पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 । पड़ना। बेवादी ३५५६ वर उ०-वह. वेवात भी हंसती है।-सुनीता, पृ० ३३२ । २. वमिरल-वि० [फा० वे + अ. मिसाल ] अनुरम । बेनजीर । अनुचित | अनुपयुक्त । लाजवाब । उ०-न उस है औरत न फरजंद है। के प्रो यौ०-वेवात की घात = अनवसर की बात । अनुचित चर्चा । एक बेमिस ल मानिद है। -बिग्वनी०, पृ० ११७ । असामयिक कथन । वेमुखा-वि० [सं० विमुख ] ; चिमुप' । उ०-त्यपनी बेमुख बेवादी-वि० [सं० विवादी ] विवाद करनेवाला । उ० भव, गुरु से विद्या पाय ।-नरन० बानी, पृ. २०० । वक्वादी वैवादी निंदक तेहि का मुंह करु काला ।-जग० वेमुनासिव-वि० [फा० ] जो मुनासिब न हो । अनुचित । श०, पृ० १२६ । वेमुरव्वत-वि० [ फा०] जिसमे मुख्यत न हो। जिसमें गोल या वेबुनियाद-वि० [फा०] १. जिसकी कोई जड़ न हो। निर्मूल । संकोच का प्रभाव हो । तोताचशम । वेजड़ । २. मिथ्या । झूठ। वेमुरव्वती'-- मी० [ फा० ] येमुरवत का भाव। वेव्याहा-वि० [ फा ये + हि० व्याहा ] [स्त्री० वेव्याहो] जिसका वेमरीवतो:-वि० [फा० वेमुरव्यत] [ १० मुरीवती ] ३० व्याह न हुआ हो। विवाहित । कुंपारा । 'वेमुरव्वत'। बेभाव-क्रि० वि० [फा० + हिं० भाव ] जिसका कोई हिसाब वेमेल-वि० [फा० ये+हिं० मेल ] बिना जोट का | अनमिल । या गिनती न हो । वेहद । वेहिसाव । वेमौका'-० [ फा ये + अ० मौकए jजो अपने ठीक मौके पर मुहा०-- बेभाव की पड़ना = (१) बहुत अधिक मार पड़ना । न हो । जो अपने उपयुक्त अवसर पर न उ०-खोजी की चांद पर वेभाव की पड़ने लगी।- बेमौका-संशा पुं० मौके का न होना । अवसर का प्रभाव । फिसाना०, भा० ३, पृ० २४२ । २, बहुत अधिक फटकार वेमौसिम-वि० [ फा० + प्र० मासिम ] उपयुक्त मौसिम या ऋतु न होने पर भी होनेवाला। जैसे-जाडे में पानी चेम-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश०] १. जुलाहो की कधी । वय । वैसर। वि० दे० बरसना या प्राम मिलना वेमौसिम होता है। उ०-येमोमिम 'कधी'-२। २. भैस का बछड़ा । पंडवा । उ०-भक्त ग्वाल की धीमी धीमी झड़ी लग रही थी।-यो दुनियाँ, पृ० २ । के लिये जियराम जी महाराज ने चुराई हुई भैसे पीछी मंगाई वेयरा-मज्ञा पु० [ मं० येघरर ] २० वेरा' । व्याज रूप घृत में मैसें की बेम (संतान) पाई।-राम० धर्म०, वेरग-वि० [सं० वि + रन ( = मानंद)] १. प्रानंदरहित । पु०२८६। वेमजा । २. वर्ण रहिन । वेमजा-वि० [फा० वेमजए ] जिसमे कोई मजा न हो। जिसमें वेरंगीgt-संज्ञा पुं० [हिं० घेरग+] बिना रूप रंगवाला, कोई प्रानंद न हो। अर्थात् ईश्वर । उ०-रंगी के रंग सू सपि गागर लई वेमतलब-वि० [फा० +१० मतलब ] विना जरूरत का। भराय।-चरण० बानी०, पृ० १५५ । अनावश्यक । बेकार। वेर-संज्ञा पुं० [सं० घरी या पदर प्रा० ययर] १. प्राय. सारे भारत वेमन'-क्रि० वि० [फा० वे + हिं० मन ] विना मन लगाए । विना में होनेवाला मझोले पाकार का एक प्रसिद्ध फॅटीला वृक्ष । दत्तचित हुए। विशेष-इसके छोटे बड़े कई भेद होते हैं । यह वृक्ष जब जंगली वेमन-वि० जिसका मन न लगता हो। दशा में होता है, तब भरवेग कहलाता है और जब कलम वेमरम्मत-वि० [फा० ] जिसकी मरम्मत होने को हो पर न हुई लगाकर तैयार किया जाता है तब उसे पेवंदी (पैयंदी) हो । बिगड़ा हुआ । बिना सुधरा । दटा फूटा। कहते हैं। इसकी पत्तियो चारे के काम में पोर चाल पमड़ा वेमरम्मतो-संज्ञा म्ही० [फा०] बेमरम्मत होने का भाव । सिझाने के फाम में पाती है। बंगाल में इस वृक्ष की पत्तियों वेमसरफ-वि० [फा० येमसरफ ] वेकार । वेमतलव । पर रेशम के फोड़े भी पलते हैं। इसकी लकड़ी कड़ी पौर वेमाई -संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'विवाई' । फुछ लाली लिए हुए होती है और प्रायः सेती के बीजार बनाने और इमारत के काम मे याती है। इसमें एक प्रकार वेमारी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बीमारी' । के लबोतरे फल लगते हैं जिनके प्रदर बहुत कड़ी गुठली बेमालूम-क्रि० वि० [फा०] ऐसे ढंग से जिसमें किसी को मालूम होती है। यह फल पकने पर पीले रंग का हो जाता है और न हो। बिना किसी को पता लगे। जैसे,—वह सव माल मीठा होने के कारण खुब खाया जाता है। पालम लगाकर बेमालूम उड़ा ले गए। इसके फलों का प्राकार और स्वाद बहुत कुछ बढ़ाया वेमालूम-वि० जो मालूम न पड़ता हो। जो देखने में न पाता हो जाता है। या जिसका पता न लगता हो। जैसे,—इसकी सिलाई पर्या०-पदर । कधू । कोल । सौर | षटकी । वफ्रकंटक । बेमालूम होनी चाहिए। २. बेर के वृक्ष का फल । मिलावट-वि० [फा० ये + हिं० मिलावट ] जिसमें विसी प्रकार वेर-संज्ञा स्त्री० [हिं० पार] १. बार । दफा । १. विशेष मोर मुहा० की मिलावट न हो। बेमेल । शुद्ध । खालिस । साफ । 'वार' शब्द मे। उ०-जो कोह जाया इक बेर मांगा। जन्म च