पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२७

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उ०-बुढिया हंस कह मैं नितहि चारि । मोहि पस तरनी उरभ्यो गहा गंगार ?--तेगबहादुर (शब्द०)। कह कोन नारि?-कबीर (शब्द॰) । चास्ता-संशा पी० [तु.] दे० 'याद'। -१० सी० थोड़ी अवस्था की। जो सयानी न हो । १०-चारी चारुद'-संशा [तु.] एक प्रकार मा घणं या गुगनी जो गंधर, व मुरझानी विलोकि, जिठानी फरै उपचार वितै को।- पोरे पोर कोयले को एक में पोगर बनती है और शाम पद्माकर (शब्द०)। पाकर भागे उर जाती है। तोप या गी से पटती ili so [FO ] In fanat' है । दार। -वि० [फा० बारीक] [मझा बारीकी] १. जो मोटाई या रे में विशेष- ऐगा पता चलता गा प्रयोग भारतवर्ष प्रौर इतना कम हो कि सूने से हाथ में कुछ मालूम न हो । गहीन । जीन में बदूम प्रादि पार पोर तमाशे में बहुन पुगने जमा पतला | री, बारीक नार या तागा, बारीक कपहा । २. बहुत से लिया जाता था। अशोक गिलागों में अगिध' या ही छोटा । सूक्ष्म । जैसे, बारीक अक्षर । ३. जिसफे परगु या परिमाप शब्द तमाशे (पातपायाजी) के लिये प्राया है, बहुत ही छोटे या सूक्ष्म हों। जैसे,—(क) वारीय पाटा। पर इस बात का पता मास्तमा नही लगा है कि गवसे पहले (ख) इस दवा को खूब बारीक पीसफर लामो। ४. जिसकी इममा प्राविकार पाचोर गिने पिया है। इन रचना में दृष्टि की सूक्ष्मता प्रौर कला को निपुणता प्रपट प्रचार युरोप में चौदहली शताब्दी मे मूर (प्रस) के लोगों ने पियारी सोनी तक इसका प्रयोग केवल हो । जैसे,—उस मंदिर में पत्थर पर बहुत बारीक काम वना है। ५. जिसे समझने के लिये सूक्ष्म बुद्धि प्रावश्यया हो । जो बंदूगो को चलाने में होगा। पत भनेक प्रकारको विना अच्छी तरह ध्यान से सोचे समझ में न पाए। जैसे, यार मोटी, महीन, मम, विषम रये गी बनती है। उसके पारीक बात । संयोजकः द्रव्यों पी मात्रा निशिना नही है। देश देश में -संज्ञा पुं० [फा० घारीफ] वालों फी वह महीन पालम जिससे प्रयोजनानुसार पंतर रहता है पर साधारण गति से बाहद बनाने में प्रति संग ७५ से ७८ तक गोग. १० या १२ चित्रकारी में पतलो पतली रेखाएं सीनी जाती हैं। प्र क गंधपा मोर १२ से १५ तोयला पड़ता -सा नी [फा० पारीक+ ई] १. महीनपन । पतलापन । है। ये तीनों पदाचं परी तह पीस छानकर एक में २. साधारण रष्टि से न समझ में मानेवाला गुण या मिलाए जाते हैं। फिर तारपीन का तेल पासिन्टि डालकर विशेषता । सुबी । जैसे, मजमन की बारीकी । चूर्ण को भलीभांति मतना पाता है। इसके पीछे उसे To-चारीकी निकालना= ऐसी बात निकालना जो साधारण से मुगाते हैं। तमाशे को बारूद में कोयले की माग पनिक दृष्टि से देखने पर समझ में न पा सके। सूक्ष्म उद्भावना डाली जाती है। कभी कभी लोहसुन भी फूल प्रच्छे बैंगने करना। के लिये डालते हैं। भारतवर्ष में प्रब बान्द बंदूक के पान ना-संज्ञा पुं० [हिं० यरी+फ़ा० खानह, ] नील के फामाने को कम बनती है, प्रायः तमाशे की ही वारुद बनाई मे वह स्थान जहां नील को बरी या टिकिया सुसाई जाती है। जाती है। मुहा०-गोली वारूप % (१) लडाई गी लागगी। गुद्ध का -संज्ञा पुं॰ [ स० वारीश ] समुद्र । दे० 'वारीश'। उ०- सामान । (२) सामग्री । मायोजन । याँध्यो बननिधि नीरनिधि जलघि सिंधु वारीस - बारूद-संशा पुं० ए प्रकार का मान । मानस, ६.१०॥ घारुदखाना-संज्ञा पुं० [हिं० मारुदफा० साना ] वह स्थान -संशा सी० [सं० घालुका ] वालू । रेत । उ०-नेह नवोढा जहाँ गोला बारूद पादि लड़ाई का सामान रहता है। नारि को वारि बारुका न्याय । थलराए पै पाइए नीपीड़े न रसाय।-नंद०६०, पृ० १४१ । बाख्दानी-संवारती [हिं०] ३० 'यालूदानी' -संज्ञा पु० [स० वारुणी] पश्चिम दिशा । उ०-जहां वारुणी पारे-मि० वि० [फा० ] १. पंत को। प्रातिरकार । उ०-प्रादे की करी, रंधक रुचि द्विजराज। तही कियो भागवत बिन, न दिया वारे गुनह ने पैदल । ताबून में बांधो पे सवार माया पति शोभा साज।-राम चं०, पृ० १०। हूँ। -भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ८५६ । २. खैर । पस्तु । -संशा स्त्री० [स० वारुणो ] १. दे० 'वारणी'। २. हाथी जैसे,—बारे जो हुमा, भला हुप्रा । की गति । गयंद गति । मस्तानी चाल। ३. मदिरा। वारे में-प्रध्य० [फा० घारह + हिं० में ] प्रसंग मे । विषय मे । पुरा । ४. पश्चिम दिशा । उ०-गजपति कहिए वारुनी, संबंध मे । जैसे,—में इस बारे में कुछ नहीं जानता।