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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१७९

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यसौ घी बहकना मक रहने की जगह । उ०-चारि भौति नृपता तुम कहियो । कर रहने का भाव । मावादी। निवास । उ०-जिन जिह्वा चारि मंत्रिमत मन मे गयिो। राम मारि सुर एक न गुन गाइया विन वस्ती का गेह । सूने घर का पाहुना तासों बचिहै । इंद्रलोक बसोबासहिं रचिहैं।- केशव (शब्द०)। लावै नेह ।-कबीर (शब्द०)। २. बहुत से घरों का समूह जिसमें लोग बसते हैं। जनपद । खेड़ा, गाँव, कसबा, नगर बसौंधी-संज्ञा स्त्री० [हिं० वास+ौंधी (प्रत्य॰)] एक प्रकार इत्यादि । जैसे,—राजपूताने मे कोसो चले जाइए कहीं को रवड़ी जो सुगंधित और लच्छेदार होती है । वस्ती का नाम नहीं। उ०-मन के मारे बन गए, वन तजि वस्ट-संज्ञा पुं॰ [अं०] १. चित्रकारी मे वह मुर्ति, चित्र या प्रति- बस्ती माहिं । कहै कबीर क्या कीजिए या मन ठहरै नाहिं । कृति जिसमे किसी व्यक्ति के मुख, अथवा छाती के ऊपरी -कबीर (शब्द०)। भाग मात्र की प्राकृति बनाई गई हो। किसी व्यक्ति की बस्तु-संज्ञा स्त्री० [सं० वस्तु ] दे० 'वस्तु' । उ०-वस्तु सकल राखी ऐसी मूर्ति या चित्र जिसमें केवल घड़ और सिर हो। २. नृप मागे। विनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागे ।—मानस, छाती। वक्षस्थल । सीना। ११३०६। वस्त'-स' पु० [ ] १. सूर्य । २. वकरा। बस्त्र-३. पुं० [सं० वस्त्र] दे॰ 'वस्त्र' । वस्ता- सझा पु० [हिं०] दे 'वस्तु' । उ०-जो कुछ वस्त हवाले बस्य-वि० [सं० वश्य ] दे० 'वश्य' । उ०-भाव यस्य भगवान करें तो गंवाय ।-दक्खिनी०, पृ० १५१ । सुख निधान करुना भवन ।—मानस, ७।६२ । यो०- चीजवस्त । बस्त-अव्य० [फा० बस ) दे० 'बस' । उ॰—अच्छी, पै एक वात वस्त'- संज्ञा पुं० [सं० वस्त्र ] दे० 'वस्त्र' । उ०-तिन दिष्षत और कह लऊ, फिर वस्स ।-श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ५८ । वर बस्त मंग अप्पन मुख अपहि।-पृ० रा०, ११४१३ । वस्साना-क्रि० स० [हिं० बास (= गध)+पाना ] दुर्गध देना। वस्त४- संज्ञा स्त्री० [सं० वस्ति ] वस्ति । वक्षस्थल । उ०-अस्त बदबू करना। बस्त अरु चर्म टंक लम्भ नन हड्डं 1- पृ० रा०, ११६६६८, बहँगा-सा पु० [सं० वहन + अङ्ग ] बड़ी बहेंगी। वस्तक-संज्ञा पुं॰ [सं०] सांभर झील से तैयार नमक । समिर बहँगी-संज्ञा स्त्री० [सं० वहन + अङ्ग] वोझा ले चलने के लिये नमक को०] । तराजू के आकार का एक ढाँचा । कांवर । चस्तकर्ण-संज्ञा पुं० [सं० १. साल का पेड़ । २ असना का पेड़ । विशेष-लगमग चार पांच हाथ लंबी लचीली लकड़ी या बांस पीतशाल वृक्ष। के दोनो छोरों पर रस्सी का छीका लटकाकर नीचे काठ का बस्तगधा-संज्ञा स्त्री० [सं० घरतगन्धा ] अजगंधा । अजमोदा । चौकठा सा लगा देते हैं जिसपर बोझा रखा जाता है। वास वस्तमुख-वि० [सं०] बकरे की तरह मुंहवाला । बकरमुहाँ [को॰] । को बीचोबीच कधे पर रखकर ले चलते हैं। वस्तमोदा-संश स्त्री० [सं०] अजमोदा । वहक-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० चहकना ] १. पथभ्रष्टता। २. बहकने वस्तर -संज्ञा पु० [सं० वरन] वस्त्र । कपड़ा। उ०-विन या इतस्ततः होने की स्थिति । ३. वहुत बढ़कर बोलना । वस्तर अंग सुरंग रसी। सुहले जनु साख मदन कसी।- वहकना-क्रि० अ० [हिं० बहा ? या हिं. वहना से बहकना पृ० रा०,१४१४६। (= इधर उधर बह जागा)] १. भूल से ठीक रास्ते से दूमरी ओर जा पड़ना । गागंभ्रष्ट होना । भटकना । जैसे,- यौ०-वस्तरमोचन, वस्तरामोचन = क्सिी का सब कुछ छीन वह वहककर जंगल की ओर चला यया । लेना। संयो० कि०-जाना। यस्तशृंगी-सशा स्त्री० [सं० बस्तऋङ्गिन् ] मेपशृंगी । मेढ़ासीगी । २. ठीक लक्ष्य या स्थान पर न जाकर दूसरी ओर जा पड़ना । पस्तांबु-संज्ञा पुं॰ [ सं० वस्ताम्बु ] वकरे का मूत्र [को०] । चूकना । जैसे, तलवार वहकना, हाथ बहकना । ३. किसा वस्ता-संज्ञा पुं० [फा० यस्ता तुल० स० वेष्ट (वेष्टन) ] कपड़े की वात या भुलावे में भा जाना । विना भला बुरा विचारे फा चौकोर टुकड़ा जिसमें कागज के मु?, बही खाते और किसी के कहने या फुमलाने से कोई काम कर बैठना । उ०- पुस्तकादि वाषकर रखते हैं। वेठन । वहक न इहि बहनापने जब तब, वीर विनास। बचे न बड़ी कि०प्र०-बाँधना। सबीलहू चील घोंसुवा मांस । -विहारी (शब्द०)। ४. क्सिी मुहा०-यस्ता याँधना= कागज पत्र समेटकर उठने की तैयारी बात में लग जाने के कारण शांत होना । बहलना (बच्चों के लिये) । ५. प्रापे में न रहना । रस या मद में चूर होना । बरताजिन-संज्ञा पु० [सं०] बकरे का चमड़ा [को०] । जोण या पावेश में होना। उ०-जब ते ऋतुराज समाज वस्तार-सरा पुं० [फा० यस्ता ] एक में बंधी हुई बहुत सी वस्तुषों रच्यो तब ते अवली अलि की चहकी। सरसाय के सोर का समूह मृट्ठा । पुलिंदा। रसाल की डारन कोकिल कूक फिरै बहकी। रसिया पस्ति-शा पु० सी० [सं०] दे॰ 'वस्ति' । (शब्द०)। यस्ती-मज सो [सं० वसति ] १. बहुत से मनुष्यों का घर बना. मुहा०-घहककर बोलना = (१) मद में घर होकर बोलना । (२) जोश में आकर बढ़ बढ़कर बोलना। अभिमान आदि 1 करना।