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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६४

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बियो' विरत बियो'-संज्ञा पु० [हिं०] बेटे का बेटा । पोता। पिरखा-संशा स्रो० [सं० वर्पा ] दे० 'बरखा' । उ० - बरसते मेघ वियो-वि० [हिं०] दे० 'विय' । भलते ही बिरखा, कोन काम प्रापनी उन्होत रखा ।- दक्खिनी०, पृ० २०२। बियोग-संज्ञा पुं० [सं० वियोग ] दे॰ 'वियोग' । उ०-चढ़ा वियोग चलेउ होइ जोगी।--जायसी पं० (गुप्त), पृ० ३२८ । बिरगिंध-संज्ञा स्त्री० [हिं० विर ( = विपरीत या बुरा) +गंध] विकृत या विपरीत गध | दुर्गध उ०-पातुर लोभी बियौल-वि० [हिं०] दूसरा । उ०-परमानंद भगत के बस सो, अधिक ढिठाई। मन्मथ जल विरगंध वसाई।-चित्रा०, उपमा कोंन बियो ।-नोहार अभि० ग्र०, पृ० २४० । पृ०२१४। विरंग-वि० [हिं० वि (प्रत्य॰)+ रंग] १. कई रंगों का । जिसमें एक से अधिक रंग हो । जैसे, रंग बिरंग । २. बिना रंग का। बिरगिड-संज्ञा स्त्री० [अं० ब्रिगेड ] १. सेना का एक विभाग जिसमें कई रेजिमेंट या पलटनें होती हैं। २. काम करने- जिसमें कोई रंग न हो। वालों का कोई ऐसा दल जो एक तरह की वर्दी पहनता हो बिरंच-पंज्ञा पुं० [सं० विरञ्चि] दे० 'विरंचि' । उ०-अर्जुन ज्यों और एक ही अधिकारी की प्रवीनता में काम करता हो। धनुधर अवधि तिहि सम और न होइ। तिम तुव प्रेम अवधि जैसे, फायर ब्रिगेड। सुबुधि रची बिरंच न कोइ ।-अनेकार्थ०, पृ०८ । विरचना-क्रि० स० [सं० विरञ्चन ] विशेष रूप से संवारना । बिरंचना-संज्ञा स्त्री॰ [देश०] लरी। माला की लडी । उ०-कोटि रचना । उ०-कोऊ चदन घसत विरचि कोउ तिलक ग्रंथ को अर्थ तेरह विरंचन में गाई ।-भक्तमाल, पृ० ५५२ । लगावत ।-प्रेमघन॰, भा०१, पृ० २३ । बिरंचि -संज्ञा पुं० [सं० विरञ्चि ] ब्रह्मा । बिरचना-क्रि० प्र० [सं० विरञ्जन ] क्रोध करना। राग से बिरंज-संज्ञा पुं० [फा० विरंज़] १. चावल | २. पका हुप्रा चावल । रहित होना । उ०-बीदग बिरचो वीनड़ो, हठ गाढ़ी भात | ३. पीतल । लेहल्ल |-बांकी० ग्रं०, भा०३, पृ० १ । बिरंजारी-ज्ञा पुं० [फा०] व्यापारी [को०] । विरछ, बिरछा-संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष ] पौधा । विरवा । उ०- विरंजी-संशा स्त्री० [?] लोहे की छोटी कील । छोटा काटा। (क) निज लक्ष सिद्धि सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सीच बिरंव-संज्ञा पुं० [सं० बिलम्ब ] दे० 'विलंब' । उ०—सत्य कहत रही थीं पर्णकुटी के विर छ.। -साकेत, पृ० २०२ । (ख) कछु करत न खेला । पावहु चलि न विरंव की वेला। बिरछा पूछे वोज को, वीज वृक्ष के माहि। जीव जो टूढ़े -नंद० प्र०, पृ० २६८ । ब्रह्म को ब्रह्म जीव के पाहिं । कबीर सा० सं०, पृ० १६ । विना-मशा पुं० [हिं० धीर ] भाई। उ०-ए पिया, मेरे मन बिरछिक बिरछीक@f-संज्ञा स्त्री॰ [स० वृश्चिक ] दे॰ वृश्चिक' । भाई ऐ यूँ दरी । ए धन, अपने विरेन पे मागि।-पोद्दार बिरज-वि० [सं० वि + रज( = शुद्ध) ] १. निर्मल । शुद्ध । २. अभि० ग्रं॰, पृ० ६१४ । रजोगुण रहित । उ०-ग्रहा जो व्यापक बिरज अज प्रकल विर+-संज्ञा पुं० [हिं० बीर ( = भाई) ] दे॰ 'बीर' । इ०-मन अनीह प्रभेद -मानस ११५० । फूला फूला फिरै, जक्त में केसा नाता रे । माता कहै यह पुत्र हमारा, बहिन कहै बिर मेरा रे । -संतबानी०, भा० २, बिरझना -क्रि० प्र० [सं० विरुद्ध्य + (ति)] उलझना । झगडना । उ.-बदन चद्र के लखन को शिशु ज्यो विरझत नैन । -रसनिधि (शब्द०)। विरई-संज्ञा स्त्री० [हिं० बिरवा ] १. जड़ी बूटी । २. छोटा पौधा । बिरमाना-क्रि० प्र० [हिं० बिरुझना का प्रेर०] १. दे० 'बिरझना'। बिरकत-वि० [ स० विरक्त] दे० 'विरक्त' । उ०—(क) कामणि २. क्रुद्ध होना । रुष्ट होना। अंग बिरकत भया रत भया हरि नांद।-कबीर पं०, पृ० ५१ । (ख) बैरागी विरकत भला मे ही चित्त उदार । विरतंतg+-क्रि० प्र० [ स० वृत्तान्त ] दे॰ 'वृत्तांत'। उ०- दोउ बातों खाली पड़े, ताको वार न पार ।-सतबानी०, (क) फहत जुद्ध विरतंत अंत अरि को करि घाइय । भा० २, पृ० ४७। (ग) जल ज्यों निर्मल होय सदा बिरकत -सुजान०, पृ० ३५ । (ख) प्रान बचत दीसत नही, जानि वही। तजे न शीतल अंग बसे नित ही मही।-मन लियो विरतंत ।-हम्मीर०, पृ० ३६ । विरक्त०, पृ० २४६ । बिरत'- वि० [सं० विरत ] दे० 'विरत' । बिरख-सञ्चा पु० [सं० वृक्ष ] दे० 'वृक्ष' । Sara-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वृत्त ] वृत्तांत । विवरण। उ०-प्रथम विरखबा-शा पु० [सं० वृपभ ] दे० 'वृषभ' । उ०-ब्राह्मन नाम कहो जु तुम विरत कहो सु विशेष । -ह. रासो, विरखव को साजा ।-द० सागर, पृ० ५३ । ५७। बिरखभई-संज्ञा पुं० [सं० वृपभ ] दे० 'वृषभ' । उ०- पशा पुं० [सं० वृत्ति] [सो० घिरती 1 - की भक्सि विन, राजा बिरखम होय । माटी लदै कु जीविका । उ०-(क) इसमें चिर घास न डार कोय ।-कबीर सा० सं०, पृ०.१७ । जिससे हिंदी विरत नि..