पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३६५

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भक्षक ३६०४ भगदरं किए सतभाई।—सूर (शब्द०)। ३. पान करना । पान । चालहु यह बात । तिनहिं जो पाहन भस करहिं प्रस केहि के पीना। मुख दांत । -जायसी (शब्द०) यौ०-भक्षकार । भक्षपत्री । भखना-क्रि० स० [म० भण>प्रा० भक्मण] १. खाना । भक्षक-वि० [सं०] [ सी० भक्षिका ] खानेवाला । भोजन करने भोजन करना । उ०—(क) नीलकठ कोटा भर्स मुख वाके है वाला । खादक। राम । प्रौगुन वाले लगै नहिं दर्शन से ही काम । -कबीर भक्षकार-सज्ञा पु० [सं०] हलवाई । सुपकार । रसोइया । (शब्द०)। (ख) कृमि पायक तेरो तन भपि समुझि देसु भक्षटक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] छोटा गोखरू। मन माही। दीनदयालु मूर हरि भजि ले यह प्रोसर फिर नाही।-सूर (शब्द॰) । (ग) क्यों सरि सीतल वास कर भक्षण-सज्ञा पु० [ स०] [ वि० भक्ष्य, भात, भक्षणीय ] १. भोजन करना । किसी वस्तु को दांतो से काटकर खाना । मुख ज्यों भसिए धनसार के साटे |--केशव (शब्द०)। २. निगलना। जैसे, पूषा धादि का खाना । २. पाहार । भोजन । भखी-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की घास जो दलदतों में उत्पन्न भक्षन-सज्ञा पु० [सं० भक्षण ] दे० 'भक्षण'। उ०-गो भक्षन होती है । सवी। द्विज श्रुति हिंसन नित जासु कम मैं । -भारतेंदु ग्र०, भा० १, विशेप - यह नैनीताल मे बहुत होती है और छपर छाने के पृ० ५४०।। फाम मे प्राती है। इसकी टट्टियां भी बनती हैं। इसके फल भक्षना-क्रि० स० [ स० भक्षण ] भोजन करना। खाना । मे नारंगी की सी महक होती है। पकने पर यह लाल उ०-(क) छहूँ रसहूँ घरत मागे वहै गंध सुहाइ । भोर अहित रग की हो जाती है। इसे चौपाए बड़े चाव से चरते हैं। अभक्ष भक्षति गिरा वरणि न जाइ । —सूर (शब्द॰) । (ख) इसे 'खवी' भी कहते हैं। अति तनु धनु रेखा नेक नाकी न जाकी। खल घर खर घारा क्यों सहै तिच्छ ताकी। यिह कन घन पुरे भाक्ष क्यों भखुरा--सरा पु० [स० भक्ष्य] भक्ष्य । पाहार ! दे० भक्ष' । उ.- घाज जीवै । शिव सिर पशि श्री को राहु कैसे सु छोवै ।- जूड़ कुरकुटा पं भलु चाहा ।—जायसी प्र० (गुप्त), पृ० २१०। केशव (शब्द०)। (ग) जाति लता दुहुँ अखि रहि नाम कहै भख्खg-संज्ञा पुं० [सं० भक्ष ] दे॰ 'मक्ष', 'भक्ष्य' । उ०-वावन्न सब कोय । सूधे सुख मुख भक्षिए उलटे अंबर होय ।-केशव प्रजा सुत भस्ख प्रानि । दीने मु मादि भैरव निदानि । -पृ० (शब्द०)। रा०,६१६६। भक्षयिता-वि० पु० [स० भक्षयित ] भक्षण करनेवाला । खानेवाला । भख्खनाल-क्रि० स० [ स० भाषण ] भाखना। कहना । भक्षिका-वि० [सं०] खानेवाली । भोजन करनेवाली । उ०-मातृ पथी एक संदेसड़उ, भत माणस नइ नख ।-टोला, पितृ बंधु शील भक्षिका । लोक लाज नाश हेतु तक्षिका ।- टू०,११४ । भारतेंदु म, भा० ३, पृ० ८४४ । भक्षित-वि० [सं०] खाया हुआ । शेष । भगंदर-सज्ञा पुं॰ [सं० भगन्दर ] एक रोग का नाम जो गुदावर्त के किनारे होता है। भक्षित-संज्ञा पु० दे० 'भक्ष्य। विशेप-यह एक प्रकार का फोडा है जो फूटकर नासूर हो जाता यौ०-भतिशेष, भक्षितान = उच्छिष्ट । खाने से बचा हुना । है और इतना बढ़ जाता है कि उसमें से मत मूत्र निकलता भक्षी-वि० [स स० भक्षिन् ] [ सो० भक्षिणी ] खानेवाला । भक्षक । है। जब तक यह फोड़ा फूटता नहीं, तब तक उसे पिड़िका भक्ष्य'-वि० [सं०] भक्षण करने योग्य । खाने के योग्य । वा पीडिका कहते हैं। और जब फूट जाता है तब उसे भक्ष्य-संज्ञा पु० खाद्य । अन्न । श्राहार । भगदर वाहते हैं । फूटने पर इगसे लगातार ताल रंग का फेन और पीव निकलता है। यहाँ तक कि यह छेद गहरा होता भक्ष्यकार-संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'भक्षकार' । जाता है मौर अंत को मल प्रौर मूत्र के मार्ग से मिल जाता भक्ष्याभक्ष्य-वि० [सं० भक्ष्य+अभक्ष्य ] खाने और न खाने योग्य । है और इस राह से मल का प्रश निकलने लगता है । वैद्यक खाद्य अखाद्य (पदार्थ)। में भगंदर की उत्पत्ति पांच कारणों से मानी गई है भौर भख-संज्ञा पु० [स० भक्ष, प्रा० भक्ख] पाहार । भक्ष्य । भोजन । तदनुसार उसके भेद भी पाँच ही माने गए हैं-वात, पित्त, उ०-(क) आनंद व्याह कट मस खावा । अव भख जन्म कफ, सन्निपात और प्रागतु; और इनसे उत्तन्न होनेवाले जन्म कहं पावा।—जायसी (शब्द०)। (ख) वेद वेदांत भगदर क्रमशः शतपानक, उष्ट्र प्रीव, परिस्रावी, शंबूकावर्त और उपनिषद् परपै सो भख भोक्ता नाहि । गोपी, ग्वालिन के उन्माग कहलाते हैं । वैद्यक में यह रोग विशेषकर सन्निपातज मडल में सो हँहि जूठनि खाहिं । - सूर (शब्द०)। (ग) पट असाध्य माना गया है। वैद्यों का मत है कि भगंदर रोग में पाखै भख पाकरे सफर परेई संग । सुखी परेवा जगत में फुन्सियों के होने पर बड़ी खुजलाहट उत्पन्न होती है। फिर एकै तुही बिहंग ।-विहारी (शब्द०)। पीड़ा, जलन और पोथ होता है। कमर-मे पीडा होती है मुहा०-भख करना= खाना । उ०-पाछे देहु जो गढ़ तो जनि मौर कपोल मे भी पीड़ा होती है। वैद्यक में इस रोग की BO