पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८१

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बीघा १५२० बीचोबीच बीघा-या पुं० [स० विग्रह, प्रा. विग्गह ] खेत नापने का एक (२) झगड़ा निपटाने के लिये पंच बनना । मध्यस्थ होना । वर्गमान जो बीस विस्वे का होता है। उ०-प्रब भए वीच पारना वा डालना = (१) परिवर्तन करना । (२) विभेद सौतिन के हाथ के रे घर बीघा सौ कीन्ह ।-मलूक० बानी, वा पार्थक्य करना । उ॰—(क) विधि न सके उ सहि मोर पृ०१३। दुलारा । नीच बीच जननी मिस पारा ।—तुलसी (शब्द०)। विशेष-एफ जरीव लंबी और एक जरीब चौड़ी भूमि क्षेत्रफल (ख) गिरि सों गिरि पानि मिलावती फेरि उपाय के बीचहि में एक बीघा होती है । भिन्न भिन्न प्रांतो मे भिन्न भिन्न पारती है। प्रताप (शब्द॰) । बीच में पढ़ना = (१) मान की जरीव का प्रचार है । अतः प्रातिक वीघे का मान मध्यस्थ होना । (२) जिम्मेदार बनना । प्रतिभू बनना । वीच जिसे देही वा देहाती बीघा कहते हैं, सब जगह समान नही रखना = भेद करना । दुराव रखना । पराया समझना। है । पक्का बीधा जिसे सरकारी बीघा भी कहते हैं, ३०२५ उ.-कीन्ह पीति कछु बीच न राखा । लछिमन राम चरित वर्गगज का होता है जो एक एकड़ का पांचवां भाग होता सब भाषा |–तुलमी (शब्द०)। यीन में कूदना = अना. है, पब सब जगह प्रायः इसी बीघे का प्रयोग होता है । वश्यक हस्तक्षेप करना । प्रथं टांग अडाना। (किसी को ) पोचा'-संज्ञा पुं० [सं० विच (= अलग करना)] १. किसी परिघि, बीच देना या बीच में देना = (१) मध्यस्थ बनाना । (२) सीमा या मर्यादा का केंद्र अथवा उस केंद्र के आस पास का साक्षी बनाना । (ईश्वर श्रादि को) बीच में रखकर कहना = कोई स्थान जहाँ से चारों ओर की सीमा प्राय. समान (ईश्वर आदि की) शपथ खाना । कसम खाना । मंतर पर हो। किसी पदार्थ का मध्य भाग । मध्य । उ० विशेष-इस अर्थ में कभी कभी जिसकी कसम खानी होती है, (क) मन को यारों पटकि कर टुक टूक हो जाय । टूटे पाछे उसका नाम लेकर पोर उसके साथ केवल 'वीच' शब्द फिर जुरे बीच गांठि परि जाय । (ख) जनमपत्रिका वतिकै लगाकर भी बोलते हैं । जैसे,—ईश्वर बीच, हम कुछ नहीं देखह मनहि विचार । दारुन बैरी मीच के बीच बिराजत जानते । उ०-तोहि अलि कीन्ह पाप भा केवा । हो पठवा नारि ।-तुलसी (शब्द॰) । गुरु वीच परेवा ।-जायसी (शब्द॰) । मुहा०-बीच खेत = (१) खुले मैदान । सबके सामने । प्रकट यौ०-बीचबचाव, बीचपिचाव = विचवई । मध्यस्थता । रूप में। ३. दो वस्तुओं वा खंडों के बीच का अंतर । अवकाश । उ०- २. पवश्य | जरूर। उ०-पाजाद जरूर छूट प्राएंगे। वह अवनि जमहि जांचइ कैकेई । महि न बीच विधि मी न देई । टिकनेवाले आदमी नही है। बीच खेत पाएंगे। -फिसाना०, -तुलसी (शब्द०)। ४. अवसर । मौका । अवकाश । भा०३, पृ० २११ । बीच बाजार %D दे० 'बीच खेत' । उ०- वोचर-क्रि० वि० दरमियान | अंदर । में । उ०-जानी न ऐसी चढा विस्वा पिए सिंगार है बैठी बीच बजार ।-पलटु० बानी, चढी में फिहिषौ कटि बीच ही लूटि लई सी।--पद्माकर भा० १, पृ० १८ । बीच बीच में = (१) रह रह कर । थोड़ी (शब्द०)। थोड़ी देर में । (२) थोडी थोड़ी दूरी पर । बीच-सजा स्त्री० [सं० वीचि ] लहर । तरंग । २० 'बीचि'। २. भेद । प्रतर । फरक । उ०—(क) बंदी संत असज्जन उ०-राम सीन जस ललित सुधा सम । उपमा बीच चरना । दुखप्रद उभय वीच कछु बरना ।—तुलसी (शब्द०)। बिलास मनोरम ।-मानस ११३७ । (ख) धन्य हो धन्य हो तुम घोष नारी। मोहि घोखो गयो दरस तुमको भयो तुमहि मोहिं देखो री बीच भारी।- बीचलना-क्रि० प्र० [ मं० विचलन | दे० 'विचलना'। उ०- सूर (शब्द०)। कायर कादर बीचले, मिलान सबद अमोल ।-संतवानी, भा० १, पृ० ११४ । मुहा०-धीच करना=3 - (१) लड़नेवालों को लडने से रोकने के लिये अलग अलग करना। उ०-ललित भृकुटि तिलक भाल वीचार-मंज्ञा पुं० [सं० विचार ] दे० 'विचार' । उ०—कहै कबीर चिबुक अधर, द्विज रसाल, हास चारुतर पोल नासिका बीचार बिन दुनियाँ, काल के संग सदा नीद सोवै ।-कबीर० रे०, पृ०२४। सुहाई । मधुकर जुग पंकज बिच मुख बिलोकि नीरज पर लरत मधुप प्रबलि मानों वीच किए आई । तुलसी बीचि-संशा श्री० [सं० वीचि ] लहर । तरंग । उ०-वीविन के (शब्द॰) । (२) झगडा निबटाना । झगडा मिटाना । उ०- सोर सौं जनावत पुकार के । -मतिराम (शब्द०)। (क) चोरी के फल तुमहिं दिखाऊँ । बीच करन जो प्राव वोचु -संज्ञा पु० [हिं० बीच ] १. अवसर । मौका । २. अंतर । कोऊ ताको सौह दिवाऊँ । सूर श्याम चोरन के राजा बहुरि फरक । उ०-चतुर गंभीर राम महतारी। वीचु पाइ निज कहा मैं पाऊँ ।-सूर (शब्द॰) । (ख) रहा कोई घरहरिया करे चात संवारी।-तुलसी (शब्द०)। जो दोउ मह बीच । —जायसी (शब्द०)। बीच पड़ना= बीचोबीच-क्रि० वि० [हिं० बीच ] बिल्कुल बीच में । ठीक मध्य (१) परिवर्तन होना। और का पोर होना । बदल जाना । में ! उ०-श्री कृष्णचंद भी अर्जुन को साथ ले वहाँ गए उ.-कोटि जतन कोऊ करे परे न प्रकृतिहि वीच । नल बल पौर जा के बीचोबीच स्वयंवर के खड़े हुए। -जल्ल° जल ऊँचे चढ़े मंत नीच को नीष ।-विहारी (शब्द०)। (शब्द०)।