पासना ३४७६ पासुक महकाना । सुवासित करना । उ०-ददै सुमन तिल बासि कै परु खरि परिहरि रस लेत । -तुलसी (शब्द०)। धासना-क्रि० प्र० [हिं० वास + ना (प्रत्य०), अथवा मं० वसन निवास)] बसना। रहना। निवास करना । उ०-क्या सराय का वासना, सब लोग वेगाना है।-कबीर श, पृ०४॥ वासना-क्रि० स० किसी के बसने वा निवास की व्यवस्था करना। ( बोल० )। वसनी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बसना ( = थैली) ] रुपए पैसे रखने ली जालीदार लंबी एफ थैली जिसमे रुपए रखकर कमर मे बांध लेते थे। नोटो के अधिक चलन से अब यह जाती रही। दे० 'बसना' । उ०—कहा करौं अति सुख द्वै नैना, उमगि चलत पल पानी । सूर सुमेरु समाइ कहाँ लौ बुधि वासनी पुरानी। -सूर०,१०११७८४ । बासफूल-सज्ञा पु० [हिं० वास (= गंध )+फूल ] १. एक प्रकार का धान । २. इस धान का चावल । वासमती-पता पुं० [हिं० वास (= महक )+मती (प्रत्य॰)] १. एक प्रकार का धान । २. इस धान का चावल जो पकाने पर अच्छी सुगंध देता है। वासर-सज्ञा पुं॰ [सं० वासर] १. दिन । २. सबेरा। प्रातःकाल । सुबह । २. वह राग जो सवेरे गाया जाता है। जैसे, प्रभाती, भैरवी इत्यादि। उ०-सर सो प्रति बासर बासर लागे। तन घाव नहीं मन प्राणन खाँगे । केशव (शब्द०)। बासलोका-वि० [फा० वासलीकह ] ढंग से काम करनेवाला। सहूरदार (को०)। बासव-सज्ञा पुं० [सं० वासव ] इंद्र। बासवी-मशा पुं० [सं० वासवि ] अर्जुन । (डिं०) । वासवी दिशा-संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व फी दिशा जो इंद्र की दिशा मानी जाती है। बासस-संज्ञा पुं० [सं० वासस ] वस्त्र । दे० 'वासस्' ।-नंद० पं०, पृ० ८४1 बाससी-संज्ञा पुं० [सं० वाससि ] कपडा । वस्त्र । उ०—तून तेल बोरि बोरि जोरि जोरि बाससी । लै अपार रार ऊन दून सूत सों कसी।-केशव ( शब्द०)। घासा'-संज्ञा पुं॰ [देश॰] १. एक प्रकार का पक्षी । २. भह सा । वासार-संज्ञा पुं० [सं० वास ] वह स्थान जहाँ मूल्य लेकर भोजन का प्रबंध हो। भोजनालय । विशेष-फलकत्ता, बंबई आदि बड़े बड़े व्यापारप्रधान नगरों में भिन्न भिन्न जातियों के ऐसे वासे हैं । इनमें वे लोग, जो चिना गृहस्थी के हैं, निर्धारित मूल्य देकर भोजन करते हैं। वासार-संज्ञा पुं० [हिं० बांस ] एक प्रकार की घास जो प्राकार मे चौस के पत्तो के समान होती है । यह पशुमो को खिलाई जाती है। वासा-संज्ञा पुं०१० 'चास'। वासा -सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पियावास' । वासिगg- ज्ञा पु० [ स० वासुकि, प्रा. वासुगि ] दे० 'वासुकी' । उ०-कहि महिपल बल कितो एक टु हरि धारिय । कहि वासिग बल किचौ सु पुनि करि नेत्रा सारिय |-पृ० रा०, १२७८० । बासित-वि० [ स० वासित ] सुगंधित किया हुआ । सुवासित । उ०-तिनकी बास वायु ल गयो। ता करि सब बन बासित भयो।-नंद० प्र, पृ० २६२ । बासिष्ठो-- ज्ञा स्त्री० [सं० वशिष्ट ] बन्नास ( बनास ) नदी का एक नाम । ऐसा माना जाता है कि बसिष्ठ जी के तप के प्रभाव से ही यह नदी प्रकट हुई थी। बासी'-वि० [ सं० वासर या बाँस ( = गध)] १. देर का बना हुप्रा । जो ताजा न हो। ( खाद्य पदार्थ ) जिसे तैयार हुए अधिक समय हो चुका हो और जिसका स्वाद बिगड़ चुका हो। जैसे,—बासी भात, बासी पूरी, बासी मिठाई । २. जो कुछ समय तक रखा रहा हो। जैसे, बासी पानी । जो सूखा या कुम्हलाया हुआ हो। जो हरा भरा न हो। जैसे, बासी फूल, वासी साग। ४. ( फल प्रादि ) जिसे डाल से टूटे हुए अधिक समय हो चुका हो। जिसे पेड़ से अलग हुए ज्यादा देर हो गई हो। जैसे, वासी अमरूद, बासी भाम। मुहा०-बासी कढ़ी में उबाल पाना=(१) बुढ़ापे में जवानी का उमंग पाना । (२) किसी बात का समय बिलकुल बीत जाने पर उसके सबंध में कोई वासना उत्पन्न होना । (३) असमर्थ में सामर्थ्य के लक्षण दिखाई देना। बासी पचे न कुत्ता खाय% इतना अधिक न बनाना कि बाकी बचे । चाट पोछकर सब कुछ स्वयं खा जाना । अन्य के लिये गुंजाइश न रहना । बासी मुंह = (१) जिस मुह मे सवेरे से कोई खाद्य पदार्थ न गया हो। जैसे, वासी मुह दवा पी लेना। (२) जिसने रात के भोजन के उपरांत प्रातःकाल कुछ न खाया हो। जैसे,-मुझे क्या मालुम कि आप अभी तक बासी यौ०-वासी ईद = ईद का दूसरा दिन । वासी तिबासी = कई दिनो का सड़ा गला। बासी-वि० [सं० वासिन् ] रहनेवाला । निवास करनेवाला। वसनेवाला। उ०-खासी परकासी पुनर्वासी चंद्रिका सी जाको, बासी अविनासी प्रघनासी ऐसी कासी है। -भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० २८२ । बासु-संज्ञा स्त्री॰ [स० वास ] महक । गंध । दे० 'वास' । उ०- तिनकी बासु बायु ले गयो।-नंद० ग्रं०, पृ० २९२ । २. निवास । बास । उ०-वासु छडि कनवज कहें चल्लिय । राजा दल पांगुर सह मिल्लिय ।-५० रासो, पृ० ११६ । बासुक-सज्ञा पुं॰ [सं० वासुकि ] द. 'वासुकि' । उ०-सेसनाय
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२३७
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