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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२३८

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वासुकी पाहर श्री राजा बासुक बराह मुछित होइया है। -कबीर श, बाइना-क्रि० स० [सं० वहन ] १. ढोना, लादना या चढ़ाकर भा०३ पृ० १२ । ले जाना या ले पाना। २. नलाना । फेंकना । (हथियार)। वासुकी [--सज्ञा स्त्रो. [ सं० वासुकि ] दे॰ 'वासुकि' । उ०—(क) लखि रथ फिरत असुर बहू धाए । वाहत अस्त्र तृपति पर घासुदेव-संज्ञा पुं० [सं० वासुदेव ] दे० 'वामुदेव' । उ०-इन श्राए ।-पद्माकर (शब्द०)। (ख) करि फोघ 'सबहिन ते बासुदेव अच्युत हैं न्यारे ।-नद० ग० पृ० १७८ । जोध बहन सार!-ह. रासो, पृ० ८२। (ग) नेही सन मुख जुरत ही तह मन की गिरवान । वाहत हैं रन वावरे तेरे बासुरि@ 3-सज्ञा पु० [स० वासर ] दिन । दे० 'बासर' । उ०- हग किरवान ।-रसनिषि (शब्द०)। (घ) इहित संग बासुरि गमि न रेणि गमि ना सुपने तरगम । कबीर तहाँ उम्भारि विरदि बाही गज मथ्थह । -पृ० रा०, १.६५३ । बिलबिया जहाँ छाहही न धम-कबीर ग्रं॰, पृ० ५४ । ३. गाडी, घोड़े श्रादि को हावना। ४. धारण करना । बासौंधी-सज्ञा स्त्री० [हिं०] ६० 'बसोधी । लेना । पकड़ना । ५. बहना । प्रवाहित होना । उ०-(क) घास्त-वि० [स० ] [ वि० स्त्री० वास्ति ] बकरे का। बकरे से सबंध तज रंग ना रंग केसरि को अंग धोवत सो रंग वाहत रखनेवाला [को०] । जात ।-देव (शब्द०) । (ख) नाता जगत सिंधु मह भंगा। बास्तिफ-संज्ञा पु० [सं०] बकरों का झुड या समूह । अजयूथ [को०] । बाहत कर्म वीचिकन सगा।-रघुनाथ (शब्द०)। (ग) वास्तुफ-वि० [सं० वास्तुक ] शिल्प या वास्तुशास्त्र संबंधी । मैं निरास पो बिनु जिउ पाहा | पास दई ते जिउ घट बाहा । उ.-मनि मंत्र जत्र बास्तुक बिनोद । नेपथ विलास सु -चित्रा०, पृ०६५। ६. खेत जोतना । खेत मे हल चलाना । नितत्त मोद। -पृ० रा०, ११७३२ । जैसे,—आज तो उसने चार बीघा बाह के दम लिया । ७. वाहा -संज्ञा पु० [ सं० वाह १. खेत जोतने की किया। खेत वपन करना । बीज प्रादि बोना । उ०- जो वाहै लुनिएगा सोई । अमृत खाइ कि विष फल होई ।-सुदर० प्र०, भा० की जोताई। चास । २. प्रवाह । निकास । १, पृ० ३३६ । ८. गो, भैस प्रादि को गाभिन कराना। बाह २- संज्ञा पुं॰ [ स०] १. दे० 'वाह' । उ०-सरकी सारी सीस ते ९. कधी करना। वाछना। उ०-बालो को वाहकर सुनतहिं पागम नाह । तरकी बलया कंचुकी दरकी फरकी उनमें तेल डालते थे।-हिंदु० सभ्यता, पृ० ८०। १०. बाह ।-स० सप्तक, पृ० २४८ । २. अश्व ( वहन करने- लगाना । प्रांजना । सारना । उ०-दादू सतगुरु प्रजन वाहि वाला)। करि, नैन पटल सब खोले । वहरे कानो सुगने लागे, गूगे मुख वाहक-संज्ञा पुं०, वि० [ स० वाहक ] १. सवार । २. वहन करने. सौ बोले |-दादू० वानी, पृ० ३ । वाला। ढोनेवाला। बाहकीg--संज्ञा स्त्री० [सं० वाहक+ई ( प्रत्य० ) ] पालकी ले बाहनील-सझा स्त्री० [ सं० वाहिनी ] १. सेना | फौज । २. नदी । चलनेवाली स्त्री । कहारिन । उ०-सजी वाहकी सखी सुहाई। बाहवली-संज्ञा सं० [हिं० वाह+चल ] कुश्ती का एक पेंच । लीन्ही शिविका कंध उठाई।-रघुराज ( शब्द०)। बाहम-क्रि० वि० फा०] आपस मे। परस्पर । एक दूसरे के पाहड़ी-सशा सी० [ देश० ] वह खिचड़ी जो मसाला और कुम्हड़ौरी साथ। डालकर पकाई गई हो। बाहर'-क्रि० वि० [स. वाह्य या बहिर ] १. स्थान, पद, अवस्था या सवध प्रादि के विचार से किसी निश्चित अथवा कल्पित बाहन'-संग पुं० [ देश० ] १- एक बहुत लबा पेड़ जिसके पत्ते जाडे के दिनों में झड़ जाते हैं। सीमा (या मर्यादा) ते हटकर, अलग या निकला हुआ। भीतर या अंदर का उलटा । उ०—तुलसी भीतर बाहरहुँ जो विशेप-इसके हीर की लकड़ी बहुत ही लाल और भारी होती चाहेसि उजियार —तुलसी (शब्द०)। है और प्रायः खराद धौर इमारत के काम मे पाती है। २. सफेदा नाम का एक पेड़ जो बहुत ऊँचा होता है और बहुत मुहा०-बाहर श्राना या होना= सामने आना । प्रकट होना। जल्दी बढ़ जाता है। बाहर करना= अलग करना। दूर करना । हटाना । बाहर विशेप-यह काश्मीर मौर पंजाब के इलाकों में अधिकता से बाहर = ऊपर ऊपर । बाहर रहते हुए । अलग से। विना पाया जाता है। इसकी लकड़ी प्राय: पारायशी सामान किसी को जताए । जैसे,—वे कलकत्ते से पाए तो थे पर बनाने के काम मे पाती है। बाहर वाहर दिल्ली चले गए। पाहन-संज्ञा पुं० [सं० वाहन ] दे० 'वाहन' । उ०-असवार २. किसी दूसरे स्थान पर | किसी दूसरी जगह । अन्य नगर डिगत वाहन फिर मिरै भूत भैरव विकट । हम्मीर०, या गांव प्रादि में। जैसे,—(क) माप वाहर से कब लौटेंगे। उन्हें बाहर जाना या, तो मुझसे मिल तो लेते । उ०- पृ० ५८। वाहनहारा-वि० [हिं०] धारण करनेवाला । सहन करनेवाला । कता ते सुसो तेहि गारू तेहि गर्व । कंत पियारे उ०-जाय पूछ वा घायल, दिवस पीर निसि जागि । बाहन- सुख भूला सर्व । -जायसी (शब्द॰) । हारा जानिहै, के जाने जिस लागि ।-कवीर सा० सं०, का%ऐसा प्रादमी जिससे किसी meer भा०१, पृ० २७॥ हो । वेगाना । पराया।