विरतांत ३५०४ विरवाही पृ० १३१ । (ख) सांख्य योग और नौधा भक्ती। सुपना में विरा-वि० [सं० वृष ] दे० 'वृद्ध' । इनकी विरती।-दरिया० वानी, पृ० २५ । विरघाई।-संज्ञा स्त्री० [हिं० घिरध+आई (प्रत्य॰) ] बुढ़ापा । विरतात@+-सज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त ] दे० 'वृत्तांत'। वृद्धावस्था । विरता-संज्ञा पु० [सं० वृति (=स्थिति)] १. वृता । वल । शक्ति । बिरधापन-सशा ० [सं० वृद्ध + हिं० पर (प्रत्य॰)] वद्य उ०—(क) राजा साहब कहेगे, फिर गए ही किस विरते पर होने का भाव । बुढ़ापा । २. वृद्ध होने की अवस्था । थे।-काया०, पृ० २२६ । (ख) सच्ची बात तो दीवान साहब वृद्धावस्था । उ०-शेरो नंद बहुत यश पायो । जिन विरधा- है कि झांसी बिचारी का कोई विरता नहीं ।-झांसी०, पृ० पन सुत जायो । -भारतेंदु ०, भा२, पृ० ४२४ । ३८४ । २. वृति । योगक्षेम । प्रान विका। व्यवहार स्थिति । घिरम-संशा पुं० [सं० प्रा० पिरम चा यिलाय ] विराम । पटकाव । विरताना@-क्रि० स० [सं० वर्तन ] विभाग करके सबको अलग विलय । उ०-हा हा हा फिर हा हा मुखनिधि विरम न अलग बना। वौटना । वितरण करना । जात सह्यो।-धनानद, पृ० ३४६ । बिरवि-संशा सी० [ स० विरत ] दे० 'विरक्ति' । घिरमना-क्रि० प्र० [मपिलम्बन ] १. ठहरना । रुकना । विरतिया-सज्ञा पु० [सं० वृत्ति + हिं० इया (प्रत्य०) ] हज्जाम विलंब करना। २. सुसाना । प्राराम करना । ३. मोहित या चारी श्रादि की जाति का वह व्यक्ति जो विवाह संबंध होकर फंस रहना। ठीक करने के लिये वर पक्ष की ओर से कन्यावालो के यहाँ विरमाना'-क्रि० स० [हिं० यिरमना का सक० रूप ] १. ठहराना । अथवा कन्गा पक्ष से वरपक्ष की योग्यता, मर्यादा, अवस्था रोक रसना । २. मोहित करके फंसा रखना । उ०-रामे पादि देखने के लिये जाता है । वरेखी करनेवाला। पिय बिरमाइ स पावन ना दिया ।-दर ग्र०, भा० १, बिरथ'-वि० [स० व्यर्थ या वृथा ] दे० 'बिरथा'। उ०- सब धर्म विधसक । निरदै महाविरथ पसुहिंसक ।-नद. पृ० ३६४ । ३. व्यतीत करना । गु नारना । बिताना । मतिभ्रंसक न०, पृ० २५२ । विरमाना'-क्रि० प्र० [स० विराम] विश्राम करना । सुस्ताना । बिरथरे-वि० [सं० विस्थ] दे० 'विरथ' । १. जो रथ पर या रथवाला उ०-वत स्वेत मकरंद कन तरु तरु तर विरमाइ । प्रावतु न हो । उ०-रावन रथी बिरथ रघुबीरा ।—मानस, ६।७६ । ६च्छिन देस ते थक्यो बटोही वाइ। -बिहारी (शब्द॰) । २. रथ से च्युत । रथ से रहित । उ०-घरि फच विरथ विरराना-क्रि० स० [हिं० पिलगाना ] अलग करना । त्याग कीन्ह महि गिरा-मानस, ३।२३ । करना । छोड़ना । उ०-धीरज धन मैं दीन्ह लुटाई । नीति विरथा" -वि॰ [ स० वृथा ] निरर्थक | फिजूल । बेकाम । व्यर्थ । सहचरी सो बिर राई-द०, पृ० १५२ । उ०-ऊठत वैठत जागत, यह मन तुझे चितारे । सुख दूख विरराना-कि० अ० [हिं० बिल लाना ] दे० 'बिललाना'-२ । इस मन की बिरथा तुझही मागे सारे ।-संतवानी०, भा०२, उ0-1ब वह सुररानो बिलखानो । प्रायो कितहूँ ते विर- पृ० ४८ । रानो ।-नद०, ग्रं० पृ० ३१२ । बिरथा-क्रि० वि० बिना किसी कारण के । अनावश्यक रूप से । विररेल-वि० [हिं० विरला का बहु ५० ] दे० 'बिरला'। बिरदग-शा पु० [हिं० सिरदरा ] दे० 'मृदग' । उ.- कहैं कबीर सुनो भाई साधो विररे उतरिगे पार - घिरदा-सज्ञा पुं० [सं० विरुद] १. घड़ाई । यश । नेकनामी । २. कबीर० श०, भा० ३, पृ०२८ । दे० 'विरद। बिरल-वि० [सं० विरल ] दे० 'विरल'। उ०-बहु सद्धर्मपरायन बिरदाना-संज्ञा पुं० [हिं० बिरद+ना (प्रत्य०) ] यशगान । जस कहुँ बिरल सुनाहीं।-प्रेमघन॰, भा०१, पृ० ५। गुण वर्णन करना। उ०-नाना विरद बंदि बिरदावै।- ह. रामो, पृ०७६ । बिरला-वि० [सं० विरल ] कोई कोई । वहुत में से कोई एक आध । विरदेत, घिरदैत'-संज्ञा पु० [हिं० बिरद+ऐत (प्रत्य॰)] बहुन इक्का दुक्का । जैसे,-साहित्य क्षेत्र में ऐसा कोई बिरला अधिक प्रसिद्ध वीर या योद्धा । ऐसा वीर या दानी पुरुष ही होगा जो प्रापको न जानता हो । जिसका नाम बहुत दूर तक हो। जिसके नाम का विरद विरले-वि० [हिं० बिरला का बहु व० ] कुछ । इने गिने'। उ०- ते विरले जग देखिए कहुँ हजार मैं एक । -स० सप्तक, घिरदेत, विरदैत-वि० प्रसिद्ध । बिरदवाला। श्रेष्ठ। नामी। पृ०३६८। उ०-त्रौढोकति तासो कहत, भूषन कवि बिरदेत ।-भूषण बिरवा -संशा पुं० [ स० विहह ] १. वृक्ष । २. पौधा । ३. चना । ग्रं ०, पृ० २६८। बूट। विरदालि-सज्ञा श्री० [सं० विरुदालि ] दे० 'विरुदावलि'। बिरवाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० घिरवा+ई (प्रत्य॰)] दे० 'विरवाही' । उ.-दावंड बुल्लि बिरदालि वक ।-० रासो०, पृ० ५३ । विरह-शा पु० [हिं० विरद ] दे० 'विरद' । -सुनत विरह विरवाही-संथा स्त्री० [हिं० विरवा + ही (प्रत्य॰) ] १. छोटे पौधों का वाग या कुंज । छोटे पौधों का समूह । २. वह स्थान जहाँ वीर गलगाजे। हम्मीर०, पृ० २५ । छोटे छोटे पौधे उगाए गए हों। बखाना जाय।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६५
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