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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३५१

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स० ब्रहावैवर्त ब्रहारति -चितामणि, भा॰ २, पृ० २०७ । २. महादेव का एक ब्रह्मवर्त-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ब्रह्मावत' । गण। ब्रह्मवर्द्धन-संज्ञा पु० [ स०] तांबा । ब्रह्मरात-संशा पु० [सं०] १. शुकदेव । २. याज्ञवल्क्य मुनि । ब्रह्मवल्ली-मज्ञा स्त्री० [सं०] इस नाम का एक उपनिषद् । ब्रह्मरात्र-मंचा पु० [ स०] गत शेष चार दंड । ब्राह्ममुहूर्त । ब्रह्मवाणी-सञ्ज्ञा स्त्रो॰ [ स०] वेद । ब्रह्मरात्रि-संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की एक रात जो एक कल्प की ब्रह्मवाद-सा पुं० [ ] १. वेद का पढना पढ़ाना। वेदपाठ । होती है। २. वह सिद्धात जिसमें शुद्ध चैतन्य मात्र को सत्ता स्वीकार ब्रह्मराशि-सशा पु० [सं०] १. परशुराम का एक नाम । २. की जाय, अनात्म की सत्ता न मानी जाय । अद्वैतवाद । वृहस्पति से प्राक्रात श्रवण नक्षत्र । ब्रह्मवादिनी-सज्ञा स्त्री० [स०] १. गायत्री। २. उपनिषदो में वरिणत ब्रह्मरिन-संज्ञा पुं० [ मं० ब्रह्मऋण ] वह ऋण या कजं जो ब्रह्म ज्ञान वेदिनी विदुषो स्त्रियाँ । या ब्राह्मण से सबघित हो । उ०-सो अपने माथे ब्रह्मरिन ब्रह्मवादी- वि० [स० ब्रह्मवादिन् ] स्त्री० ब्रह्मवादिनी ] ब्रह्म होहगो-दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २०२ । अर्थात् शुद्ध चैतन्य मात्र की सत्ता स्वीकार करनेवाला । ब्रह्मरीति-संज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार का पीतल । वेदांती । प्रतिवादी । ब्रह्मरूपक-सज्ञा पुं॰ [ म० ] एक छद जिसके प्रत्येक चरण में गुरु, ब्रह्मविंदु-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मवन्दु ] वेदपाठ करने में मुह से लघ, गुरु, लघु के क्रम से १६ अक्षर होते हैं। इसे 'चंचला' निकला हा थूक का छोटा । और 'चित्र' भी कहते हैं। जैसे,—अन्न देइ सीख देइ राखि ब्रह्मविद्-वि० [सं०] १. ब्रह्म को जानने या समझनेवाला। २. ले प्राण जात । राज वाप मोल लै करै जु दीह पोषि गात । वेदार्थजाता। दास होय पुत्र होय, शिष्य होय कोइ माइ । शासना न मानई ब्रह्मविद्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह विद्या जिसके द्वारा कोई व्यक्ति तो कोटि जन्म नर्क जाइ । केशव (शब्द०)। ब्रह्म को जान सके । उपनिषद् विद्या । २. दुर्गा । ब्रह्मरूपिणी-संज्ञा सी० [सं० वदा | बांदा। ब्रह्मविवधेन-मचा पुं० [सं०] १. इंद्र । २. विष्णु [को०] । ब्रह्मरेख-सज्ञा स्त्री० [ स० ब्रह्मरेखा ] भाग्य या प्रभाग्य का लेख ब्रह्मवीणा-संज्ञा स्त्री० [स० ] एक प्रकार की वीणा [को०] । जिसके विषय में कहा जाता है कि ब्रह्मा किसी जीव के गर्भ ब्रह्मवृक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] १. पलाश वृक्ष । २. गूलर का पेड़ । में प्राते ही उसके मस्तक पर लिख देते हैं, जो कभी मिट ब्रह्मवेत्ता-संज्ञा पुं॰ [ स० ब्रह्मवेतृ ] ब्रह्म को समझनेवाला। ब्रह्म- नही सकता, अवश्य ही होता है। ज्ञानी। तत्वज्ञ। ब्रह्मर्पि -सज्ञा पु० [स०] ब्राह्मण ऋषि । ब्रह्मवैवर्त-संञ्चा पु० [मं०] १. वह प्रतीति मात्र जो ब्रह्म के कारण ब्रह्मर्पिदेश-सज्ञा पु० [ स०] मनु द्वारा निर्दिष्ट वह भूभाग जिसके हो; जैसे, जगत् की। २. ब्रह्म का विवतं जगत । ३. अंतर्गत कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाचाल और शूरसेनक देश थे। श्रीकृष्ण । ४. अठारह पुगणो मे से एक पुराण जो कृष्ण- भक्ति सबंधी है। ब्रह्मलेख-सज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ब्रह्मरेख' । विशेष-मत्स्यपुराण में इस पुराण का जो परिचय दिया हुआ ब्रह्मलोक-संज्ञा पु० [सं०] १. वह लोक जहाँ ब्रह्मा रहते हैं । है, उसमे लिखा है कि इसमें सावरिण ने नारद से रथतर' उ०-ब्रह्मलोक लगि गएउ मैं चितएउ' पाछ उड़ात । क्ल्प के श्रीकृष्ण का माहात्म्य मोर ब्रह्मवाराह की गाथा -मानस, ७७६ । २ मोक्ष का एक भेद । कही है। पर इस नाम का जो पुराण आजकल मिलता है, विशेप-कहते हैं कि जो लोग देवयान पथ से ब्रह्मलोक को प्राप्त उसमे न तो सावणि वक्ता हैं और न ब्रह्मवाराह की गाथा होते हैं उन्हे फिर इस लोक में जन्म नहीं ग्रहण करना है । प्रचलित पुराण में नारायण ऋषि नारद जी से और पडता। नारद जी व्यास जी से कहते हैं। इसके 'ब्रह्म', 'प्रकृति', ब्रह्मलौकिक-वि० [स०] १. ब्रह्मलोक संबंधी। २. ब्रह्मलोक में 'गणेश' और 'कृष्णजन्म' नामक चार खड हैं । ब्रह्मखंड में निवास करनेवाला [को०] । परब्रह्मनिरूपण, सृष्टि, ब्रह्मांड की उत्पत्ति. कृष्णरूप में ब्रह्मवक्ता-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मवक्तृ ] ब्रह्म का व्याख्याता। वेद का नारायण का प्राविर्भाव, महाविराट् जन्म, रासमंडल, राधा की प्रध्यापक [को॰] । उत्पत्ति, गोपों और गौओं की उत्पत्ति, पृथ्वी के गर्भ से मंगल ब्रह्मवद्य-संज्ञा पु० [म० ] ब्रह्म का ज्ञान । ब्रह्मज्ञान [को०] । की उत्पचि, इत्यादि विषय हैं। प्रकृति खड मे शक्ति शब्द ब्रह्मवध-संञ्चा पुं० [सं०] ब्रह्महत्या । की निरुक्ति, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, देवतापो का प्राविर्भाव, सरस्वती, लक्ष्मी और गंगा का परस्पर विवाद और शाप के ब्रह्मवध्या-मंज्ञा स्त्री० [मं० ] ब्रह्महत्या । ब्राह्मणवध । कारण नदी रूप में हो जाना, भूमिदान आदि का पुण्य, ब्रह्मवर्चस -संज्ञा पुं० [सं०] वह शक्ति जो ब्राह्मण तप और भगीरथ का गंगा लाना, गोलोक में क्रोध करके राधा का स्वाध्याय द्वारा प्राप्त करे । ब्रह्मतेज । गंगा को पान करने दौड़ना, गगा का श्रीकृष्ण के चरण में ब्रह्मावर्चस्वी-वि० [सं० ब्रह्मवर्चस्विन् ] ब्रह्मतेजवाला। शरण लेना, फिर ब्रह्मा प्रादि की प्रार्थना पर कृष्ण का गंगा