सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फगवान् ३२६६ फतहमंद फणवान् --संज्ञा पु० [स० फणवत् ] सर्प । फणिप्रिय-सज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा । फणा-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] दे० 'फण' । फणिफेन-सशा पु० [सं० ] अफीम । अहिफेन । यो०-फणाकर = सांप । फणाघर = (१) सपं । (२) शिव । फणा- फणिभापित - वि० [सं०] पतंजलि द्वारा उक्त या कथित [को०)। फलक सांप के फण का पाभोग या विस्तार । फणाभर, फणिभाष्य-संज्ञा पुं० [स] पतजलि रचित व्याकरण ग्रंथ । फणाभृत्-सर्प। महाभाष्य [को॰] । फणाल-वि० [ स० फण + हिं० श्राल (प्रत्य॰) ] फणवालो । फणिभुज--संज्ञा पुं० [ सं० फणिमुक् ] १. गरुड़ । २. मोर (को०)। उ०-सहस फणालइ काल भूयंग, जीमण थी उतरउ वामेइ फणिमुक्ता [-सज्ञा स्त्री० [सं०] सांप की मणि । अंग ।-बी० रासो, पृ० ५६ । फणिसुख-सज्ञा पु० [सं० ] प्राचीन काल का चोरों का एक प्रकार फणावान्-सज्ञा पु० [ स० फणावत् ] सांप [को०] । का प्रौजार । फणिक-संज्ञा पु० [स० फणि+हिं० क (प्रत्य॰) ] साँप । नाग । विशेप-इससे वे सेंध लगाने के समय मिट्टी खोदकर फेंकते थे। उ.-सखी री नंदनदन देखु । धूरि धूसरि जटा जुटली हरि किए हर भेखु । नीलपाट पिरोइ मरिण गर फरिणक घोखे फणिलता, फणिवल्ली--संज्ञा स्त्री० [स०] नागवल्ली । पान । जाय । खुन खुना कर हँसत मोहन नचत डोरु बजाय ।- फणिहंत्री-सज्ञा स्त्री॰ [ स० फरिणहन्त्री ] गंवनाकुली। नेउरकंद । सूर (शब्द०)। रास्ना। फणिकन्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] नागकन्या। नाग की कन्या (को०)। फणोंद्र-सज्ञा पुं० [ स० फणीन्द्र ] १. शेषनाग । २. वासुकी । ३. फणिका-संज्ञा स्त्री० [सं० ] काले गूलर का पेड़ । महर्षि पतंजलि । ४. बड़ा सांप । फणिकार-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम जो बृहत्संहिता फणो-शा पुं० [सं० फणिन्] १. साप । उ०-काल फणी की मणि के अनुसार दक्षिण में था। पर जिसने फैलाया है अपना हाथ । -साकेत, पृ० ३८६ । फणिकेशर-सज्ञा पुं॰ [सं०] नागकेसर । २. केतु नामक ग्रह । ३. सीसा । ४. मरुवा । ५. महाभाष्य- फणिकेसर-सज्ञा पुं० [सं०] नागफेसर । कार पतंजलि का नाम (को०) । ६. सर्पिणी नामक ओषधि । फणिखेल-संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी का नाम [को॰] । फणीश-संज्ञा पु० [स०] १. शेष । २. महर्षि पतंजलि । ३. फणिचक्र-सज्ञा पु० [ स०] फलित ज्योतिष के अनुसार नाड़ीचक्र वासुकि । ४. बड़ा सांप। फणीश्वर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] दे० 'फणीश' [को०] । विशेप-यह एक सर्पाकार चक्र होता है जिसमें . भिन्न भिन्न फणीश्वर चक्र--सशा पुं० [सं०] एक प्रकार का चक्र । स्थानो पर नक्षत्रो के नाम लिखे रहते हैं । इस चक्र से विवाह विशेष-इसके द्वारा शनि ग्रह की नक्षत्रस्थिति से सप्त दीपों के समय वर और कन्या की नाड़ी का मिलान किया जाता के शुभ अशुभ फल का कथन होता है। है। पर यदि वर और कन्या दोनों एक ही राशि के हों तो इस चक्र का मिलान नहीं होता। फतवा-संज्ञा पुं० [अ० फ़त्वा ] मुसलमानों के धर्मशास्त्रानुसार (जिसे शरम कहते हैं ) व्यवस्था जो उस धर्म के प्राचार्य या फणिजा-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक प्रकार की तुलसी, जिसकी पत्तियाँ मौलवी प्रादि किसी कर्म के अनुकूल वा प्रतिकूल होने के बहुत छोटी छोटी होती हैं । विषय में देते हैं। फणिजिह्वा-संज्ञा स्त्री॰ [स०] १. महाशतावरी। बड़ी सतावर । क्रि० प्र०-देना ।-लेना । २. कॅगहिया नामक प्रोषधि । महासमंगा। फतह-संशा जी० [अ० फ़तह ] १. विजय । जीत । उ०—(क) फणिजिबिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] दे० 'फरिणजिह्वा'। दास तुलसी गई फतह कर अगम को । सुरत सज मिली वहाँ फणिज्म-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'फरिणज्झक' । प्रोतम प्यारा ।-तुरसी० श०, पृ० २१ । (ख) कभी उस फणिज्मक-सा पु० [सं०] १. छोटे पत्ते की तुलसी । फणिजा । बेईमान के सामने लड़कर फतह नही मिलनी है। -भारतेंदु २. श्यामा तुलसी । ३. नीबू । ग्र०, भा० १, पृ० ५२१ । फणित-वि० [सं०] १. गत । गया हुआ । २. द्रवित । तरल किया २. सफलता । कृतकार्यता। हुमा [को०)। कि प्र०—करना ।-पाना ।मिलना ।—होना । फणितल्प-संज्ञा पु० [सं० ] सर्प की शय्या [को०] । यौ०-फतहनामा=वह कविता या लेख जो किसी के विजयो- फणितल्पग-सज्ञा पु० [सं०] विष्णु । पलक्ष्य में लिखा जाय । फतहमद। फतहयाव-विजेता। जिसने फणिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० फणिन् ] १. सापिन । २. एक ओषधि । विजय पाई हो । फतहयाबी = विजयप्राप्ति । जीत होना। सपिणी (को०] । फतहमंद-वि० [अ० फ़तह +फ़ा० मंद ] जिसे फतह मिली हो। फणिपित-संशा पु० [स०] दे० 'फणीद्र' । जिसकी जीत हुई हो । विजयी । का नाम ।