवृत्त जिसे तारक भी देना । उ०-प्रभु कह गरल - - कहते हैं। उर दीन वसेरा। -तुलसी वसुदेव-संज्ञा पुं० [सं० वसुदेव ] दे० 'वसुदेव' । पसुद्यौ@t-संज्ञा पुं० [सं० वसुदेव ] कृष्ण के पिता। वसुदेव । उ०-बसुद्यो संभु सीस धरि पान्यो गोकुल प्रानंदकंद । -सूर०, १०।१७६५ । वसुधा-सञ्चा सौ० [सं० वसुधा ] दे० 'वसुषा'। घसुमती-संज्ञा सी० [सं० वसुमती ] दे० 'वसुमती' । बसुरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'वांसुरी' । वसुला-संज्ञा पुं० [हिं०] [स्त्री० वसुली ] दे० 'वसूला' । बसूला-संज्ञा पुं० [सं० वासि + ल (प्रत्य॰)] [ी० अल्पा० वसूली ] एक हथियार जिससे बढ़ई लकड़ी छोलते और गढ़ते हैं। उ०-मातु कुमति बढ़ई अघ मूला। तेहि हमरे हित कीन्ह वसूला।-तुलसी (शब्द०)। विशेष-यह वेंट लगा हुमा चार पांच पंगुल चौड़ा लोहे का टुकड़ा होता है जो घार के ऊपर बहुत भारी पौर मोटा होता है । यह ऊपर से नीचे की पोर चलाया जाता है। वसूली-संश स्त्री० [हिं० वसूला ] १. छोटा वसूला। २. राजगीरों का एक प्रौजार जिससे वे इंटो को तोड़ते, छोलते ठोंकते हैं। बसेंडा -संज्ञा पुं० [हिं० बाँस + टा] [झो० बसें दी] पतला .-२१