पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७७

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विसूरना जानि कठिन शिव चाप बिसूरति । चली रासि उर स्थागत फूल जाती है। विगुट नमकीन प्रौर मोठा दोनों प्रकार मूरति । तुलसी (०२०)। (ख) जनु करना यह वेप का होता है। इसे योपलोग बामाते । पर भारत बिसूरति । —तुलसी (शब्द०)। में भी इसका यिोग प्रचार हो गया। विसूरना-राशा सी० चिंता। फिक्र । सोच । ७०-लालची लवार fara go ( 16 ) 10 'f.FT'{id}! विललात द्वार द्वार, दीन बदन गलीन मन मिट ना घिरना। विस्तर- [ विसर, फा] १. विधोना । पिसायन । वह -तुलसी (शब्द०)। मोटा म.पा जिगे फार उसपर मोएं। नानासन विसूलना-ग्रा० स० [सं० वि+हिं० सूरना, सूनना, एखना ] २. यिस्तार । यदाय। उ०-() जाति एक विौ दिम्दर, पीडित करना। कष्ट देना। व्यथा पहुंचाना । उ०-पूल तही जहा गुमा।जग० यानी, १०२। (ग) बटन काल विसूल देहि री ही हूल अलि पंघ। तन मन रघ गरे पयन लगि दोउ गुप कीन्हो । विस्तर नीति में कहि दीन्दी । सीतल मद सुगंध ।-स० सप्तक, पृ० २३० । -गज (शब्द०)। विसेख पु-वि० [ स० विशेष ] दे० 'विशेष' । उ०—(क) पिरोगि न विन्तरना'-पि.. प० [१० गिरणा ] ना । घर घर देसलि ए निरमलि रमनी । सुरपुर सजो चलि माइत गजग. वरना। मनी ।-विद्यापति, पृ० २० । (स) दुति दयावति कहहि विस्तरना -fr. म. १. पाना । बताना। प्रधिमा बरना। विसेसि ।-विद्यापति, पृ० ५० । 30--पुरा मत गनि पार, पार पनि प्रा। मोह पिसेखता@-गझ ली[ स० विशेषता ] दे० 'विशेषता'। पुमति विस्तरे दोध मोई सलाम । -मतिराम (०)। विसेखना-फि० २० [सं० विशेष ] १. विशेष प्रकार से वर्णन २. विस्तार से परना। बदागर यगंन भरना। ३०-गर्म करना । विशेष रूप से कहना | व्योरेवार वर्णन करना। परीक्षित रक्षा | मोदक.पा पर विस्ता-गर विवृत करना । उ०-नैन नाहि पे सब कुछ देखा । गायन (पच्द०)। भौति प्रस जाय विसेसा । -जायसी (जन्द०)। २. निर्णय विस्तरा-सहा . [ का पितर ]::दितः । करना । निश्चित करना । उ०-पडित गुनि सामुहिक देशा। विस्तारल-4.1 [सं० दिलर ] विलार। फनान | ३०-- देखि रूप पौ लगन विसेसा ।-जायसी (शब्द०)। ३. विशेष पशिला, पच मुटिल निरनि चि गुम मुत विस्तार । रूप से होना या प्रतीत होना। 30-(क) सुरिज फिरन -~-पूर० १०.१७६६ । जनु गगन बिसेषी। जमुना माझ सरस्वति देसी ।-जायसी चिस्तारना-किस० [40 पिस्तारण ] विस्तृत र रना। फैलाना । (शब्द०)। उ.- प्रापन प्रभाव विस्तारा। निज यस पोन्ह सकत विसेन-संज्ञा पुं० [ ? ] क्षत्रियो की एफ पासा जिसका राज्य संसारा।-तुलसी (०२०)। किसी समय वर्तमान गोरसपर के मास पास के प्रदेश से लेफर नेपाल तक था। विस्तुइया - [ विपमिका या हि विष बना (= टपगना, पूना)] विफली । गृहगोपा। धिसेस-वि० [ स० विशेष ] दे० 'विशेष' । विस्थार-सरा ० [सं० पिस्तार ] : 'विस्तार' । उ०-(रु) विसेसर-संग पुं० [सं० विश्वेश्वर ] दे० 'विश्वेश्वर' । उ०- बस बिंदुमाधव विसेसरादि देव सबै । -भारतेंदु प्र०, भा० १, बहुत विस्थार फहिपत है एगो ।-प्राण, १० २३ । (ग) एका स गोना विस्थार । नाना एक पने विचार। पू० २८१। -प्राण०, पृ०६६। विसेसिक@---संज्ञा पुं० [स० वैशेपिक ] दे० 'वैशेषिक' । ३०- कथन पातंजल जोग कहयो, सो बिसेसिक सार समय जो विन्थीरु-० [सं० यिस्पिर ? ] मस्पिर। नंचा। उ०- वतायो।-घट०, पृ० १३० । नानक लसिय न जाय बहुत विस्पर।-प्राण, पृ० १६० । विसैंधा-वि० [हिं० विसायंध] १. जिसमें दुर्गध पाती हो। विस्मै-सरा पुं० [स० विस्मय] ० 'विस्मय' । ३० --मायौनत पियो रागु, सुनि मुनि ही चिरम भई।-हिंदी प्रेमगाया०, १० १८६ बदबूदार । २. मास मछली प्रादि की गंधवाला । २० तजि नागेसर फूल सुहावा । कवल बिसै घहि सो मन लावा । बिस्राम-ज्ञा पुं० [सं० विधाम ] ३० "विश्राम'। -जायसी (शब्द०)। विस्व--संग पुं० [सं० विश्य ] दे० 'विस्वा'। उ०-गिरिधर दास पिसोक-वि० [स० वि+- शोक] शोकरहित । गतशोक । वीतशोक । विस्व कीरति विलासी रमा, हासी लो उजासी जानी जगत उ०-राम नाम जपु तुलसी होइ विसोक ।-तुलसी, हुतासी है। -भारतेंदु न, मा०१, पृ० २८१ । पृ० २३ । विश्वा'-संग सी० [? ] सोंठ।-अनेकार्थ०, पृ० १०४ । विस्कुट-सला पु० [अं० ] खमीरी माटे की तंदूर पर पकी हुई एक यिस्वा-संश सी० [स० वेश्या] रंडी । वेश्या । 50-दिस्या लिए प्रकार की टिकिया। सिंगार है बैठी बीच बजार । -पलटु० बानी, भा०, विशेष—यह बहुत हलकी पौर सुपाच्य होती है मौर दूध में डालने पृ० १८॥ -