पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६१

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विपत्त, विपत्ति विवादक वरस इनपर विपति परै किन माई ।-भारतेंदु ग्र०, भा० अप अनुज सौं, विचर विवर बातें जु हुव ।-ह० रासो, १, पृ०५०६ पृ० ४८॥ विपत्त, बिपत्ति-संचा सी० [देशी] दे० 'विपत्ति' । विबरजित-वि० [ग विवर्जित ] दे० 'विवज्जित' । उ०- विपद, विपदाल --सज्ञा स्त्री० [सं० विपद् ] आफत । मुसीवत । मूरुष सौ विवरजित रहना, प्रगट पसू समान -रामानंद, संकट । विपत्ति। पृ. ३४। विपर@f-सज्ञा पु० [सं० विप्र ] ब्राह्मण। उ०--अपढ़ विपर विबरन@-वि० [ सं० चियर्ण ] १. जिसका रंग खराब हो गया जोगी घर वारी। नाथ कहै रे पूता इनका सग निवारी।- हो। बदरंग । २. चिता या ग्लानि प्रादि के कारण जिसके गोरख०, पृ०५०। चेहरे का रंग उड गया हो। जिसके मुख की काति नष्ट विपाकु-ज्ञा पु० [सं० विपाक] परिणाम | फल । दे० 'विपाक' । हो गई हो। जिसका चेहरा उतरा हो। उ०-(क) विवरन उ०-राम बिरह दसरथ दुखित कहति कैकई काकु । कुसमय भयउ निपट नरपान्लू । दामिन हने उ मन्ह तर तान्नू।- जाप उपाय सव केवल करम विपाकु।-तुलसी में, तुलसी (शब्द०)। (स) बिबरन भयउ न जाइ निहारी । मारेसि मनहु पिता महतारी । तुलसी (शब्द०)। पृ०६८। विपाशा, बिपासा-मा सी० [सं० विपाशा ] व्यास नदी । विवरन-संज्ञा पुं० [ स० विवरण ] दे० 'विवरण' । उ०- विपुंगवासन-संज्ञा पु० [ ? ] गरुद है वाहन जिसका-विष्णु शान संपूरन प्रेम रस वियरन करो विचार ।-६० सागर, अर्थात् कृष्ण । उ०-प्ररुन अयन संगीत तन वृदावन हित पृ० २२ । जासु । नगघर कमला सकत वर विपुगवासन पासु । -स० विवर्त-संज्ञा पुं० [सं० विवर्त ] दे॰ 'विवत' । उ०-जग विवतं सप्तक, पृ० ३२६ । सू न्यारा जान। परम प्रदत रूप निर्वान!-दया. विपोहना-कि स० [हिं०] गूथना । ग्रथित करना । बानी, पृ० १६ । विप्रिय-वि० [ स० विप्रिय ] अप्रिय । उ०-ऐसे बहुते विप्रिय विवस-वि० [म० विवश] १. मजबूर । विवश ! उ०-नंददास वैन । कहे जु प्रीतम पंकज नैन ।-नद० ग्रं॰, पृ० ३१६ । प्रभु की छवि निरखत विवस भई अजवाल ।-नंद० प्र०, विप्रीति-वि० [सं० विपरीत ] उलटा। विपरीत । उ०- पृ. ३७८ । २. परतत्र । पराधीन ।-मनु अंबुज वन बास विप्रीति बुद्धि कोने दई, हीन वचन मुख नियकरै ।-ह. विवसु है, अलि लंपट उठि घाए ।-नंद०, ०. ० ३८१ । रासो, पृ० ११७ । घियस-क्रि० वि० [सं० विवस] विवश होकर । लाचारी से । विफरल-वि० [हिं० ] दे० 'विफल' । वेवसी की हालत में। 30-बिबसहु जासु नाम नर कहहीं। जनम भनेक रचित प्रघ दहहीं।-जुलसी (शब्द०)। विफरना+-क्रि० स० [सं० विस्फुरण, या विप्लवन ] विप्लव करने पर उद्यत हो जाना । वागी होना। विद्रोही होना। विवसाना-क्रि० प्र० [हिं० विवश ] विवश होना । लाचार १०-घूमति हैं झुक झमति है मुख चूमति हैं थिर है न थकी ये । चौकि पर चितवै विफर सफर जलहीन ज्यो प्रेम यिवहार-संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार, प्रा० विवहार ] दे० पकी ये । रोझति हैं खुलि खोझति हैं अनुवान सो भीजती व्यवहार। सोभ तकी ये । ता छिन तें उछकी न कहूं सजनी अंखिया विवाई-संज्ञा सी० [सं० विपादिका ] एक रोग जिसमें पैरों के हरि रूप छकी ये ।-(शब्द०)। २. बिगढ़ उठना । तलुए का चमड़ा फट जाता है और वहाँ जस्म हो जाता नाराज होना।-उ०-विफरे सब बोर सुधीर मनं ।-ह. है। इससे चलने फिरने में बहुत कष्ट होता है । यह रोग रासो, पृ० १५७ । प्रायः जाडे के दिनों में प्रौर बुड्ढों को हुमा करता है। विवछना-क्रि० अ० [सं० विपक्ष, हिं० विपच्छ ] १. विरोधी उ.-जिसके पैर न फटी विवाई। वह क्या जाने पीर होना। २. उलझना। पटकना । फंसना । उ०-विछि पराई।-(शब्द०)। गयो मन लागि ज्यों ललित त्रिभगी संग । सूधो रहे न और कि०प्र०-फटना। तनि नउत रहै वह अंग ।-रसनिधि ( शब्द०)। विवाका-वि० [अ० येयाक ] दे० 'बेशराक'। उ०-स्वारथ रहित विवध-वि० [सं० विविध ] दे॰ 'विविध'। उ०-ललित परमारथी कहावत हैं भे सनेह विवस विदेहता विबाके हैं।- विलोकनि पै विवध विलास है।-मति० ग्रं०, पु० ४२० । तुलसी (शब्द०)। विवधान-संज्ञा पु० [म० व्यवधान, प्रा० विवधान ] दे० 'व्यव- विचाकी-संज्ञा स्त्री० [प्र. बाकी ] १. वेबाक होने का भाव । धान' । उ०—चित विवधान सहति नहिं सोई। रूप मंजरी हिसाव मादि का साफ होना। २. समाप्ति । मंत । उ०- अस रस भोई। नंद० प्र०, पृ० १४२ । रिपि हित राम सुकेतु सुता की। सहित सेन सुत कीन्हि। विवर'-संज्ञा पुं० [सं० विवर ] दे॰ 'विवर' । विवाकी।-मानस, १।२४ । विवरण-वि० [सं० विवरण ] व्योरेवार । उ०-निज धाम प्राय विवादक-वि० [सं० विवादक ] दे० 'विवादी'। उ०-सुदर होना। 1