पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बाम्हन ३४४ वायभिरंग (ख) भावति है हरि भक्तनि भारी । निंदत है तव नामनि चीज को मोल लेनेवाला उसे ले जाने या पूरा दाम चुकाने के बानी।-राम चं०, पृ. १६३ । पहले मालिक को दे देता है जिसमें वात पक्की रहे और वह बाम्हना-मज्ञा पु० [सं० ब्राह्मण ] दे० 'ब्राह्मण' उ-पहिली दुसरे के हाप न बेचे । अगाक । पेशगी। पठौनी तीन जने आए नौवा बाम्हन बार ।-कवीर श०, विशेष-व्यापारी जब किसी माल को पसंद करते हैं और पृ०४। उसका भाव पट जाता है तब मूल्य का कुछ अंश माल के बाय-वि० [सं० वाम ] १. वायाँ । २. खाली। चूका हु प्रा। दांव मालिक को पहले से दे देते हैं और शेष माल ले जाने पर या या लक्ष्य पर न बैठा हुआ। अन्य किसी समय पर देते हैं। इससे माल का मालिक उस मुहा०-वायँ देना = (१) बचा जाना । छोड़ना । (२) तरह माल को किसी दूसरे के हाथ नहीं बेच सकता है। वह धन देना । कुछ ध्यान न देना । (३) फेरा देना। चक्कर देना। जो माल पसद होन और दाम पटने पर उसके मालिक को उ०-निंदक न्हाय गहन कुरखेत । अरपै नारि सिंगार दिया जाता है बयाना कहलाता है। समेत । चौसठ कूपां बार्य दिखावे। तो भी निंदक नरकहि २. मजदूरी का थोड़ा अंश जो किसी को कोई काम करने की जावे ।-कबीर (शब्द०)। आज्ञा के साथ इसालय दे दिया जाता है जिसमे वह समय पर काम करने पावे, ओर जगह न जाय । बाल-सज्ञा स्त्री० [सं० वायु ] १. वायु । हवा । उ०—(क) एक वान वेग ही उड़ाने जातुधान जात, सूखि गए गात हैं मुहा०-बायन देना - छेड़छाड़ करना । उ०-भले भवन पतीमा भए बाय के ।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) हित करि थब वायन दीन्हा । पावहुगे फल मापन कीन्हा। तुम पठयो लगे वा विजना की वाय । ठरी तपन तन की तऊ -मानस, १११३७ । चली पसीना न्याय । -बिहारी (शब्द॰) । २. बाई । वात, बायब-वि०[हिं० बायबी ] बाहरी । विरुद्ध । खिलाफ । उ०- का कोप जो प्रायः संनिपात होने पर होता है और जिसमें संत कह सोइ कर राम ना करते बायब ।-पल०, भा० १, लोग बकते झकते है । उ०-जीवन जुर जुवती कुपथ्य करि पृ० १२। भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ।—तुलसी (शब्द०)। बायबरंग-सचा त्री० [हिं० ] दे० बायबिडंग' । बाय-संज्ञा स्त्री० [सं० वापी ] बाउली। बेहर। उ०-अति : बायबिडंग-संञ्चा पुं० [स० बिडगा] एक लता जो हिमालय अगाध अति पोथरो नदी कूप सर-वाय । सो ताको सागर पर्वत, लंका और बर्मा में मिलती है । जहाँ जाकी प्यास बुझाय । -विहारी (शब्द०)। विशेष-इसमें छोटे छोटे मटर के बराबर गोल गोल फल वाय-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहे का पीपा जो समुद्र गुच्छों में लगते हैं जो सूखने पर औषध के काम आते हैं। में या उन नदियो मे जिनमें जहाज चलते हैं स्थान स्थान पर ये सूखे फल देखने में कबाबचीनी की तरह लगते हैं। लगर द्वारा बांध दिए जाते हैं और सिगनल का काम देते हैं। पर उससे अधिक हलके और पोले होते हैं। वैद्यक में इसका २. द० लाइफवाय'। स्वाद चरपरा कड़वा लिखा है और इसे रूखा, गरम और बायक-सचा पु० [स० वाचक, प्रा० वायक ] १. कहनेवाला । हलका माना है। यह कृमिनाशक, कफ और वात को दूर बतलानेवाला। २. पढ़नेवाला। बाँचनेवाला । उ०-गूगा फरनेवाला, दीपक तथा उदररोग, प्लीहा आदि में लाभकारी बायक अविरल बोल्या राग अनेक उचारू ।-राम० धर्म०, होता है। पू० ३६८ । ३. दूत । पर्या-भस्मक । मोथा । कैराल | केवल । वेल्लतंदुना । बायकाट-संज्ञा पु० [ ] १. वह व्यवस्थित बहिष्कार जो किसी घोपा, इत्यादि। व्यक्ति, दल या देश प्रादि को अपने अनुकूल बनाने या उससे कोई काम कराने के उद्दश्य से उसके साथ उस समय तक के बायबिल-संज्ञा स्त्री० [अं० बाइविल ] दे० 'बाइबिल' । लिये किया जाय जबतक वह अनुकूल न हो जाय या मांग बायबी-वि० [सं० वायवीय ] १. वाहरी । अपरिचित । अजनबी। पूरी न करे । २. संबंध आदि का त्याग या बहिष्कार । अज्ञात । गैर । २. नया आया हुआ। वायड़-संज्ञा पुं० [सं० वायु+हिं० ८ (प्रत्य॰)] महक । गंध । वायु विशेप-इस देश में जितनी विदेशीय जातियां प्राईवे सबकी का गधयुक्त उद्गार । उ०-भौरों ने कहा मेरे को तो मेरे सब प्रायः वायव्य कोण ही से प्राई। अतः बायबी शब्द, जो ही खान पान की वायड़ पा रही है। -राम० धर्म०, वायवीय का अपभ्रंश है गैर, प्रज्ञात, अमनबी इत्कादि मों पृ० २६२। मे रूढ़ हो गया है। वायन --संज्ञा पुं० [सं० वायन ] १. वह मिठाई या पकवान आदि बायव्य-संज्ञा पुं० [सं० वायव्य ] दे० 'वायव्य' । जो लोग उत्सवादि के उपलक्ष में अपने इष्टमित्रों के यहाँ बायभिरंग-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वायबिडंग' । उ०-प्रजमोदा भेजते हैं। २. भेट । उपहार । चितकरना, पतरज वायभिरंग। सेंधा सोठ श्राफला, नासदि वायन--सञ्ज्ञा पुं० [अ० बयानह.] १. मूल्य का कुछ अंध जो किसी मारुत अंग।-इंद्रा०, पृ० १५१ । श्र०