पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३६७

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भगदैवत भगवल्लोला स० जाते हैं। भगदैवत-पज्ञा पुं० [सं० ] उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र [को०] । भगवती-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवी । २. गोरी। ३. सरस्वती। भगन-वि० [ स० भग्न ] दे० 'भग्न' । उ०-भगन फियो भव ४. गंगा। ५. दुर्गा। ६. सामान्य त्री। धनुष, साल तुमको पब सालौ ।-केशव (शब्द॰) । भगवत्-वि० [स०] [स्त्री • भगवती ] ऐश्वर्य युक्त । भगवान् । भगन-संज्ञा पु० [हिं० ] भागने का कार्य या स्थिति । उ०-दुरि पूजनीय । मुरि भगन, बचावन, छवि सो भावन, उलटन सोहैं। भगवत्-संज्ञा पु० १. ईश्वर । परमेश्वर । २. विष्णु। ३. शिव । -नंदन, पु० ३८१ । ४. बुद्ध । ५. कातिकेय । ६. सूर्य । ७. जिन । भगनंदन-संज्ञा पु० [ स० भगनन्दन ] विष्णु का उपनाम । भगवत्पदो- खो० [सं०] गगा । भगनहा-सञ्ज्ञा पु० [सं० भग्नहा ] करेरुमा नामक कटीली वेल | भगवत्स्मरन-संज्ञा पुं० [स०] वैष्णवो में परसर मभिवादन सूचित वि० दे० 'करेरुमा। करने का एक शब्द । उ०-चाई वह वैष्णव ने नगवत्स्मरन भगना'-कि० अ० [हिं०] दे० 'भागना' । करयो।-दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३४ । भगना-संशा पु० [ स० भागनेय ] वहिन का लड़का । भानजा। भगवदीय-सञ्ज्ञा पु० [सं०] भगवद्भक्त । भगवान का भक्त | उ.- भगनासा-सज्ञा स्त्री० [सं०] भगोष्ठ के ऊपरी संधिस्थान का वह वीरा श्री गुसाई जी, श्री ठाकुर जी की ऐसी कृपापात्र समीपवर्ती भाग [को०] । भगवदीय हती ।-दो सो वावन०, भा १, पु० १२१ । भगनीg-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० भगिनी ] दे० 'भगिनी' । भगनेत्रघ्न, भगनेत्रहर-सञ्ज्ञा पु० [सं०] शिव । भगवद्गीता-सञ्चा क्षी० [स०] महाभारत के भीष्मपर्व के अंतर्गत अठारह मध्यायो का एक प्रकरण । भगपुर-सञ्ज्ञा पु० [ स०] मुलतान व मूलस्थान नाम का नगर [को०] । विशेप-इसमें उन उपदेशों मोर प्रश्नोत्तरों का वर्णन है जो भगवान् भगभक्षक-सज्ञा पु० [ स०] कुटना । भह वा [को०] । कृष्णचंद्र ने अर्जुन का मोह छुडाने के लिये उससे युद्धम्पल भगयुग-संज्ञा पु० [ ] वृहस्पति के बारह युगों में से अंतिम युग । मे किए थे। इसमें पठारह प्रध्याय हैं । यह ग्रंथ प्रस्थान- इसके पांच वर्ष दुंदुभि, उद्गारी, रक्ता, क्रोध मोर क्षय है। चतुष्टय में चौथा है और बहुत दिनों से महाभारत से पुथर इनमें पहले को छोड़ शेष चार वर्ष उत्तरोतर भयानक माने माना जाता है। इसपर शंकराचार्य, रामानुज, वल्लभादि प्राचार्यों के भाष्य हैं। हिंदू धर्म में यह ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ पौर भगर'-संज्ञा पु० [देश॰] १. छल । फेरव । ढोंग । ७०-काटे जो सब संप्रदायों का मान्य नय है। फहत सीस, काटत घनेरे घाघ, भगर के खेले महाभट पद भगवद्रुम-संज्ञा पुं० [म.] महाबोधि वृक्ष । पावही ।-केशव (पाब्द०)। २. इंद्रजाल । वाजीगरी । भगल । उ०—हय हिसहि गज चिकारि भार HC भगवद्धर्म-ग पु० [सं०] भागवत् धर्म । उ०—जा करि भगव सिद्ध होइगो।-दो सौ पावन०, भा० १, पृ० १३७ । फुलाहल ।-पृ० रा०, ८.५४ । ३. चूर जो सूखा हो। मोटा चूर। उ०-नामदेव का स्वामी भानी न्हागरा । भगवद्भक्त-शा पु० [स०] १. भगवान का भक्त । ईश्वरभक्त । राम भाई न परी भगरा।-दक्खिनी०, पु० ३६ । २. विष्णुभक्त । ३. दक्षिण भारत के वैष्णवो का एक सप्रदाय । भगर-सचा पु० [हिं० भगरना ] सड़ा हुमा मन्न । भगरना-क्रि० प्र० [स० विकरण, हिं० बिगड़ना ] खत्ते में गर्मी भगवद्भक्ति-संसा पी० भगवान की भक्ति । पाकर अनाज का सड़ने लगना । भगवद्भाव-शा पुं० [स. भगवत् + भाव ] ईश्वरभक्ति। भगवत्प्रेम । उ०-नाछे वह निकिचन स्त्री पुरुष को संग संयो० कि०-जाना । फरन लाग्यो । सो याको भगवद्भाव बढ़यो।-दो सौ भगल-मज्ञा पु० [देश०] १. छल । कपट | ढोंग । २. हाथ की सफाई। वावन, भा० १, पृ० ३२। जादू । इ द्रजाल । बाजीगरी । उ०-दभ मकर छल भगल जो रहत लोभ के संग ।-चरण बानी, पृ० १२ । भगवद्रस-संज्ञा पुं० [सं०] भगवद्भक्ति का मानंद । उ०-भगवद्रस मे सदा मगन रहित हैं।-दो सौ बावन०, भा० १, भगलो-संञ्चा पु० [हिं० भगल+ ई (प्रत्य॰)] १. ढोंगी। छली। पृ. २२८ । उ०-कोउ कहै भिच्छुक कोउ कहै भगली, अपकीरति भगवद्वार्ता-सञ्ज्ञा सी० [सं०] भगवान् फी चर्चा । उ०-सो धापन गोहरावै ।-जग० श०, पृ० १०६ । २ बाजीगर । उ०- के दरसन करि के वैठयो। पाछे व्यास कराइ के भगवद्वार्ता जानत जाग्रत साँच है सोवत सपना साँच। देह गए दोक करि फेरि सेन कियो।-दो सो वावन०, भा० १, पृ० ४७ । गए ज्यो भगली को नाच ।-कबीर (शब्द०)। भगवान का विग्रह । भगवान् भगवंत-संज्ञा पुं॰ [सं० भगवत् का बहुव० भगवन्त ] भगवान । भगवद्विग्रह-संश पुं० [सं०] ईश्वर । दे० 'भगवत्' । उ०-ब्रह्म निरूपण धर्म विधि की मूर्ति । वरनहिं तत्व विभाग। कहहिं भगति भगवंत के संजुत भगवन्मय-वि० [स०] भगवान में तन्मय । ज्ञान विराग -तुलसी (शब्द० भगवल्लीला-संज्ञा स्त्री० [सं०] भगवान की लीला। उ०-एक