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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७६

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विसारद विसूरना हेत करि, बिसारद-संज्ञा पुं० [सं० विशारद ] दे० 'विशारद'। बिसाहना--संज्ञा पुं० १. मोल लेने की वस्तु । काम की चीजें जिसे बिसारना-कि० स० [हिं० बिसरना] भुला देना । स्मरण न रखना। खरीदें। सौदा । उ०-सबही लीन्ह विसाहन पोर घर कीन्ह ध्यान में न रखना। विस्मृत करना 110-(क ) धीर वहोर । —जायसी (शब्द०)। २. मोल लेने की क्रिया । सिखापन प्रापनहू को बिसूरि विसूरि विसारत ही बन्यो । खरीद । उ०—(क) पूरा किया बिसाहना बहुरी न पावै हट्ट घोर ( शब्द० ) । (ख) देश कोश की सुरति बिसारी।- -कवीर (शब्द०) । (ख) इहाँ बिसाहन करि चली आगे तुलसी (शब्द०)। (ग ) पाथर महुँ नहि पतंग बिसारा । विषमी बाट ।-कवीर (शब्द०)। जहँ तह संवर दीन्ह तुई चारा । —जायसी (शब्द०)। बिसाहनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बिसाहना ] सौदा। जो वस्तु मोल ली संयो॰ क्रि०-देना। जाय । उ०—(क) जो कहुँ प्रीति विसाहनी करतो मन नहिं बिसारा-वि० [सं० विपालु ] [वि॰ स्त्री० विसारी ] विष भरा । जाय । काहे को कर मांगतो बिरह जगातो आय ।-रसनिधि विषाक्त । विर्षला। उ०-नैन बिसारे बान सों चली बटाउन (शब्द॰) । (ख) कोई करै बिसाहनी काहू के न बिकाय । मारि । बचन सुधारस सींचि के वाहि जीव दै नारि-मति० कोऊ चाले लाभ सों कोऊ मूर गाय ।—जायसी (शब्द॰) । ग्रं॰, पृ०४४६। बिसाहा-संज्ञा पुं० [हिं० बिसाहना ] सौदा । खरीदी हुई वस्तु । जो बिसास-संशा पुं० [ विश्वास ] विश्वासघात । उ०- वस्तु मोल ली जाय । बिसाहना । विसाहनी। उ०-(क) प्रीतम अनेरे मेरे धूमत घनेरे प्रान विष भोए विषम विसास सिंघलदीप जाय सब चाहा मोल न पाउव जहाँ बिसाहा । बान हत है।-घनानंद, पृ० १२। -जायसी (शब्द॰) । (ख) जिन्ह यहि हाट न लीन्ह बिसाहा । विसास-संज्ञा पुं॰ [ सं० विश्वास ] दे० 'विश्वास' | उ०-तुम्हरे ताकह पान हाट किन लाहा ।—जायसी (शब्द०)। नावे विसास छोडि है प्रान की आस संसार धरम मेरो मन बिसिखा-संज्ञा पुं० [सं० विशिख ] दे० 'विशिख' । उ०-हरिहि धीज-रे० बानी, पृ०६। हेरि ही हरि गयो बिसिख लगे झषकेत । थहरि सयन तें बिसासिन, बिसासिनि-संज्ञा स्त्री० [सं० अविश्वासिनी ] (स्त्री) डहरि रहरि के खेत ।-स० सप्तक, पृ० २६१ । जिसपर विश्वास न किया जा सके । विश्वासघातिनी। घिसिनी-संज्ञा स्त्री० [स० विसिनी] कमलसमूह वा कमल । उ०- दगावाज (स्त्री)। उ०-(क) लाजहू को न डेराति अबूझ ज्यों निशि बिसिनी जल में रहै। बस कलानिधि नभ सो बिसासिनि के छल को पछिताति है।-(शब्द०)। (ख) राखि वहै ।-राम० धर्म०, पृ० ३४३ । गई घर सूने बिसासिनि सासु जंजाल ते मोहि न छोरयो। यौ०-बिसिनीपत्र-कमल का पत्ता। -(शब्द०)। घिसासी-वि० [सं० अविश्वासी ] [ खी बिसासिन ] जिसपर बिसियर'-वि० [सं० विषधर ] विषैला। विषयुक्त । उ०- विश्वास न किया जा सके। विश्वासघाती । दगाबाज । धोखे- कनक परन छबि मैन नैन बिसिपर बिनु सायक । हनुमान 'बाज । छली । कपटी । उ०—(क) कबहूँ वा विसासी सुजान (शब्द०)। के मांगन मो असुवानि हूँ ले वरसो ।-धनान द, पृ० १०८ । बिसियर-संज्ञा पुं० सर्प । विषधर । (ख) सेखर घेर करै सिगरे पुरवासी बिसासी भए दुखदात बिसिल-वि० [सं०] विस से संबद्ध । कमल संबंधी [को॰] । हैं । सेखर (शब्द०)। (ग) जाप ही पठाई ता बिसासी बिसी-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चमड़ा। वह चमं जो पै गई न दीसै, संकर को चाही चदकला ते लहाई री। हिमालय के द्वादश ग्राम में द्वारा तैयार किया गया हो [को०] । -दुलह (शब्द०)। (घ) गोकुल के चख में चक चावगो, बिसीप-वि० [सं० विशिष्ट या विशेष ] असाधारण । दे० चोर लौं चौंके अयान बिसासी ।-गोकुल (शब्द०)। 'विशिष्ट' । उ०-अंदर नट्ट वुलाइ के पुच्छिय विगति बिसाह--संज्ञा पुं॰ [सं० व्यवसाय] मोल लेने का काम । खरीद । क्रय । विसीष ।-पृ० रा०, २०२५ । बिसाहना-क्रि० स० [हिं० बिसाह + ना (प्रत्य॰)] १. खरीदना घिसुकरमा, घिसुकर्मा--संज्ञा पुं॰ [सं० विश्वकर्मन् ] दे० 'विश्व- मोल लेना। क्रय करना । दाम देकर लेना। उ०—(क) जाहिर जहान में जमानो एक भांति भयो वेचिए विबुध धेनु, रासभी बिसाहिए ।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) हों घिसुनना-क्रि० अ० [हिं० सुरकना, सुनकना ] कोई वस्तु खाते बनिजार तो बनिज बिसाही। भर व्योपार लेहु जो चाही। समय उसका कुछ अंश नाक की ओर चढ़ जाना। -जायसी (शब्द०)। (ग) हाटों में रखी हुई बेधने बिसाहने विसुनी-संशा स्त्री० [सं० विष्णु ? ] अमरवेल |-अनेकार्थ (शब्द॰) । को वस्तुएँ ।-लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। २. जान बूझकर बिसुरना'-क्रि० अ० [हिं० ] दे० 'बिसूरना' । प्रपने पीछे लगाना। अपने साथ करना। जैसे, रार बिसुरनारे--संज्ञा स्त्री० [सं० विसूरण ] चिंता । विसुरना । बिसाहना, बर बिसाहना । उ०-निदान पहले तो हैदरपली के बिसुवा-संज्ञा पुं० [हिं० विस्वा ] दे० 'विस्वा' । वेटे टीपू सुलतान का सिर खुजलाया कि इन अंग्रेजों से बैर बिस्रना-क्रि० प्र० [सं० विसूरण (= शोक)] सोच करना। चिता पिसाहा।-शिवप्रसाद (गन्द०)। करना। खेद करना। मन में दुःख मानना। उ०-(क) कर्मा'।