बालू बावड़ी मुहा०-बालू की भीत = ऐमी वस्तु जो शीघ्र ही नष्ट हो जाय वालोपवीत-संज्ञा पु० [सं०] १. यज्ञोपवीत । जनेऊ । २. कौपीन । अथवा जिसका कोई भरोसा न किया जा सके । उ०- कछनी । लंगोटी (को०] । बिनसत बार न लागही प्रोछे जनकी प्रीत । अब र ढंवर साँझ वालोबाल-फ्रि० वि० [हिं० ] बाल बाल । रोम रोम । जर्रा जर्रा । के ज्यों बालू की भीत ।-कबीर (शब्द०)। उ०-काशी पंडत प्यारेलाल मेरे जान • संबाल । पीर वालू -ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की मछली जो दक्षिण भारत फकीर हक्ताल बालोवाल गुन्हेगार हूँ।-दक्खिनी०, और लंका के जलाशयों में पाई जाती है। पृ० ४६। बालक-मंत्रा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष । बाल्टी-सझा ली० [हिं० ] दे० 'बालटी' । बालूचर-संज्ञा पु० [ घालूचर ( = एक स्थान) ] बंगाल के बालूचर बाल्टू-मज्ञा पुं० [ अं० पोल्ट ] एक प्रकार की लोहे की कील नामक स्थान का गांजा जो बहुत अच्छा समझा जाता है। जिसके एक अोर रोक के लिये घुडी बनी रहती है और (अब यह गांजा और स्थानो में भी होने लगा है। ) दूसरी ओर चूडियों की रेखा । इसी में ढिबरी (नट) कसी बालूचरा-संज्ञा पुं० [हिं० चालू + चर ] वह भूमि जिसपर बहुत जाती है। उथला या छिछला पानी भरा हो । चर । (लश० ) बाल्य'-संज्ञा पुं० [सं०] १ बाल का भाव । लड़कपन । बचपन । बालूदानी-संज्ञा ग्मी० [हिं० बालू + फा० दानी ] एक प्रकार की २. बालक होने की अवस्था । ३. नासमझी । अज्ञता (को॰) । झंझरीदार डिबिया जिसमें लोग बालू रखते हैं । इस वालू से बाल्य-वि० १. बालक संबंधी। बालक का । २. बालक की अवस्था वे स्या ही सुखाने का काम लेते हैं । संबध रखनेवाला । वचपन का । विशेष साधारणत: बहीखाता लिखनेवाले लोग, जो सोख्ते का यौ० बाल्यकाल = दे० 'बाल्यावस्था । व्यवहार नही करते, इसी बालूदानी से तुरंत के लिखे हए लेखों पर बालू छिड रुते हैं । और फिर उस बालू को बाल्यावस्था-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] प्राय: सोलह सत्रह वर्ष तक की उसी डिबिया की झंझरी पर उलटकर उसे डिविया में अवस्था । बालक होने की अवस्था । युवावस्था से पहले की अवस्था। लड़कपन । भर लेते हैं। प्राचीन काल में इसी प्रकार लेखों की स्याही सुखाई जाती थी। बाल्हीका -सज्ञा पुं० [सं०] १. बलख का प्राचीन नाम । २. बाल्हीक का निवासी। बालू बुर्द -वि० [ हिं० बालू + फा० बुदं ( = ले गया बाल द्वारा नष्ट किया हुआ। वाव'-संज्ञा पुं० [सं० वायु, प्रा० धाव ] १. वायु । हवा । पवन । २-सज्ञा पुं० दह भूमि जिसकी उर्वरा शक्ति बालू पड़ने के उ०-दादू बलि तुम्हारे बाप जी गिणत न राणा राव । कारण नष्ट हो गई हो। मीर मलिक प्रधान पति तुम बिन सब ही बाव ।-दादू (शब्द॰) । २. बाई । ३. अपान वायु | पाद । गोज । बालूसाही-संज्ञा स्त्री० [हिं० बालू + साही (= अनुरूप ) ] एक प्रकार की खस्ती मिठाई। मुहा०-बाव रसना = अपान वायु निकलना। पाद निकलना। विशेप- इसके लिये पहले मैदे की छोटी छोटी टिकिया बना लेते हैं और उनको घी में तलकर दो तार के शीरे में डुबाकर बाव--संज्ञा पुं॰ [ फ़ा० वाव ] जमींदारों का एक हक जो उनको निकाल लेते हैं । यह खाने में बालू सी खसखसी होती है। असामी की कन्या के विवाह के समय मिलता है। मड़वच । बालेंदु-संज्ञा पुं० [सं० बालेन्दु ] द्वितीया का चंद्रमा । दूज का चाँद [को०] । बावजा-वि० [फा० वावज ] सभ्य । शिष्ट [को०] । बालेमियाँ-संज्ञा ० [हिं०] गाजी मियाँ । वावजूद-क्रि० वि० [फा०] होते हुए भी । यद्यपि । उ०—समस्त बालेय'-संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बालेया ] १. गदहा । खर । २. पच्चीकारी प्रौर मीनाकारी के वावजूद प्रकृति और प्रेम चावल । ३. वलि राजा का पुत्र (को०)। संबंधी रचनाओं में भी प्रकट होता है। -वंदन०, पृ० २० । वालेयर-वि० १. मृदु । कोमल । २. जो बालकों के लिये लाभदायक बावड़ना-क्रि० प्र० [हिं० बहुरना ] बहुरना। लौटना । हो । ३. जो बलि देने के योग्य हो । बलिदान करने लायक । वापस होना । उ०-मन मेरू से वावड़े, त्रिकुटी लग ४. बलि से उत्पन्न । बलि का (को॰) । ओंकार ।-संतवानी०, भा० १, पृ० १३१ । बालेयशाक-सज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार की घास । भैगरैया । बावड़ाना -क्रि० स० [हिं० बावड़ना का प्रे० रूप] वापस कराना। भृगराज । भैगरा को०] । घूमने या वापस होने के लिये प्रेरित करना । उ०-काला वालेष्ट-सज्ञा पु० [सं०] वेर । नाग को सो पूछ पाछा सू दबायो। फोजो नावड़ी के जाट वालोपचरण-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] बालकों की चिकित्सा या सुश्रूषा [को॰] । पाछो बावड्यायो।-शिखर०, पृ० ८६ । बालोपचार-शा पु० [सं०] दे० 'बालोपचरण'। बावड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० धाप+हिं० ड़ी (प्रत्य०)] १. वह चौड़ा और ७-२८ बालू खुर्द का भुरस ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२३४
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