पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फतीत ३२६७ फैनंकना फतात-संज्ञा स्त्री० [अ० फतात ] युवती । तरुणी। जवान फतूही-संज्ञा स्त्री० [अ० फ़तही ] १. एक प्रकार की पहनने की औरत [को०)। कुरती जो कमर तक होती है और जिसके सामने बटन या फतिंगा-संज्ञा पुं० [सं० पतङ्ग] [स्त्री० फतिंगी ] किसी प्रकार घुडी लगाई जाती है। इसमें प्रास्तीन नहीं होती। सदरी । का उड़नेवाला कीड़ा, विशेषतः वह कीड़ा जो बरसात के उ०-फतुही को वेस्ट कोट पुकारती ।-प्रेमधन०, भा० २, दिनों में अग्नि या प्रकाश के आसपास मंडराता हुमा त में पु० २५६ । २. बहकटी। सलूका । ३. विजय या लूट का उसी में गिर पड़ता है। पतिंगा। पतंग । उ०-जो हमें धन । लड़ाई या लूट मे मिला हुआ माल । मेली दिए जैसा मिले। हो फतिंगे के मिलन साजो मिलन । क्रि० प्र०-मारना। -चुभते०, पृ० ६५॥ फते-संज्ञा स्त्री० [अ० फ़तह] दे० 'फतह'। उ०-(क) रणव- फतील-संज्ञा पुं० [अ० फतील ] दे० 'फतीला'। भवर की फते दे, कदमू पाऊँ चाह । ह० रासो, पृ० ८४ । फतीलसोज -संज्ञा पुं० [अ० फतील + फ़ा० सोज़ ] १. पोतल या (ख) सामां सैन सयान की सबै साहि के साथ । बाहुबली पौर किसी धातु की दीवट जिसमें एक वा अनेक दिए कार जयसाहि जू फते तिहारे हाथ ।-बिहारी (शब्द॰) । (ग) नीचे बने होते हैं । चौमुखा। फिरयो सुफेरि साथ कों। फते निसान गाथ कों। -सूदन विशेष-इनमें तेल भरकर वत्तियां जलाई जाती है। उन दीपों (शब्द०)। में किसी में एक, किसी में दो और किसी में चार बत्तियां फतेह--संज्ञा स्त्री० [अ० फ़तह ] विजय । जीत । जय । उ०- जलती हैं। भौसिला अभंग तू तो जुरत जहाँई जंग तेरी एक फतेह होत २. कोई साधारण दीवट । चिरागदान । मानो सदा संग री।-भूषण (शब्द०)। फतीला-संज्ञा पुं० [अ० फ़तीलह] १. वत्ती के प्राकार में लपेटा फतैg -संज्ञा स्त्री० [अ० फत्ह ] दे० 'फतह' । उ०-जीत कागज जिसपर यंत्र लिखा हो। पलीता। उ०—ताबीज लीधी जमी कठथी जेजरी; पराजे हुई नह फतै पाई।-रघु० फतीला फाल फिसू और जादू मंतर लाना है।-राम० धर्म, रू०, पृ० ३१ । पृ० १२ । २. वह बत्ती जिससे रंजक में भाग लगाई जाती फत्कारी-सज्ञा पु० [ सं० फकारिन् ] पक्षी को॰] । है । ३. दीपवतिका । दीए की बची। ४. जरदोजी का काम फह-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० फत्ह ] दे० 'फनह' । उ०-प्राज यह फह करनेवालों की लकड़ी की वह तीली जिसपर बेल बूटा और का दरबार मुबारक होए ।-भारतेदु ग्रं॰, भा॰ १, पृ० फूलों की डालियां बनाने के लिये कारीगर तार को ५४२॥ लपेटते हैं। फत्थर-संञ्चा पु० [सं० प्रस्तर, प्रा०, हि. पत्थर] दे० 'पत्थर'। यौ०-फतीलासोज ३० 'फतीलसोज' । उ०-तू नादिर हुनर हुनर सू करेगा अगर। फत्यर • सोना फतुही-संज्ञा स्त्री॰ [अ० फ़तूहो ] दे० 'फतुही' । उ०-झंगले के होर सोने • फत्थर ।-दक्खिनी०, पृ० ३४६ । घजाय वे बटन की फतुही पहने ।-अभिशप्त, पृ० १३८ । फदकना-क्रि० अ० [अनु०] १. कद फद शब्द करना । भात, फतूर-संज्ञा पुं० [अ० फुतुर ] १. विकार । दोष । रस प्रादि का पकने समय फदफद शव्द करके उछलना । क्रि० प्र०-श्राना। खदबद करना। २. दे० 'फुदकना' । उ०-फूले फदकत लै २. हानि । नुकसान । ३. विघ्न । बाधा। फरी पल कठाछ करवार । करत बचावत बिय नयन पायक क्रि० प्र०-डालना ।-पड़ना ! घाव हजार ।-बिहारी (शब्द०)। ३. स्पंदित होना। ४. उपद्रव । खुराफात । लहराना । तरंगित होना। छलकना । उ०-गक पद माँहों पहोकर फदके, दादर भर्रय झिलारै। चाम्रिग मैं चौमासौ क्रि० प्र०-उठाना ।-खड़ा करना। बोले, ऐसा समा हमारे ।-गोरख०, पू० २११ । फतूरिया-वि० [अ० फ़तूर, हिं० फतूर+इया (प्रत्य॰) ] जो किसी फदका-जज्ञा पुं० [हिं० फदकना ] गुड़ का वह पाग जो बहुत प्रकार का फतूर या उत्पात करे । खुराफात करनेवाला । अधिक गाढ़ा न हो गया हो। फदाना-क्रि० स० [हिं० फंदाना ] फंसना । ग्रस्त होना । फंदे फतूह-संज्ञा स्त्री० [अ० फत्ह 'फ़तह' का बहुवचन ] १. विजय । में होना । उ०-दुनिया माया मोह फदाना। राग रंग जीत । जय । उ०-(क) सुनत फतूह शाह सुख पायो । बढि निशिवासर साना ।-कवीर सा०, पृ० २७० । नवाब को मन सव प्रायो।-लाल (शब्द०)। (ख) दबटयो जोर सुभट समूह । वह बलिराम लेत फतूह ।-सूदन फदफदाना-कि० अ० [ अनु०] १. शरीर में बहुत सी फुसिया या गरमी के दाने निकल पाना। २. वृक्षो में बहुत सी (शब्द॰) । (ग) पुहमि को पुरहूत शत्रुशाल को सपूत संगर फतूहैं सदा जासों अनुरागती।-मतिराम (शब्द०)। २. शाखाएँ निकलना । ३. दे० 'फदकना'--१ । विजय में प्राप्त धन मादि । वह धन जो लड़ाई जीतने पर फदिया-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'फरिया"। मिला हो। ३. लूट का माल । फनंकना-क्रि० अ० [अनु०] फन् फन शब्द करना । फनकना । उपद्रवी।