पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२१६

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बानि बानइत बानइतर-वि० [हिं० पान+इत (प्रत्य॰)] १. बाण चलानेवाला। विशेष-यह सीधा और दुधारा तलवार के आकार का होता उ०--रोपे रन रावन बुलाए बीर वानइत, जानत जे रीति है। इसकी मूठ के दोनो मोर दो लट्ट होते हैं जिनमें एक सब सुजुग समाज की।-तुलसी (शब्द०)। २. योद्धा । लट्ट कुछ प्रागे हटकर होता है। इसे वानइत पकड़कर बड़ी वीर। बहादुर । उ०-लोकपाल महिपाल वान वानइत तेजी से घुमाते हैं। दसानन सके न चाप चढ़ाई।-तुलसी (शब्द॰) । २. सांग या भाले के आकार का एक हथियार । उ०-(क) रोह मृगा संशय वह हाँकै पारध बाना मेले। सायर जरै सकल बानक-संज्ञा स्त्री० [हिं० बनाना ] १. वेष । भेस । सजधज । उ०- वन दाहै, मच्छ प्रहेरा खेले । —कबीर (शब्द) । (ख) बाने या बानक उपमा देबे को सुकवि कहा टकटोहै। देखत भंग थके मन में शशि कोटि मदन छबि मोहै। -सूर (शब्द०) । फहराने घहराने घंटा राजन के नाही ठहराने राव राने देस (ख) मापने अपाने थल, आपने अपाने साज आपनी अपानी देस के ।-भूषण (शब्द०)। वर बानक बनाइए। —तुलसी (शब्द०)। २. एक प्रकार का विशेष- यह लोहे का होता है और आगे की ओर बराबर रेशम जो पीला या सफेद होता है। (यह तेहुरी से कुछ पतला होता चला जाता है। इसके सिरे पर कभी कभी झंडा घटिया होता है और रामपुर हाट बंगाल से आता है। ) ३. भी बांध देने हैं और नोक के वल जमीन में गाड़ भी देते हैं। संयोग । अवसर । साज | उ०-सहज भाव फी भेट अचानक बाना-~-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वयन (= बुनना)] १. बुनावट | बुनन । बिधना सदा बनावत बानक ।-घनानंद०, पृ० २६० । बुनाई। २. कपड़े की बुनावट जो ताने में की जाती है। ३. बानगो-संज्ञा स्त्री० [हिं० बयाना+गी (प्रत्य॰)] किसी माल का कपड़े की बुनावट मे वह तागा जो आडे बल ताने में भरा वह पंश जो ग्राहक को देखने के लिये निकालकर दिया या जाता है। भरनी । उ० -सूत पुराना जोड़ने जेठ घिनत दिन भेजा जाय। नमूना। जाय । बरन वीन बाना किया जुलहा पड़ा भुलाय ।-कबीर वानना@:-क्रि० स० [ सं० वर्णन, प्रा० वण्णण ] वर्णन (शब्द०)। ४. एक प्रकार का वारीक महीन सूत जिससे पतंग उड़ाई जाती है । ५. वह जुताई जो खेत में एक बार या करना । कहना । उ०-कर्मठ ज्ञानी ऐंचि अर्थ को अनरथ पहली बार की जाय। बानत ।-भक्तमाल (प्रि०), पृ० ५३२ । बाना -क्रि० स० [सं० ध्यापन] किसी सुकडने पौर फैलनेवाले छेद बानना २-क्रि० स० [सं० बन्धन ] दे० 'वाषना' । उ०-तब को फैलाना। प्राकुंचित और प्रसारित होनेवाले छिद्र को वसुदेव देवकी प्रानि । पाइनि सुदृढ़ शृंखला बानि ।-नंद० विस्तृत करना । जैसे, मुह बाना । उ०—(क) पुत्र कलत्र रहैं ग्रं०, पृ. २२३ । लव लाए । जंबुक नाई रहे मुह वाए । —कबीर (शब्द०)। बनना-क्रि० स० [हिं० बान ( = व्याज)+ ना (प्रत्य॰)] बनाना । ठानना । उ०-तब नहिं सोचे इहि विधि बानत । भव हो (ख) हा हा करि दीनता कही द्वार द्वार बार बार, परी न छार मुह वायो।-तुलसी ग्रं०, पृ० ५६४ । (ग) व्यास नारि नाथ बुरौ क्यों मानत ।-नंद० ० पृ० २८२ । तवही मुख बायो।। तब तनु तजि मुख माहिं समायो।- बानबे-वि० [सं० द्विनवति, प्रा० याणयइ ] जो गिनती में नब्बे से सूर (शब्द०)। दो अधिक हो। दो ऊपर नवे । मुहा०-(किसी वस्तु के लिये ) मुंह वाना = लेने की इच्छा वानर-संज्ञा पुं० [सं० वानर ] [स्त्री० यानरी ] बंदर । करना । पाने का अभिलाषी होना । वानरेंद्र-संज्ञा पुं० [सं० वानर+इन्द्र ] १. सुग्रीव । उ०-वानरेंद्र तब ही हंसि वोल्यो। केशव (शब्द०) । २. हनुमान बनात-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० बाना ] एक प्रकार का मोटा चिकना ऊनी कपड़ा। बाना'-संज्ञा पुं० [हिं० बनाना या सं० वर्ण (= रूप)] १. पहनावा । वस्त्र । पोशाक । वेशविन्यास । भेस । उ०—(क) वाना पानारसी-सज्ञा स्त्री० [सं० वाराणसी, वर्ण वि०>वाणारसी हि० पहिरे सिंह का चल भेंड़ की लार । बोली बोल स्यार की बनारस + ई (प्रत्य॰)] उ०-नाभी कुंडर बानारसी। सौह कुत्ता खाए फार ।-कबीर (शब्द०) । (ख) विविध भांति को होइ मीच तह बसी !-जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० १६६ । फूले तरु नाना । जन बानत बने बह बाना ।—तुलसी बानावरी-संज्ञा स्त्री॰ [ हिं• बाण + फा प्रावरी (प्रत्य०)] वाण (शब्द०)। (ग) यह है सुहाग का अचल हमारे बाना । चलाने की विद्या या ढंग । उ०-सुनि भालु कपि धाए कुघर असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना । हरिश्चंद्र गहि देखि सो मारन लगा । लखि तासु वानावरी सब अकुलाइ (शब्द०) । २. अंगीकार किया हुमा धर्म। रीति । चाल । मरकट दल भगा ।-रघुनाथ दास (पन्द०)। स्वभाव । उ०—(क) राम भक्त वत्सल निज बानो । जाति, वानि'-संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना या बनाना ] १. बनावट । सजधज गोत, कुल, नाम गनत नहिं रंक होय के रानो। -सूर उ०-वा पटपीत की फहरानि । कर घर चक्र चरन की (शब्द॰) । (ख) जासु पतितपावन बड़ बाना । " धावनि नहिं विसरति वह वानि । —सूर (शब्द॰) । २. श्रुति संत पुराना ।—तुलसी (शब्द०)। टेव । आदत । स्वभाव । अभ्यास । उ०—(क) बन ते भगि बाना-संज्ञा पुं० [सं० वाण'] १. एक हथियार जो बिहड़े पर खरहा अपनी बानि । बेदन खरना यानों कहै को हाय लंबा होता है। खरहा को जानि!- कबीर (